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एक ऐसा व्यक्ति है जो विकलांग है और वह चल-फिर नहीं सकता है, और उसकी बहन के अलावा उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है, चुनाँचे वह उसकी ज़रूरत पूरी करती है और जितना संभव है उसके गुप्तांग को देखने से बचती है, और वह - अल्लाह का शुक्र है कि - नमाज़ पढ़ता है। उसकी बहन तीन बार उसके डायपर बदलती है, लेकिन उसे और रोगी को इसमें बहुत कठिनाई होती है। क्योंकि वह मल-मूत्र असंयम से ग्रस्त है। वह सुबह (फज्र) की नमाज़ पढ़ता है, और ज़ुहर को अस्र के साथ इकट्ठा करता है, और मग़्रिब को इशा के साथ एकत्रित करता है। वह महिला उसे धोने और उसके पवित्रीकरण के बारे में पूछती हैॽ क्या उसके लिए इससे अधिक नमाज़ें एक साथ करने की रुख्सत हैॽ क्योंकि वे दोनों इस्तिंजा और वुज़ू से कठिनाई का सामना करते हैं। क्या उसके लिए तयम्मुम करना जायज़ हैॽ या क्या उसके लिए डायपर को निकाले बिना नमाज़ पढ़ना जायज़ हैॽ
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
सर्व प्रथम :
मूल सिद्धांत यह है कि एक आदमी के गुप्तांग को उसकी माँ या उसकी बहन के लिए देखना जायज़ नहीं है। क्योंकि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : "अपनी पत्नी या अपनी लौंडी के सिवा प्रत्येक से अपने गुप्तांग की रक्षा करो (छुपाओ)।" इसे अबू दाऊद (हदीस संख्या : 4017) और तिर्मिज़ी (हदीस संख्या : 2794) ने रिवायत किया है। और उन्होंने कहा है कि : यह हदीस हसन है, और अल्नी ने ''सहीह तिर्मिज़ी'' में इसे हसन कहा है।
लेकिन बहन के लिए अपने भाई को धोना जायज़ है, यदि वह अपने आप को पवित्र (साफ) करने में असमर्थ है और उसकी कोई पत्नी नहीं है जो उसकी सेवा और उसकी सफाई करे। तथा उसके पास ऐसा कोई पुरुष भी नहीं है जो उसके लिए यह सब कुछ कर सके, क्योंकि ज़रूरत पड़ने पर और सख्त हाजत पोश आने पर गुप्तांग को उघाड़ना और उसे छूना जायज़ है। और जितना भी उसके लिए गुप्तांग की ओर न देखना, या सीधे अपने हाथ से उसे न छूना संभव हैः तो उसके लिए ऐसा करना अनिवार्य है, और बेहतर यह है कि वह कोई बाधक जैसे कि कपड़े का टुकड़ा, या दस्ताना, या इसी तरह की कोई चीज़ उपयोग करे।
दूसरा :
नमाज़ के बारे में मूल सिद्धांत यह है कि यथाशक्ति उसे उसके ठीक समय पर अदा किया जाए, क्योंकि अल्लाह तआला का फरमान है :
إِنَّ الصَّلَاةَ كَانَتْ عَلَى الْمُؤْمِنِينَ كِتَابًا مَوْقُوتًا
النساء/103.
''निःसंदेह नमाज़ ईमान वालों पर एक निर्धारित समय पर अनिवार्य है।'' (सूरतुन निसा : 103)
तथा कुछ परिस्थितियों जैसे यात्रा, बीमारी इत्यादि में ज़ुहर और अस्र को एक साथ, तथा मग़रिब और इशा को एक साथ पढ़ना जायज़ है, चाहे उसे अग्रिम करके (अर्थात दोनों नमाज़ों में से पहली नमाज़ के समय में) इकट्ठा किया जाए या विलंब करके (अर्थात दोनों नमाज़ों में से दूसरी नमाज़ के समय में) इकट्ठा किया जाए।
शैखुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह ने ''मजमूउल फतावा'' (22/293) में कहा :
''रही बात नमाज़ों को इकट्ठा करने की तो उसका कारण आवश्यकता और उज़्र है, यदि उसे उसकी आवश्यकता है तो वह नमाज़ों को इकट्ठा कर सकता है, चाहे यात्रा छोटी हो या लंबी। इसी प्रकार बारिश आदि की वजह से, या बीमारी आदि कि वजह से और इसके अलावा अन्य कारणों से दो नमाज़ों को इकट्ठा किया जा सकता है। क्योंकि इसका उद्देश्य उम्मत से तंगी (कष्ट व कठिनाई) को दूर करना है।'' अंत हुआ।
तथा उत्तर संख्याः (97844) देखें।
शरीअत में दो से अधिक नमाज़ों को इकट्ठा करने की रुख़्सत नहीं आई है, तथा बीमार आदमी के लिए नमाज़ को उसके समय से बाहर निकालना जायज़ नहीं है सिवाय इसके कि वह शरीअत के अनुसार दो नमाज़ों को एकत्रित करके पढ़े। इसिलए दो से अधिक नमाज़ों को एकत्रित करके पढ़ना जायज़ नहीं है, क्योंकि इस्लामी शरीअत में ऐसा वर्णित नहीं हुआ है।
स्थायी समिति से पूछा गया कि : "एक महिला जो अपनी बीमारी के कारण और कई अस्पतालों के बीच स्थानांतरित होने की वजह से नमाज़ को उसके समय से बाहर कर देती है, तो समिति ने उत्तर दियाः
"नमाज़ को उसके समय से विलंब करना जायज़ नहीं है, आपके लिए अनिवार्य है कि अपनी यथा शक्ति नमाज़ को समय पर पढ़ें, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान हैः
(खड़े होकर नमाज़ पढ़ो, यदि तुम इसमें सक्षम न हो, तो बैठकर नमाज़ पढ़ो, अगर इसमें भी सक्षम न हो तो पहलू पर नमाज़ पढ़ो, यदि इसकी भी क्षमता न हो तो चित लेटकर नमाज़ पढ़ो।”
और बीमार के लिए ज़ुहर और अस्र की नमाज़ को उन दोनों में से किसी एक के समय में, तथा मग़रिब और इशा की नमाज़ों को उन दोनों में से किसी एक के समय में इकट्ठा करना जायज़ है।'' फतावा स्थायी समिति (8/83) से उद्धरण समाप्त हुआ।
तीसरा :
पानी की मौजूदगी और इसका इस्तेमाल करने की क्षमता के साथ तयम्मुम करना जायज़ नहीं है। लेकिन, अगर रोगी पानी का उपयोग करने में असमर्थ है, या उसे इसका इस्तेमाल करने से नुकसान (क्षति) पहुंचने का डर है, या वह उसके उपयोग में गंभीर कठिनाई अनुभव करता है, तो उसके लिए तयम्मुम करना जायज़ (अनुमेय) है।
अल्लाह तआला ने फरमायाः
وَإِنْ كُنْتُمْ مَرْضَى أَوْ عَلَى سَفَرٍ أَوْ جَاءَ أَحَدٌ مِنْكُمْ مِنَ الْغَائِطِ أَوْ لَامَسْتُمُ النِّسَاءَ فَلَمْ تَجِدُوا مَاءً فَتَيَمَّمُوا صَعِيدًا طَيِّبًا فَامْسَحُوا بِوُجُوهِكُمْ وَأَيْدِيكُمْ إِنَّ اللَّهَ كَانَ عَفُوًّا غَفُورًا
النساء: 43
"और अगर तुम बीमार हो या सफ़र में हो या तुम में से कोई शौच करके आए या औरतों से संभोग किया हो और तुम को पानी न मिल सके तो पाक मिट्टी से तयम्मुम कर लो, चुनाँचे (दोनों हाथ धरती पर मारकर) उससे अपने मुँह और अपने हाथों का मसह कर लो, निःसंदेह अल्लाह माफ़ करनेवाला, अत्यन्त क्षमाशील है।" (सूरतुन्निसा: 43)
क़ाज़ी इब्नुल अरबी “अहकामुल क़ुरआन” (1/560) में कहते हैं :
"बीमारी नाम है शरीर का संतुलन और आदत (सामान्य स्थिति) से जटिलता और असामान्यता (विसंगति) की ओर प्रस्थान करना; इसके दो प्रकार हैं : साधारण और गंभीर, और रोगी कभी उसके उपयोग से डरता है, और कभी वह ऐसे व्यक्ति को नहीं पाता जो उसे वह उठाकर दे सके जबकि वह स्वयं उसे लेने में असमर्थ होता है। और सामान्य (संदर्भहीन) शब्द का इस्तेमाल प्रत्येक रोगी के लिए तयम्मुम को जायज़ करार देता है अगर वह उसके उपयोग से डरता है और उसे पानी से हानि पहुँचती है।’’
फतवा जारी करने की स्थायी समिति से पूछा गया : "मैं बिस्तर पर पड़ा हुआ हूं और मैं हरकत करने की क्षमता नहीं रखता हूँ। तो मैं नमाज़ अदा करने के लिए पवित्रता की प्रक्रिया का निष्पादन कैसे करूं और मैं कैसे नमाज़ पढ़ूँॽ"
तो स्थायी समिति ने उत्तर दियाः
सर्व प्रथमः तहारत (वुज़ू) के संबंध में मुसलमान पर अनिवार्य है कि वह पानी से तहारत हासिल करे, यदि किसी बीमारी या किसी अन्य कारण से पानी इस्तेमाल करने में असमर्थ हो, तो वह पाक मिट्टी से तयम्मुम करे। यदि वह उसमें भी असमर्थ है तो तहारत की अनिवार्यता समाप्त हो जाएगी और वह अपनी यथास्थिति नमाज़ पढ़ेगा। अल्लाह तआला ने फरमायाः
فَاتَّقُوا اللَّهَ مَا اسْتَطَعْتُمْ
"जहाँ तक तुम से हो सके अल्लाह से डरते रहो।" (सूरतुत-तग़ाबुन: 16)
तथा अल्लाह तआला ने फरमाया:
وَمَا جَعَلَ عَلَيْكُمْ فِي الدِّينِ مِنْ حَرَجٍ
الحج : 78
“और उसने तुम्हारे ऊपर दीन के बारे में कोई तंगी नहीं डाली है।” (सूरतुल हज्ज: 78)
जहाँ तक मूत्र और मल से बाहर निकलने वाली चीज़ का संबंध है, तो उसमें पत्थरों या पवित्र रूमाल (टिशू पेपर, या नेपकिन) से इस्तिंजा (सफाई) करना पर्याप्त है, वह उनके द्वारा निकलने की जगह को तीन बार या उससे अधिक पोंछे यहाँ तक कि वह जगह साफ हो जाए।''
''फतावा स्थायी समिति'' (5/346) से उद्धरण समाप्त हुआ।
चौथा :
रोगी के लिए अशुद्धियों से युक्त डायपर में नमाज़ पढ़ना जायज़ नहीं है, और वह उसके बिना इस प्रकार काम चला सकता है कि वह अपने निकट एक बर्तन वगैरह रख ले जिसमें वह अपनी आवश्यकता पूरी करे, और इस्तिंजा (यानी पानी से सफाई) करे या इस्तिजमार (अर्थात पत्थर से साफ) करे, भले ही वह नैपकिन और इसी जैसी किसी चीज़ से हो।
परंतु अगर उसके लिए अधिक आसान डायपर इस्तेमाल करना हो, तो उसके लिए नमाज़ से पहले उसे निकालना और बदलना अनिवार्य है यदि वह अशुद्ध हो गया है, इसी तरह उसके लिए अशुद्धता से पवित्रता हासिल करना अनिवार्य है।
यदि वह मूत्र असंयम से पीड़ित है, तो उसके लिए अशुद्धता की जगह को धोना आवश्यक है, फिर वह किसी ऐसी चीज़ के द्वारा संरक्षण करे जो मूत्र के फौलाव को रोक दे, और अगर उससे कोई चीज़ बाहर निकली है तो नमाज़ का समय प्रवेश करने के बाद वुज़ू करे, उसके लिए हर नमाज़ के लिए जगह और पट्टी को पुनः धोने की जरूरत नहीं है, सिवाय इस स्थिति के यदि उसने संरक्षण में कोताही की है।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।