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अल्लाह तआला सूरतुज़्ज़ारियात, आयत संख्याः 35-36 में फरमाता है : (फिर हमने निकाल लिया जो भी उस (बस्ती) में ईमान वाले थे। और हमने उसमें मुसलमानों का केवल एक ही घर पाया।” प्रश्न यह है कि मोमिनों और मुसलमानों के बीच क्या अंतर है और सबसे उच्च पद वाला कौन हैॽ
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
इस्लाम और ईमान के बीच अंतर उन मुद्दों में से है जिसका उल्लेख करने में विद्वानों ने अक़ाइद की किताबों में लंबी बात की है, और उन्होंने इस संबंध में जो कुछ पारित किया है उसका निष्कर्ष यह है कि : अगर इन दोनों शब्दों में से कोई एक शब्द दूसरे से अलग आए तो उससे अभिप्राय पूरा इस्लाम धर्म होता है और ऐसी स्थिति में इस्लाम और ईमान के बीच कोई अंतर नहीं होता।
परंतु यदि ये दोनों शब्द एक ही संदर्भ में एक साथ आएं, तो ईमान से अभिप्राय : आंतरिक कार्य होते हैं, जो कि हृदय के काम हैं, जैसे अल्लाह सर्वशक्तिमान में विश्वास, उसका प्रेम, उसका भय, उससे आशा रखना और उसके लिए इख्लास।
तथा इस्लाम से मुरादः प्रत्यक्ष कार्य होते हैं जिनके साथ कभी तो हृदय का विश्वास भी होता है, और कभी उसके साथ हृदय का विश्वास नहीं होता है, तो ऐसा आदमी मुनाफिक़ (पाखंडी) या कमजोर ईमान वाला मुसलमान होता है।
शैखुल-इस्लाम इब्न तैमिय्या (अल्लाह उन पर दया करे) फरमाते हैः
“ईमान” का शब्द कभी कभी अकेले उल्लेख किया जाता है, वह न तो “इस्लाम” के शब्द के साथ मिला होता है और न ही अमल सालेह (अच्छे काम) के साथ, और न तो उनके अलावा के साथ। तथा कभी कभी इस्लाम शब्द के साथ मिलकर आता है जैसाकि हदीस-जिब्रील (जिब्रील अलैहिस्सलाम के नाम से प्रसिद्ध हदीस) में आया है : (इस्लाम क्या है… और ईमान क्या है)
और जैसाकि अल्लाह तआला के इस फरमान में है :
إِنَّ الْمُسْلِمِينَ وَالْمُسْلِمَاتِ وَالْمُؤْمِنِينَ وَالْمُؤْمِنَاتِ
الأحزاب: 35
“निःसंदेह मुसलमान पुरुष और मुसलमान स्त्रियाँ, ईमान वाले पुरुष और ईमान वाली स्त्रियाँ…।” (सूरतुल अहज़ाबः 35).
तथा अल्लाह सर्वशक्तिमान के इस कथन में है:
قَالَتِ الْأَعْرَابُ آمَنَّا قُلْ لَمْ تُؤْمِنُوا وَلَكِنْ قُولُوا أَسْلَمْنَا وَلَمَّا يَدْخُلِ الْإِيمَانُ فِي قُلُوبِكُمْ
الحجرات: 14
“बद्दुओं (देहातियों) ने कहा कि हम ईमान लाए। आप कह दीजिए कि तुम ईमान नहीं लाए। किंतु तुम यह कहो कि हम इस्लाम लाए और ईमान अभी तक तुम्हारे दिलों में प्रवेश नहीं किया है।” (सूरतुल हुजुरातः 14).
तथा अल्लाह तआला के इस फरमान में हैः
فَأَخْرَجْنَا مَنْ كَانَ فِيهَا مِنَ الْمُؤْمِنِينَ . فَمَا وَجَدْنَا فِيهَا غَيْرَ بَيْتٍ مِنَ الْمُسْلِمِينَ
الذاريات: 35-36
“फिर हमने निकाल लिया जो भी उस (बस्ती) में ईमान वाले थे। और हमने उसमें मुसलमानों का केवल एक ही घर पाया।” (सूरतुज़-ज़ारियातः 35-36).
जब ईमान का जिक्र इस्लाम के साथ किया जाए :
तो इस्लाम से अभिप्राय प्रत्यक्ष कार्य : शहादतैन (ला इलाहा इल्लल्लाह और मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह की शहादत अर्थात गवाही), नमाज़, ज़कात, रोज़ा और हज्ज होते हैं।
और ईमान से अभिप्राय दिल में मौजूद अल्लाह, उसके स्वर्गदूतों (फरिश्तों), उसकी किताबों, उसके पैगंबरों और अंतिम दिन पर ईमान होता है।
और जब ईमान का उल्लेख अकेले किया जाता है तो उसमें इस्लाम और अच्छे कार्य शामिल होते हैं, जैसाकि ईमान की शाखों वाली हदीस में आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : “ईमान की सत्तर से अधिक शाखाएं हैं, उसकी सर्वोच्च शाखा : ला इलाहा इल्लल्लाह कहना, और उसकी न्यूनतम शाखा : रास्ते से हानिकारक चीज़ को हटाना है।”
इसी तरह अन्य शेष हदीसें भी हैं जिनमें नेक कार्यों को ईमान में से करार दिया गया है।” संक्षेप के साथ समाप्त हुआ।
“मजमूउल फतावा” (7 / 13-15)।
शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने फरमाया :
“अगर उन में से एक दूसरे के साथ मिलकर आए तो इस्लाम की व्याख्या प्रत्यक्ष आत्मसमर्पण से की जाती है जो कि ज़बान का कथन और शारीरिक अंगों का कार्य है, और यह संपूर्ण ईमान वाले मोमिन तथा कमज़ोर ईमान वाले मोमिन से जारी होता है, अल्लाह सर्वशक्तिमान ने फरमाया :
قَالَتِ الْأَعْرَابُ آمَنَّا قُلْ لَمْ تُؤْمِنُوا وَلَكِنْ قُولُوا أَسْلَمْنَا وَلَمَّا يَدْخُلِ الْإِيمَانُ فِي قُلُوبِكُمْ
“बद्दुओं (देहातियों) ने कहा कि हम ईमान लाए। आप कह दीजिए कि तुम ईमान नहीं लाए। किंतु तुम यह कहो कि हम इस्लाम लाए और ईमान अभी तक तुम्हारे दिलों में प्रवेश नहीं किया है।” (सूरतुल हुजुरातः 14).
तथा मुनाफिक़ (पाखंडी) से भी जारी होता है, लेकिन उसे प्रत्यक्ष में मुसलमान कहा जाता है, परंतु प्रोक्ष में वह काफिर होता है।
और ईमान की व्याख्या प्रोक्ष आत्मसमर्पण से की जाती है जो कि दिल की स्वीकृति और उसका कार्य है, और यह केवल सच्चे विश्वासी से जारी होता है, जैसाकि अल्लाह सर्वशक्तिमान ने फरमाया :
إِنَّمَا الْمُؤْمِنُونَ الَّذِينَ إِذَا ذُكِرَ اللَّهُ وَجِلَتْ قُلُوبُهُمْ وَإِذَا تُلِيَتْ عَلَيْهِمْ آيَاتُهُ زَادَتْهُمْ إِيمَانًا وَعَلَى رَبِّهِمْ يَتَوَكَّلُونَ الَّذِينَ يُقِيمُونَ الصَّلَاةَ وَمِمَّا رَزَقْنَاهُمْ يُنْفِقُونَ أُولَئِكَ هُمُ الْمُؤْمِنُونَ حَقًّا
سورة الأنفال: 2-4
“वास्तव में, ईमान वाले वही हैं कि जब अल्लाह का स्मरण किया जाता है, तो उनके दिल काँप उठते हैं और जब उनके समक्ष उसकी आयतें पढ़ी जाती हैं, तो वे (आयतें) उनके ईमान को और अधिक कर देती हैं, और वे अपने पालनहार पर भरोसा रखते हैं। जो नमाज़ को स्थापित करते हैं तथा हमने उन्हें जो कुछ प्रदान किया है, उसमें से दान करते हैं। वही लोग सच्चे ईमान वाले हैं।” (सूरतुल अनफालः 2-4)
इस अर्थ में ईमान सर्वोच्च होता है, चुनांचे प्रत्येक मोमिन मुसलमान है, जबकि प्रत्येक मुसलमान मोमिन नहीं है।”
“मजमूओ फतावा व रसाइल इब्न उसैमीन” (4/92)।
प्रश्न में वर्णित आयत लूत अलैहिस्सलाम के घर वालों को कभी ईमान से वर्णित करने और कभी इस्लाम से वर्णित करने में इस अर्थ से सहमति रखती है।
यहाँ इस्लाम से अभिप्राय प्रत्यक्ष इस्लाम है, और ईमान से अभिप्राय दिल का वास्तविक ईमान है। जब अल्लाह तआला ने पूरे घर वालों की विशेषता बयान की तो उन्हें इस्लाम से विशिष्ट किया। क्योंकि लूत अलैहिस्सलाम की पत्नी उनके घर वालों में से थी और वह ज़ाहिरी तौर पर मुसलमान थी, जबकि वास्तव में एक नास्तिक थी। और जब अल्लाह तआला ने बाहर निकाल लिए गए जीवित बचे लोगों का उल्लेख किया तो उन्हें ईमान से विशिष्ट किया। अल्लाह ने फरमायाः
فَأَخْرَجْنَا مَنْ كَانَ فِيهَا مِنَ الْمُؤْمِنِينَ . فَمَا وَجَدْنَا فِيهَا غَيْرَ بَيْتٍ مِنَ الْمُسْلِمِينَ
الذاريات/35 – 36 .
“फिर हमने निकाल लिया जो भी उस (बस्ती) में ईमान वाले थे। और हमने उसमें मुसलमानों का केवल एक ही घर पाया।” (सूरतुज़-ज़ारियातः 35-36).
शैखुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह ने फरमायाः
“लूत की पत्नी प्रोक्ष में एक पाखंडी नास्तिक थी, और अपने पति के साथ दिखने में एक मुसलमान थी। इसीलिए अपनी जाति के लोगों की यातना के साथ दंडित की गई। यही उन मुनाफ़िक़ों (पाखंडियों) की हालत थी जो पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ थे, जाहिरी तौर पर वे आपको स्वीकराते थे, जबकि प्रोक्ष रूप से वे अविश्वासी थे।”
“जामिउल मसाइल” (6/221)।
तथा आप रहिमहुल्लाह ने यह भी फरमाया :
“लोगों के एक समूह का गुमान है कि इस आयत की अपेक्षा यह है कि ईमान और इस्लाम का आशय एक है (अर्थात दोनों शब्द एक ही चीज़ के लिए बोले जाते हैं), और उन्होंने दोनों आयतों में विरोधाभास पैदा किया है।
हालांकि ऐसा नहीं है, बल्कि यह आयत पहली आयत से मेल खाती है, क्योंकि अल्लाह तआला ने यह सूचना दी है कि उसमें जो भी मोमिन था अल्लाह ने उसे बाहर निकाल दिया और उसने मुसलमानों में से केवल एख घर वाले को पाया; ऐसा इसलिए है क्योंकि लूत की पत्नी मौजूद रहनेवाले घर वालों में थी, वह बाहर निकाल लिए गए जीवित रह जाने वाले लोगों में से नहीं थी; बल्कि वह प्रकोप में बाक़ी रह जाने वाले लोगों में से थी। वह दिखने में अपने पति के साथ उनके धर्म पर थी, जबकि प्रोक्ष रूप से अपनी क़ौम के लोगों के साथ उनके धर्म पर थी, अपने पति के साथ विश्वासघात करने वाली थी, अपनी क़ौम वालों को उनके मेहमानों का पता देती थी, जैसाकि अल्लाह तआला ने उसके बारे में फरमाया :
ضَرَبَ اللَّهُ مَثَلًا لِلَّذِينَ كَفَرُوا امْرَأَتَ نُوحٍ وَامْرَأَتَ لُوطٍ كَانَتَا تَحْتَ عَبْدَيْنِ مِنْ عِبَادِنَا صَالِحَيْنِ فَخَانَتَاهُمَا
التحريم/10
“अल्लाह ने काफ़िरों के लिए नूह की स्त्री और लूत की स्त्री की मिसाल पेश की है। वे दोनों हमारे बन्दों में से दो नेक बन्दों के विवाह में थीं। किन्तु उन दोनों स्त्रियों ने उनसे विश्वासघात किया।” (सूरतुत-तह्रीमः 10)
उन दोनो का विश्वासघात धर्म के विषय में था बिस्तर (सतीत्व) में नहीं था। इसका मतलब यह है कि लूत अलैहिस्सलाम की औरत ईमान वाली नहीं थी, और बाहर निकाल लिए गए नजात पाने वाले लोगो में से नहीं थी। इसीलिए अल्लाह तआला के इस कथन में उसका प्रवेश नहीं हुआः
فَأَخْرَجْنَا مَنْ كَانَ فِيهَا مِنَ الْمُؤْمِنِينَ
“फिर हमने निकाल लिया जो भी उस (बस्ती) में ईमान वाले थे।” (सूरतुज़-ज़ारियातः 35).
वह मुसलमान घर वालों में से और उसमें पाए जाने वालों में से थी, इसीलिए अल्लाह सर्वशक्तिमान ने फरमाया :
فَمَا وَجَدْنَا فِيهَا غَيْرَ بَيْتٍ مِنَ الْمُسْلِمِينَ
“और हमने उसमें मुसलमानों का केवल एक ही घर पाया।” (सूरतुज़-ज़ारियातः 36).
इससे क़ुरआन की हिकमत प्रदर्शित होती है कि जब बाहर निकालने की सूचना दी तो ईमान का उल्लेख किया, और जब मौजूद रहने की सूचना दी तो इस्लाम का उल्लेख किया।”
“मजमूउल फतावा” (7 / 472-474)
शैख इब्ने उसैमीन (अल्लाह उन पर दया करे) ने कहा :
“अल्लाह सर्वशक्तिमान ने लूत अलैहिस्सलाम की कहानी में फरमाया :
فَأَخْرَجْنَا مَنْ كَانَ فِيهَا مِنَ الْمُؤْمِنِينَ فَمَا وَجَدْنَا فِيهَا غَيْرَ بَيْتٍ مِنَ الْمُسْلِمِينَ
“फिर हमने निकाल लिया जो भी उस (बस्ती) में ईमान वाले थे। और हमने उसमें मुसलमानों का केवल एक ही घर पाया।” (सूरतुज़-ज़ारियातः 35-36).
यहाँ मोमिनों और मुसलमानों के बीच अंतर किया है; क्योंकि गांव में जो घर था वह देखने में एक इस्लामी घर था, क्योंकि उसमें लूत अलैहिस्सलाम की औरत थी जिसने कुफ्र (नास्तिकता) के द्वारा उनके साथ विश्वासघात किया, और वह नास्तिक थी। लेकिन उसमें से जो बाहर निकाल लिए गए और बच गए, वास्तव में वही लोग मोमिन (विश्वासी) हैं जिनके दिलों में ईमान प्रविष्ट हो गया था।” अंत हुआ।
“मजमूओ फतावा व रसाइल इब्ने उसैमीन” (1/47-49)
और अल्लाह तआला ही ससबसे अधिक ज्ञान रखता है।