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काबा के चारों ओर तवाफ़ के कई प्रकार हैं, तो ये प्रकार क्या हैं और प्रत्येक का क्या हुक्म हैॽ
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
“काबा के चारों ओर कई प्रकार के तवाफ़ होते हैं :
उनमें से एक हज्ज में किया जाने वाला “तवाफ़-ए-इफ़ाज़ा” है, जिसे “तवाफ़-ए-ज़ियारत” भी कहा जाता है। यह अरफ़ात में ठहरने के बाद ईदुल-अज़ह़ा के दिन या उसके बाद होता है। यह हज्ज के अरकान में से एक है।
उन्हीं में से एक हज्ज के लिए आने वाले के लिए “तवाफ़-ए-क़ुदूम” है। यह तवाफ़ अकेले हज्ज का एहराम बाँधने वाले तथा हज्ज एवं उम्रा का एक साथ एहराम बाँधने वाले (हज्ज क़िरान करने वाले) के द्वारा उस समय किया जाता है, जब वह काबा पहुँचता है। यह हज्ज के वाजिबात या उसकी सुन्नतों में से एक है, इसके बारे में विद्वानों के बीच मतभेद है।
उन्हीं में से एक : उम्रा का तवाफ़ है। यह उम्रा के अरकान (आवश्यक भागों) में से एक रुक्न है, जिसके बिना उम्रा मान्य नहीं होता है।
उन्हीं में से एक : तवाफ़ अल-वदा’ (विदाई तवाफ़) है, जो हज्ज के कार्यों को पूरा करने के बाद किया जाता है, जब हाजी मक्का अल-मुकर्रमा से निकलने का निश्चय करता है। यह विद्वानों के दो मतों में से सही मत के अनुसार, मासिक धर्म एवं प्रसव वाली महिलाओं को छोड़कर, सभी हाजियों पर वाजिब (अनिवार्य) है। अतः जिस व्यक्ति ने इसे छोड़ दिया, उसपर एक ऐसा जानवर ज़बह करना वाजिब है, जो क़ुर्बानी के रूप में पर्याप्त होता है।
उन्हीं में से एक प्रकार : नज़्र (मन्नत) का तवाफ़ है, जो उस व्यक्ति की मन्नत की पूर्ति में किया जाता है, जिसने काबा का तवाफ़ करने की मन्नत मानी थी। यह नज्र मानने के कारण अनिवार्य है।
उन्हीं में से एक : स्वैच्छिक तवाफ़ है।
इनमें से प्रत्येक तवाफ़ में काबा के चारों ओर सात चक्कर लगाया जाएगा, जिसके बाद तवाफ़ करने वाला व्यक्ति यदि संभव है, तो मक़ामे-इब्राहीम के पीछे दो रकअत नमाज़ अदा करेगा। अगर ऐसा करना संभव नहीं है, तो वह मस्जिद के किसी और हिस्से में नमाज़ अदा कर सकता है।
और अल्लाह ही सामर्थ्य प्रदान करने वाला है। अल्लाह हमारे नबी मुहम्मद और उनके परिवार और साथियों पर दया और शांति अवतरित करे।” उद्धरण समाप्त हुआ।
शैक्षणिक अनुसंधान एवं इफ़्ता की स्थायी समिति।
शैख़ अब्दुल अज़ीज़ बिन अब्दुल्लाह बिन बाज़... शैख़ अब्दुर्रज़्ज़ाक़ अफ़ीफ़ी... शैख़ अब्दुल्लाह बिन ग़ुदैयान
“फतावा अल-लजनह अद-दाईमह लिल-बुहूस अल-इल्मिय्यह वल-इफ़्ता” (11/223, 224)।