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हाल ही में एक नई प्रणाली सामने आई है, जो ऋण चुकाने में असमर्थ कैदियों के लिए धन एकत्र करने की सुविधा प्रदान करती है। क्या इस प्रणाली के माध्यम से दान करके ज़कात के पैसे का भुगतान करना जायज़ हैॽ
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
ऋण चुकाने में असमर्थ (दिवालिया) क़र्ज़दारों (देनदारों) को ज़कात का भुगतान करना जायज़ है, चाहे वे कैदी हों या दूसरे लोग हों। क्योंकि अल्लाह तआला का फरमान है :
إِنَّمَا الصَّدَقَاتُ لِلْفُقَرَاءِ وَالْمَسَاكِينِ وَالْعَامِلِينَ عَلَيْهَا وَالْمُؤَلَّفَةِ قُلُوبُهُمْ وَفِي الرِّقَابِ وَالْغَارِمِينَ وَفِي سَبِيلِ اللَّهِ وَاِبْنِ السَّبِيلِ فَرِيضَةً مِنْ اللَّهِ وَاللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ
التوبة : 60
"सदक़े (यानी ज़कात) तो मात्र फक़ीरों, मिसकीनों, उनकी वसूली के कार्य पर नियुक्त कर्मियों और उन लोगों के लिए हैं जिनके दिलों को आकृष्ट करना और परचाना अभीष्ट हो, तथा गर्दनों को छुड़ाने, क़र्ज़दारों के क़र्ज़ चुकाने, अल्लाह के मार्ग (जिहाद) में और (पथिक) मुसाफिर पर खर्च करने के लिए हैं। ये अल्लाह की ओर से निर्धारित किए हुए हैं, और अल्लाह तआला बड़ा जानकार, अत्यंत तत्वदर्शी (हिकमत वाला) है।" (सूरतुत्तौबा : 60)
ग़ारिम : उस क़र्ज़दार को कहते हैं जो क़र्ज़ चुकाने में असमर्थ हो, अर्थात उसके पास कोई चीज़ न हो जिससे वह अपने क़र्ज का भुगतान कर सके। तो ऐसी स्थिति में उसे ज़कात की राशि से इतना धन दिया जाएगा, जिसके द्वारा वह अपने क़र्ज का भुगतान कर सके, भले ही उसने हराम उद्देश्यों के लिए कर्ज लिया था, इस शर्त के साथ कि उसने तौबा कर लिया हो।
''शर्ह मुंतहल इरादात'' (1/457) में यह कहा गया है : ''(या) वह व्यक्ति जिसने (स्वयं अपने लिए) किसी (अनुमेय) चीज़ में क़र्ज़ लिया (या) किसी (हराम) चीज़ में अपने लिए क़र्ज़ लिया (और) उससे (तौबा कर लिया), (और) क़र्ज़ की वजह से (वह दिवालिया हो गया), [तो उसे ज़कात दी जा सकती है], क्योंकि अल्लाह तआला का फरमान है : "और क़र्ज़दारों के क़र्ज़ चुकाने लिए.." [सूरतुत-तौबा : 60]।'' उद्धरण समाप्त हुआ।
''फ़तावा अल-लजनह अद-दाईमह'' (9/445) में आया है : ''क्या ज़कात की कुछ राशि धर्मार्थ संस्थाओं को देना जायज़ है, जैसे कि जमइय्यतुल-बिर्र (अल-बिर्र संस्था) तथा व्यक्तिगत अधिकार के कैदियों की रिहाई (के लिए कार्यरत संस्था)ॽ
उत्तर : जहाँ तक चैरिटी फंड (कोष) का संबंध है : तो यदि यह ज्ञात हो कि उसके प्रभारी लोग ज़कात से मिलने वाली राशि को उसके शरई हक़दारों पर या उनमें से कुछ हक़दारों, जैसे कि फ़क़ीरों और मिसकीनों पर खर्च करते हैं। और वे ईमानदारी, भरोसा, धार्मिकता और धर्मनिष्ठा के उस स्तर पर हों जिससे उनके प्रति आश्वासन और उनके कार्यों के प्रति भरोसा प्राप्त होता है। तो उन्हें ज़कात की राशि देने में कोई हानि नहीं है; ताकि वे उसे उसके उन शरई हक़दारों पर खर्च करें जिन्हें वे जानते हैं।
जहाँ तक व्यक्तिगत अधिकार के क़ैदियों का संबंध है, तो अल्लाह ने ज़कात लेने के हक़दार लोगों का वर्णन अपने इस कथन में किया है :
إِنَّمَا الصَّدَقَاتُ لِلْفُقَرَاءِ وَالْمَسَاكِينِ وَالْعَامِلِينَ عَلَيْهَا وَالْمُؤَلَّفَةِ قُلُوبُهُمْ وَفِي الرِّقَابِ وَالْغَارِمِينَ وَفِي سَبِيلِ اللَّهِ وَاِبْنِ السَّبِيلِ
"सदक़े (यानी ज़कात) तो मात्र फक़ीरों, मिसकीनों, उनकी वसूली के कार्य पर नियुक्त कर्मियों और उन लोगों के लिए हैं जिनके दिलों को आकृष्ट करना और परचाना अभीष्ट हो, तथा गर्दनों को छुड़ाने, क़र्ज़दारों के क़र्ज़ चुकाने, अल्लाह के मार्ग (जिहाद) में और (पथिक) मुसाफिर पर खर्च करने के लिए हैं।" (सूरतुत्तौबा : 60) और ''क़र्ज़दारों'' का उल्लेख उन श्रेणियों में किया है, जो ज़कात प्राप्त करने के हकदार हैं।
क़र्ज़दारों के दो प्रकार हैं : एक प्रकार वह है जिसने मुसलमानों के बीच सुलह कराने की ज़िम्मेदारी उठाई और उसने किसी समूह के बीच घटित होने वाले फितने (उपद्रव) को समाप्त कर दिया। जिसके कारण उसे, उदाहरण के तौर पर, वित्तीय दायित्व उठाने पड़े। तो उसने मुसलमानों की ज़कात से इसे वापस लेने के इरादे से उनका भुगतान कर दिया। तो इस प्रकार के क़र्ज़दारों को ज़कात से इतना धन दिया जाएगा जिसकी उसने ज़िम्मेदारी उठाई थी, भले ही वह धनवान हो।
दूसरा प्रकार : वह है जिसने खुद को और अपनी स्थिति सुधारने के लिए किसी अनुमेय चीज़ में ऋण लिया है, जैसे कि वह व्यक्ति जो अपने स्वयं के खर्च तथा जिन पर वह खर्च करने के लिए बाध्य होता है उनके ख़र्च को पूरा करने के लिए पैसे उधार लेता है, या उस पर वित्तीय प्रतिबद्धताएं अनिवार्य हो जाती हैं, जो अन्याय या अतिक्रमण के कारण नहीं होती हैं। तो उसे ज़कात से इतनी राशि दी जा सकती है जिससे वह अपना कर्ज चुका सके।
और अल्लाह ही तौफीक़ प्रदान करने वाला है, तथा अल्लाह हमारे पैगंबर मुहम्मद और उनके परिवार और साथियों पर दया एवं शांति अवतरित करे।
शैक्षणिक अनुसंधान और इफ्ता की स्थायी समिति
अब्दुल्लाह इब्न मनीय (सदस्य), अब्दुल्लाह बिन ग़ुदैयान (सदस्य), अब्दुर-रज़्ज़ाक़ अफ़ीफ़ी (समिति के उपाध्यक्ष), इब्राहीम बिन मुहम्मद आल अश्-शैख (अध्यक्ष)।
और अल्लाह ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।