वेबसाइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर का सहयोग करें

हम आशा करते हैं कि आप साइट का समर्थन करने के लिए उदारता के साथ अनुदान करेंगे। ताकि, अल्लाह की इच्छा से, आपकी साइट – वेबसाइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर - इस्लाम और मुसलमानों की सेवा जारी रखने में सक्षम हो सके।

बिना वुज़ू वाले व्यक्ति और मासिक धर्म वाली महिला का मुसहफ़ के कवर और तफ़सीर की किताबों को छूना

10-08-2024

प्रश्न 118244

क़ुरआन की ऐसी प्रतियाँ होती हैं जो मोटे कपड़े के कवर से ढकी होती हैं। क्या किसी ऐसे व्यक्ति के लिए उन्हें पकड़ना जायज़ है जो पवित्रता की स्थिति में नहीं है? इसी तरह पन्ने पलटने के लिए पन्नों के किनारों को पकड़ने का क्या हुक्म है? क्योंकि ऐसे लोग हैं जिन्होंने उन्हें पकड़ना जायज़ ठहराया है.. हम तफ़सीर (क़ुरआन की व्याख्या) की किताबों के बारे में कब कह सकते हैं कि वे तफसीर हैं जिन्हें मासिक धर्म वाली महिला पढ़ सकती है, तथा हम उनके बारे में कब कह सकते हैं कि वे मुसहफ़ के हुक्म के अंतर्गत आती है और मासिक धर्म वाली महिला के लिए उन्हें छूना जायज़ नहीं है?

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

सर्व प्रथम :

अधिकांश फ़ुक़हा के मत के अनुसार, जो व्यक्ति नापाकी की हालत में है, उसके लिए बिना किसी ओट के क़ुरआन को छूना जायज़ नहीं है; क्योंकि अम्र बिन हज़्म रज़ियल्लाहु अन्हु के पत्र में वर्णित है जिसे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने यमन के लोगों को लिखा था, जिसमें कहा गया है : "क़ुरआन को केवल वही व्यक्ति छुए जो पवित्रता की स्थिति में है।" इसे मालिक (हदीस संख्या : 468), इब्ने हिब्बान (हदीस संख्या : 793) और बैहक़ी (1/87) ने रिवायत किया है।

हाफ़िज़ इब्ने हजर ने कहा : “उर्युक्त पत्र वाली हदीस को इमामों के एक समूह ने प्रामाणिक माना है, इसके इस्नाद (कथावाचकों की श्रृंखला) के संदर्भ में नहीं, बल्कि इसकी प्रसिद्धि के संदर्भ में। इमाम शाफेई रहिमहुल्लाह ने अपनी पुस्तक “अर-रिसाला” में कहा : “उन्होंने इस हदीस को तब तक स्वीकार नहीं किया जब तक कि यह साबित नहीं हो गया कि यह अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का पत्र है। इब्ने अब्दुल-बर्र रहिमहुल्लाह ने कहा : यह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जीवनीकारों के बीच एक प्रसिद्ध पत्र है, इसके अंदर जो कुछ ज्ञान है वह विद्वानों को अच्छी तरह से पता है; यह इतना प्रसिद्ध है कि इस्नाद (संचरण की श्रृंखला) की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह एक मुतवातिर रिवायत (जिसे इतने सारे लोगों ने इतने सारे लोगों से रिवायत किया हो कि यह अकल्पनीय है कि वे झूठ पर सहमत हो सकते हैं) की तरह है क्योंकि लोग इसके बारे में जानते हैं और इसे स्वीकार करते हैं।" अत-तल्खीस अल-हबीर (4/17) से उद्धरण समाप्त हुआ।

इस हदीस को शैख़ अलबानी रहिमहुल्लाह ने इरवाउल-ग़लील (1/158) में सहीह कहा है।

दूसरा :

क़ुरआन (मुसहफ़) का वह कवर जो उससे जुड़ा होता है [यानी, किसी चिपकने वाले पदार्थ या सिलाई... आदि के द्वारा क़ुरआन से जुड़ा होता है] वह क़ुरआन ही के हुक्म के अंतर्गत आता है। इसलिए वुज़ू के बिना उसे छूना जायज़ नहीं है। यही बात पन्नों के किनारों पर भी लागू होती है।

“अल-मौसूआ अल-फ़िक़्हिय्यह” (38/7) में कहा गया है : “हनफ़िय्या, मालिकिय्या, शाफ़ेइय्या और हनाबिला के अधिकांश फुक़हा का मत यह है कि जो व्यक्ति पवित्रता की स्थिति में नहीं है, उसके लिए क़ुरआन पर बंधी हुई जिल्द, क़ुरआन के उन पन्नों के हाशिये जिन पर कोई लिखावट नहीं है, और पंक्तियों के बीच की सफेदी (खाली जगह), ऐसे ही उसमें मौजूद खाली पन्ने जिन पर कुछ भी लिखा नहीं है, को छूना जायज़ नहीं है; ऐसा इसलिए है क्योंकि ये उस पन्ने के अधीन हैं जिसपर क़ुरआन लिखा गया है और उसके हरीम हैं और किसी चीज़ का हरीम उसके अधीन होता है और उसी का हुक्म ग्रहण करता है। (यानी उसी के हुक्म के अंतर्गत आते है)।

कुछ हनफिय्या और शाफेइय्या का विचार है कि ऐसा करना जायज़ है।” उद्धरण समाप्त हुआ।  

जहाँ तक ​​उस कवर की बात है जो क़ुरआन से अलग होता है, जो कि एक थैला होता है जिसमें क़ुरआन रखा जाता है और उससे निकाला जाता है, तो पवित्रता के बिना उसे छूने में कोई हर्ज नहीं है, भले ही क़ुरआन उसके अंदर हो।

क़ुरआन को उससे अलग किसी आवरण (आड़) से छूना जायज़ है, जैसे कि वह थैला जिसमें उसे रखा जाता है और दस्ताना वगैरह।

“कश्शाफ अल-क़िना'” (1/135) में कहा गया है : "जो व्यक्ति नापाकी की हालत में है, वह क़ुरआन को उसके जुज़दान और उसके कवर यानी उसके थैले में रखकर उसे छुए बिना ले जा सकता है, क्योंकि निषेध का उल्लेख उसे छूने के संबंध में किया गया है। और उसे ले जाना उसे छूना नहीं है। तथा वह अपनी आस्तीन के किनारे या किसी छड़ी और इसी तरह की चीज़, जैसे कपड़े या लकड़ी के टुकड़े से उसके पन्नों को पलट सकता है; क्योंकि तब वह उसे छू नहीं रहा है। तथा उसके लिए उसे यानी क़ुरआन को किसी अवरोध (आड़) के पीछे से छूना अनुमेय है, जैसाकि ऊपर कहा गया है।" कुछ संशोधन के साथ उद्धरण समाप्त हुआ।

तीसरा :

अधिकांश फ़ुक़हा के अनुसार, जो व्यक्ति नापाकी की हालत में है - चाहे वह छोटी नापाकी हो या बड़ी - उसके लिए तफ़सीर (क़ुरआन की व्याख्या) की किताबों को छूना जायज़ है। हालाँकि कुछ लोग इसे उन किताबों तक सीमित रखते हैं जिनमें तफ़सीर (व्याख्या) की मात्रा क़ुरआन की तुलना में अधिक है। जबकि उनमें से कुछ ने इस शर्त को निर्धारित नहीं किया है।

“अल-मौसूआ अल-फ़िक़्हिय्या” (13/97) में कहा गया है : “अधिकांश फ़ुक़हा के निकट, जो व्यक्ति नापाकी की हालत में है, उसके लिए तफ़सीर की किताबों को छूना जायज़ है, भले ही उनमें क़ुरआन की आयतें हों, तथा उन्हें ले जाना और उन्हें पढ़ना जायज़ है, भले ही वह जुनुबी (वीर्य स्राव के कारण बड़ी नापाकी की स्थिति में) हो। उन्होंने कहा : ऐसा इसलिए है क्योंकि तफ़सीर का उद्देश्य क़ुरआन के अर्थ सीखना है, उसकी तिलावत नहीं करना है। इसलिए उसपर क़ुरआन के नियम लागू नहीं होते।

शाफेइय्या ने स्पष्ट रूप से कहा है कि यह अनुमति इस शर्त के अधीन है कि तफ़सीर (की मात्रा) क़ुरआन से अधिक हो, क्योंकि ऐसी स्थिति में क़ुरआन का आदर-सम्मान प्रभावित नहीं होता है, और यह क़ुरआन की तरह नहीं है। हनफ़िय्या ने इस बारे में मतभेद किया है और उन्होंने तफ़सीर की किताबों को छूने के लिए वुज़ू को अनिवार्य कर दिया है।” उद्धरण समाप्त हुआ।

शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने कहा : "जहाँ तक तफ़सीर की किताबों का सवाल है, तो उन्हें छूना जायज़ है, क्योंकि उन्हें तफ़सीर माना जाता है और उनमें जो आयतें होती हैं वे उससे कम होती हैं जो उसमें तफ़सीर होती है।

इसके लिए इस तथ्य को प्रमाण बनाया जा सकता है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने काफ़िरों को पत्र लिखे, जिनमें क़ुरआन की आयतें थीं। इससे पता चला कि हुक्म सबसे प्रबल और सबसे अधिक का होता है।

लेकिन, अगर तफ़सीर और क़ुरआन की मात्रा बराबर है, तो जब अनुमेय करने वाला और निषेध करने वाला कारण एकत्र हो जाए, और उनमें से किसी को प्रधानता देना स्पष्ट न हो, तो इस मामले में निषेध के पक्ष को प्रबल करते हुए उसे क़ुरआन का हुक्म दिया जाएगा।

यदि तफ़सीर अधिक है, चाहे थोड़ी ही (अधिक है), तो उसे तफ़सीर का हुक्म दिया जाएगा।” “अश-शर्ह अल-मुमते'” (1/267) से उद्धरण समाप्त हुआ।

“फ़तावा अल-लजना अद-दाईमा” (4/136) में कहा गया है : “क़ुरआन के अर्थों का अरबी भाषा के अलावा किसी अन्य भाषा में अनुवाद करना जायज़ है, जिस तरह कि अरबी भाषा में उसके अर्थों की व्याख्या करना जायज़ है। और इसको उस अर्थ की व्याख्या माना जाएगा जिसे अनुवादक ने क़ुरआन से समझा है, इसे क़ुरआन नहीं कहा जाएगा।"

इसके आधार पर, किसी व्यक्ति के लिए बिना वुज़ू के अरबी के अलावा किसी दूसरी भाषा में क़ुरआन के अर्थों के अनुवाद तथा अरबी भाषा में उसकी तफ़सीर को छूना जायज़ है।” उद्धरण समाप्त हुआ।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

पवित्रता
वेबसाइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर में देखें