हम आशा करते हैं कि आप साइट का समर्थन करने के लिए उदारता के साथ अनुदान करेंगे। ताकि, अल्लाह की इच्छा से, आपकी साइट – वेबसाइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर - इस्लाम और मुसलमानों की सेवा जारी रखने में सक्षम हो सके।
क्या मेरे लिए किसी काफ़िर (अविश्वासी) या दुष्ट व्यक्ति के साथ व्यापार में साझेदारी करना जायज़ है? यदि मैं किसी दुष्ट मुसलमान या काफ़िर व्यक्ति के साथ व्यापार में भागीदार था, फिर मैं पीछे हट गया, लेकिन मेरी पूँजी उसके पास इस आधार पर बनी रही कि वह भविष्य में माल के बजाय मुझे नक़द पैसे देगा। क्या मुझे अपने उस पैसे पर ज़कात देनी होगी जिसके साथ वह व्यापार कर रहा है? ज्ञात रहे कि मुझे उस धन से कोई लाभ नहीं मिलता। या क्या ज़कात मेरे साथी पर अनिवार्य है? यह ध्यान में रहे कि मेरा साथी ज़कात नहीं देता है, या हो सकता है वह ज़कात दे, लेकिन ज़कात के हक़दार लोगों को नहीं। यदि उसने उस धन पर ज़कात नहीं दिया है, तो क्या मुझे उस पर ज़कात देनी होगी? इसके अलावा, हमने फैसला किया है कि वह अपने ऊपर बकाया मेरा क़र्ज़ इस तौर पर चुकाएगा कि हम (उससे) किराए पर देने के लिए एक इमारत बना देंगे, तो ऐसी स्थिति में ज़कात कैसे दी जानी चाहिए? इसका मतलब यह है कि : मेरे साझेदार पर जो ऋण बकाया है, वह मुझे नकदी के रूप में वापस नहीं मिलेगा; बल्कि जब वह बकाया ऋण चुकाएगा, तो वह पैसा सीधे भवन निर्माण की लागत में चला जाएगा। हमें आशा है कि आप स्पष्टीकरण करेंगे।
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
पहली बात :
एक मुसलमान के लिए किसी काफ़िर (अविश्वासी) या दुष्ट व्यक्ति के साथ व्यापारिक साझेदारी करना या काम करना जायज़ है। अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णन किया गया है कि उन्होंने कहा : अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने ख़ैबर की भूमि यहूदियों को उसपर काम करने और उस पर खेती करने के लिए दिया, जिसके बदले में उन्हें उसकी उपज का आधा हिस्सा मिलेगा। इसे बुखारी (हदीस संख्या : 2366) ने रिवायत किया है।
यह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और यहूदियों के बीच भूमि की खेती करने के संबंध में एक साझेदारी थी। श्रम (कार्य) यहूदियों द्वारा किया जाएगा, और भूमि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के द्वारा प्रदान की जाएगी और पैदा होने वाली फसल दोनों पक्षों के बीच समान रूप से विभाजित की जाएगी।
बुखारी ने इस हदीस को अपनी सहीह की ''किताब अश-शरिका'' (पार्टनरशिप या साझेदारी की पुस्तक) में इस शीर्षक के साथ उल्लेख किया है : ''अध्याय : ज़िम्मी और मुश्रिकों (बहुदेववादियों) के साथ खेती-बाड़ी में साझेदारी।"
दूसरी बात :
एक मुसलमान का किसी काफ़िर (अविश्वासी) के साथ व्यापारिक साझेदारी करना वर्जित है, यदि इसके परिणामस्वरूप वह काफिर का क़रीबी दोस्त बन जाएगा और उससे प्यार करेगा।
यदि कोई व्यावसायिक साझेदारी है, तो मुसलमान को व्यवसाय का प्रभारी होना चाहिए, या उसे काफ़िर या दुष्ट व्यक्ति के व्यापार के संचालन के तरीके पर कड़ी नज़र रखनी चाहिए, ताकि वे सूद या किसी अन्य हराम मामले का सौदा न करें।
शैख सालेह अल-फ़ौज़ान ने “अल-मुलख़्ख़स अल-फ़िक़्ही” (2/124) में कहा :
“एक मुसलमान के लिए किसी अविश्वासी के साथ व्यापारिक साझेदारी करना इस शर्त पर जायज़ है कि अविश्वासी अकेले ही व्यवसाय न चलाए; बल्कि वह मुसलमान की निगरानी में होना चाहिए, ताकि अविश्वासी सूद या अन्य हराम मामलों का सौदा न करे, यदि वह मुसलमान की देखरेख के बिना अकेले व्यवसाय चलाता है।” उद्धरण समाप्त हुआ।
शैख अब्दुल-अज़ीज़ बिन बाज़ रहिमहुल्लाह से पूछा गया : क्या एक मुसलमान के लिए भेड़-बकरी पालने, या उनका व्यापार करने, या किसी अन्य व्यापार में एक ईसाई के साथ भागीदार बनना जायज़ है?
तो उन्होंने जवाब दिया :
“जहाँ तक किसी मुसलमान के किसी ईसाई या अन्य काफिर के साथ पशुधन, या कृषि या किसी अन्य चीज़ के संबंध में व्यापारिक साझेदारी में प्रवेश करने का प्रश्न है, तो उसके बारे में मूल सिद्धांत यह है कि यह जायज़ है, जब तक कि उनके बीच कोई घनिष्ठ मित्रता न हो; बल्कि उसने कृषि, या मवेशी (पशुधन) इत्यादि जैसे कुछ धन में केवल सहयोग किया हो। विद्वानों के एक समूह ने कहा : यह इस शर्त पर है कि उस काम का प्रभारी मुसलमान को होना चाहिए; जिसका अर्थ यह है कि : कृषि या पशुधन में मुसलमान को काम करना चाहिए, काफ़िर को उस काम को नहीं करना चाहिए, क्योंकि उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता है।
इस मामले में कुछ विवरण है : यदि यह व्यापारिक साझेदारी घनिष्ठ मित्रता की ओर ले जाती है, या ऐसा कुछ करने की ओर ले जाती है जिसे अल्लाह ने हराम किया है, या उसे त्यागने की ओर ले जाती है जिसे अल्लाह ने अनिवार्य किया है : तो यह व्यापारिक साझेदारी हराम है, क्योंकि यह खराबी की ओर ले जाती है। लेकिन अगर यह साझेदारी इसमें से किसी भी चीज़ का कारण नहीं बनती है, और मुसलमान व्यक्ति ही सीधे तौर पर इस कारोबार को चलाता है और वही इसकी देखभाल करता है, ताकि वह धोखा न खाए, तो इसमें कुछ भी हर्ज नहीं है।
लेकिन हर हाल में, उसके लिए बेहतर है कि इस साझेदारी से दूर रहे, और दूसरों के बजाय अपने मुसलमान भाइयों के साथ साझेदारी करे, ताकि वह अपने धर्म और अपने धन को सुरक्षित रख सके। क्योंकि किसी ऐसे व्यक्ति के साथ, जो धर्म में उसका शत्रु है, व्यापारिक संबंध स्थापित करने में उसके चरित्र, उसके धर्म और उसके धन के लिए खतरा है। अतः मोमिन के लिए हर हाल में बेहतर यह है कि वह अपने धर्म की रक्षा करने के लिए, अपने सम्मान (सतीत्व) की रक्षा करने के लिए और अपने धन की रक्षा करने के लिए, तथा अपने धार्मिक दुश्मन के विश्वासघात (धोखा) से सावधान रहने के लिए, इस मामले से दूर रहे, सिवाय इसके कि ज़रूरत और आवश्यकता इसकी अपेक्षा करती हो। तो ऐसी स्थिति में उसपर कोई हर्ज नहीं, इस शर्त के साथ कि वह ऊपर बताए गए मामलों को ध्यान में रखे।
अर्थात् यह इस शर्त के साथ है कि इसमें उसके धर्म, या सम्मान (सतीत्व), या धन को कोई नुकसान न हो, और इस शर्त के साथ कि वह स्वयं व्यवसाय चलाए, क्योंकि यह उसके लिए अधिक विवेकपूर्ण है। इसलिए काफ़िर को इसका प्रभारी नहीं होना चाहिए। बल्कि इस साझेदारी (कंपनी) और उसमें काम का प्रभारी व्यक्ति मुसलमान को होना चाहिए, अथवा किसी अन्य मुसलमान को उन दोनों की ओर से कार्य करने के लिए नियुक्त किया जा सकता है।” उद्धरण समाप्त हुआ।
"फतावा नूरुन अलद-दर्ब” (1/377, 378)।
तीसरी बात :
आपका साझेदारी को छोड़ देना और उसमें आपके हिस्से का आपके साझेदार पर क़र्ज़ (ऋण) के रूप में में बाक़ी रहना, साझेदारी से आपका संबंध समाप्त कर देता है। इसलिए साझेदारी से संबंधित धन में आपपर कोई ज़कात अनिवार्य नहीं है।
आपको केवल उस क़र्ज़ की ज़कात देनी होगी जो आपका आपके पूर्व साथी पर बकाया है, भले ही आप उससे कोई इमारत बनाने जा रहे हों। जब तक आपके साथी पर क़र्ज़ बाकी है, आपको उस पर ज़कात देनी होगी। कर्ज पर ज़कात के संबंध में कुछ विवरण है जिसका उल्लेख हमने प्रश्न संख्या : (1117) के उत्तर में किया है, जिसका सारांश यह है :
यदि आपका साथी धनवान है और क़र्ज़ चुकाने को तैयार है, तो जब भी एक वर्ष बीत जाए, तो आपको उस पर ज़कात देनी होगी। यदि आपका साथी दिवालिया है या भुगतान करने में टाल-मटोल करने वाला है, तो सबसे विवेकपूर्ण यह है कि आप उसके प्राप्त होने पर एक वर्ष की ज़कात दें।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।