मंगलवार 9 रमज़ान 1445 - 19 मार्च 2024
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पाँचों वक़्त की नमाज़ों का समय

प्रश्न

पाँच दैनिक नमाज़ों का समय क्या है? इन समयों को अलग करने की ह़िकमत क्या है? ज़रूरत (आवश्यकता) का समय क्या है? हम आधी रात की गणना कैसे करेंगे?

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

"सर्वशक्तिमान अल्लाह ने अपने बन्दों पर एक दिन और रात में पाँच नमाज़ें अनिवार्य की हैं जो अल्लाह तआला की हिक्मत की अपेक्षा के अनुसार कुछ निश्चित और निर्धारित समय के साथ विशिष्ट हैं, ताकि बन्दा इन नमाज़ों के अंदर इन सभी वक़्तों की अवधि के दौरान अपने सर्वशक्तिमान रब (पालनहार) के साथ संपर्क में रहे। अत: ये नमाज़ें दिल के लिए, एक पेड़ के लिए पानी की तरह हैं जिसे समय समय पर सींचा जाता है, ऐसा नहीं कि एक ही बार सींच कर फिर बंद कर दिया जाये।

इन नमाज़ों को इन विभिन्न वक़्तों में वितरित करने की तत्वदर्शिता में से यह है कि बन्दा जब उन सभी नमाज़ों को एक ही समय पर अदा करे तो उसे उकताहट और बोझ न प्रतीक हो। अत: अल्लाह तआला बहुत बरकत (आशीर्वाद) वाला है जो सभी न्यायाधीशों से महान न्यायाधीश है।" मुक़द्दमा रिसाला अह्काम मवाक़ीतिस्सलात (नमाज़ के समय के प्रावधान) लेखक : मुहम्मद बिन उसैमीन रहिमहुल्लाह।

नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने नमाज़ के समय का उल्लेख अपने इस कथन के द्वारा किया है : "ज़ुहर की नमाज़ का वक़्त उस समय है जब सूर्य ढल जाये और (उस वक़्त तक रहता है जब) आदमी की छाया उसकी लंबाई के बराबर हो जाये जब तक कि अस्र की नमाज़ का वक्त न आ जाये, और अस्र की नमाज़ का वक़्त उस समय तक है जब तक कि सूर्य पीला न हो जाये, और मग्रिब की नमाज़ का वक़्त उस समय तक रहता है जब तक कि शफक़ (उषा अर्थात सूय डूबने के बाद पश्चिम में छितिज की लाली) समाप्त न हो जाये, और इशा की नमाज़ का वक़्त आधी रात तक रहता है, और सुब्ह (फज्र) की नमाज़ का वक़्त फज़्र के उगने से लेकर सूर्य के उगने तक रहता है, जब सूर्य उग जाये तो नमाज़ से रूक जाओ क्योंकि यह शैतान की दो सींगों के बीच उगता है।" इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है (हदीस संख्या : 612)

इस हदीस में पाँच दैनिक नमाज़ों का समय बयान किया गया है। जहाँ तक घंटे के द्वारा नमाज़ के वक़्तों को निर्धारित करने का प्रश्न है, तो यह एक देश से दूसरे देश में भिन्न होता है, अब हम हर नमाज़ के वक़्त को अलग-अलग बयान करते हैं :

पहला : ज़ुहर का समय

नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "ज़ुहर का वक़्त उस समय है जब सूरज ढल जाये और (उस वक़्त तक रहता है जब) आदमी की छाया उसकी लंबाई के समान हो जाये जब तक कि अस्र का समय न आ जाये।" नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इस हदीस में ज़ुहर की नमाज़ का शुरूआती और अंतिम समय निर्धारित किया है :

ज़ुहर का वक़्त : सूर्य के ढलने के समय से शुरू होता है, उस के ढलने का मतलब आसमान के बीच (केन्द्र) से पश्चिम की ओर ढलना है।

ज़वाल (ज़ुहर के वक़्त की शुरूआत) को जानने का व्यावहारिक अनुप्रयोग (अभ्यास) :

एक खुली जगह में एक छड़ी (पोल) रख दें, जब सूरज पूरब से उगता है तो इस छड़ी की छाया पश्चिम की ओर होगी, और जितना ही सूरज चढ़ेगा छाया कम होती जायेगी, जब तक छाया कम होती रहती है उस वक़्त तक सूरज नहीं ढलता है, और छाया निरंतर कम होती रहती है यहाँ तक कि एक निर्धारित सीमा पर रूक जाती है, फिर पूरब की ओर बढ़ना शुरू हो जाती है, जब छाया थोड़ा भी बढ़ना शुरू हो जाये तो सूरज ढल गया, और उस समय ज़ुहर का वक़्त दाखिल हो गया।

घंटे के द्वारा ज़वाल (सूरज के ढलने) की निशानी : सूरज के उगने और उसके डूबने के बीच के समय को दो भाग में विभाजित कर दें तो यही सूरज के ढलने का वक़्त है, अगर मान लें कि सूरज छ: बजे उगता है, और छ: बजे ही डूबता है तो ज़वाल का वक़्त 12 बजे होगा, और अगर वह सात बजे निकलता है और सात बजे डूबता है तो ज़वाल का वक़्त 1 बजे होगा, और इसी तरह अनुमान लगायें। (देखिये : अश्श्रहुल मुमति 2/96)

ज़ुहर के वक़्त का अंत : उस समय होता है जब हर चीज़ की छाया, उस छाया के बाद जिस पर सूरज ढला है, उस की लंबाई के बराब हो जाये।

ज़ुहर के वक़्त का अंत जानने के लिए व्यावहारिक अनुप्रयोग (अभ्यास) :

हम उस छड़ी (पोल) की तरफ लौटते हैं जिसे हम ने कुछ देर पहले रखा था, और मान लेते हैं कि उस की लंबाई एक मीटर है, आप देखें गे कि ज़वाल (सूरज ढलने) से पूर्व छाया थोड़ा थोड़ा कम होती रहती है यहाँ तक कि एक निर्धारित बिंदु पर पहुँच कर रूक जाती है। (इस बिंदु पर एक चिन्ह लगा दीजिये) फिर छाया बढ़ना शुरू हो जाती है, बस उसी समय ज़ुहर का वक़्त शुरू हो जाता है, फिर छाया निरंतर पूरब की ओर बढ़ती रहती है यहाँ तक कि छाया की लंबाई छड़ी (पोल) की लंबाई के बराबर हो जाती है, अर्थात् छाया की लंबाई उस बिंदु से जहाँ आप ने चिन्ह लगाया था वहाँ से आरम्भ होकर एक मीटर हो जायेगी। जहाँ तक उस छाया का संबंध है जो चिन्ह लगाने से पहले थी तो उस की गणना नहीं की जायेगी, और उसी का नाम ज़वाल का साया है। यहाँ पर ज़ुहर के समय का अंत हो जाता है और उस के तुरंत बाद ही अस्र का वक़्त शुरू हो जाता है।

दूसरा : अस्र का वक़्त :

आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "और अस्र का वक़्त सूरज पीला होने तक रहता है।"

हम ने यह जान लिया कि अस्र की नमाज़ का वक़्त ज़ुहर की नमाज़ के वक़्त का अंत होने पर शुरू हो जाता है (अर्थात् हर चीज़ की छाया उस के बराबर होने पर)

जहाँ तक अस्र की नमाज़ के अंतिम समय का संबंध है तो ज्ञात होना चाहिये की उस का दो वक़्त है :

1- एच्छिक समय : और वह अस्र की नमाज़ के प्रथम वक़्त से लेकर सूरज के पीला होने तक है, क्योंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : "अस्र का वक़्त उस समय तक रहता है जब तक कि सूरज पीला न हो जाये।" जहाँ तक घंटे के द्वारा उसे निर्धारित करने का प्रश्न है तो यह मौसम के बदलने के साथ बदलता रहता है।

2- ज़रूरत का वक़्त :और वह सूरज के पीला होन से लेकर सूरज के डूबने तक है। क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : "जिस ने सूरज डूबने से पहले अस्र की एक रक्अत पा ली तो उस ने अस्र की नमाज़ पा ली।" इसे बुखारी (हदीस संख्या : 579) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 608) ने रिवायत किया है।

मस्अला : ज़रूरत के वक़्त का क्या मतलब है ?

ज़रूरत के वक़्त का मतलब : यह है कि यदि कोई इंसान किसी आवश्यक काम जैसे कि घाव पर पट्टी बांधने में लगे होने के कारण अस्र की नमाज़ पढ़ने से व्यस्त हो जाये -हालांकि वह सूरज के पीला होने से पहले नमाज़ पढ़ने पर सक्षम था लेकिन उस में कष्ट उठाना पड़ता- और उस ने अस्र की नमाज़ सूरज डूबने से थोड़ा पहले पढ़ी तो उस ने समय पर नमाज़ पढ़ी और वह गुनहगार नहीं होगा, क्योंकि यह ज़रूरत का वक़्त है, अत: जब आदमी विलंब करने पर विवश हो जाये तो इस में कोई नुक़सान की बात नहीं है जबकि वह सूरज डूबने से पहले नमाज़ पढ़ ले।

तीसरा : मग्रिब का वक़्त :

आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "मग्रिब की नमाज़ का वक़्त उस समय तक रहता है जब तक कि शफक़ (सूर्यास्त के बाद पश्चिम की लाली) समाप्त न हो जाये।"

अर्थात् यह कि मग्रिब का वक़्त, अस्र का वक़्त निकलने के तुरंत बाद ही शुरू हो जाता है, और वह सूरज का डूबना है यहाँ तक कि लाल शफक़ (उषा) के लुप्त होने तक रहता है।

जब आकाश (छितिज) से लाली गायब हो जाये तो मग्रिब का वक़्त निकल गया और इशा की नमाज़ का वक़्त दाखिल हो गया, और उसे घंटे के द्वारा निर्धारित करना मौसम के बदलने के साथ बदलता रहता है, अत: जब भी आप देखें कि छितिज में लाली समाप्त हो गई है तो यह इस बात का तर्क है कि मग्रिब का समय समाप्त हो गया।

चौथा : इशा का वक़्त :

आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "और इशा की नमाज़ का वक़्त आधी रात तक रहता है।"

अत: इशा की नमाज़ का वक़्त मग्रिब की नमाज़ के वक़्त के निकलते ही शुरू हो जाता है (अर्थात् आकाश में लाली के समाप्त होने से ही) और आधी रात तक रहता है।

मस्अला : आधी रात की गणना कैसे करें ?

उत्तर : अगर आप आधी रात का हिसाब लगाना चाहते हैं तो सूरज डूबने से लेकर फज्र के उगने तक के समय की गणना करें, चुनाँचि उन दोनों के बीच का आधा ही इशा की नमाज़ का अंतिम वक़्त है, (और वही आधी रात है)।

यदि सूरज पाँच बजे डूबता है, और फज्र की अज़ान पाँच बजे होती है तो आधी रात ग्यारह (11) बजे होगी, और अगर सूरज पाँच बज़े डूबता है और फज़्र छ: बजे उदय होती है, तो आधी रात साढ़े ग्यारह बजे होगी।

पाँचवां : फज्र का वक़्त :

नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "और सुब्ह (फज्र) की नमाज़ का वक़्त फज्र के उदय होने से लेकर उस वक़्त तक है जब तक कि सूरज उग न जाये, जब सूरज उग जाये तो नमाज़ से रूक जाओ क्योंकि यह शैतान की दो सींगों के बीच उगता है।"

फज्र का वक़्त दूसरी फज्र के उदय होने से शुरू होता है, और सूरज के निकलने पर समाप्त हो जाता है। दूसरी फज्र से अभिप्राय वह सफेदी है जो पूरब की दिशा में छितिज में फैली हुई होती है, और वह उत्तर से दक्षिण तक फैली होती है, जहाँ तक पहली फज्र का संबंध है तो वह दूसरी फज्र से लगभग एक घंटा पहले उगती है और उन दोनों के बीच कुछ अंतर है :

1- पहली फज्र लंबाई में होती है, चौड़ाई में नहीं, अर्थात पूरब से पश्चिम की ओर लंबाई में होती है, और दूसरी फज्र उत्तर से दक्षिण की ओर फैली हुई होती है।

2- पहली फज्र अंधेरा पैदा करती है, अर्थात् यह प्रकाश कम अवधि के लिए होती है फिर अंधेरा हो जाता है, और दूसरी फज्र अंधेरा नहीं फैलाती बल्कि उसकी रोशनी और चमक बढ़ती ही जाती है।

3- दूसरी फज्र छितिज से मिली हुई होती है उसके और छितिज के बीच कोई अंधेरा नहीं होता है, और पहली फज्र छितिज से अलग होती है, उसके और छितिज के बीच अंधेरा छाया रहता है। (देखिये : अश्शर्हुल मुमति 2/107)

इस्लाम प्रश्न और उत्तर

स्रोत: शैख मुहम्मद सालेह अल-मुनज्जिद