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मैं वह दुआ जानना चाहता हूँ जो हमें अज़ान से पहले, इक़ामत से पहले, अज़ान के बाद और इक़ामत के बाद पढ़नी चाहिये ।
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
1- जहाँ तक अज़ान से पहले दुआ के बारे में प्रश्न है तो -मेरे ज्ञान के अनुसार- अज़ान से पहले कोई दुआ नहीं है, और यदि उस समय को किसी विशेष या अविशेष कथन (दुआ) के साथ विशिष्ट कर लिया जाये तो वह एक घृणित बिदअत (नवाचार) है। किंतु यदि संयोग से और अचानक कोई दुआ ज़ुबान पर आ जाती है तो उसमें कोई आपत्ति की बात नहीं है।
2- जहाँ तक इक़ामत से पहले जिस समय कि मुअज़्ज़िन इक़ामत कहने का इरादा करता है, दुआ के बारे में का प्रश्न है तो इसमें भी हम कोई विशिष्ट कथन (दुआ) नहीं जानते हैं। अतः उस समय कोई विशिष्ट दुआ पढ़ना जबकि उसका कोई सबूत नहीं है एक घृणित बिदअत है।
3- जहाँ तक अज़ान और इक़ामत के बीच दुआ का प्रश्न है तो उस समय दुआ करना पसंदीदा (मुस्तहब) है और उसकी रूचि दिलायी गयी है। अनस रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित हे कि उन्हों ने कहा: अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: ‘‘अज़ान और इक़ामत के बीच दुआ रद्द (अस्वीकार) नहीं की जाती है। अतः तुम दुआ करो।’’ इस हदीस को तिर्मिज़ी (हदीस संख्या : 212),अबू दाऊद (हदीस संख्या : 437) और अहमद (हदीस संख्या : 12174) ने रिवायत किया है -और हदीस के ये शब्द अहमद की रिवायत के हैं- तथा अल्बानी ने सहीह अबू दाऊद (हदीस संख्या : 489) में इसे सहीह कहा है।
तथा अज़ान के तुरंत पश्चात दुआ के कई एक विशिष्ट शब्द हैं :
- उन्हीं में से एक यह है कि : जाबिर बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने कहा कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "जिस आदमी ने अज़ान सुनकर यह दुआ पढ़ी :
اللَّهُمَّ رَبَّ هَذِهِ الدَّعْوَةِ التَّامَّةِ وَالصَّلاةِ الْقَائِمَةِ آتِ مُحَمَّدًا الْوَسِيلَةَ وَالْفَضِيلَةَ وَابْعَثْهُ مَقَامًا مَحْمُودًا الَّذِي وَعَدْتَهُ
"अल्लाहुम्मा रब्बा हाज़ेहिद्दा'वतित्ताम्मह वस्सलातिल क़ाईमह आति मुहम्मद-निल वसीलता वल फज़ीलता वब्-अस्हु मक़ामन मह्मूदा अल्लज़ी व-अद्तह"
तो उसके लिए क़ियामत के दिन मेरी शफाअत (सिफारिश) पक्की होगयी।" इसे बुख़ारी (हदीस संख्या : 589)ने रिवायत किया है।
4- जहाँ तक इक़ामत के बाद दुआ का प्रश्न है तो हम इसका कोई प्रमाण नहीं जानते हैं, और यदि आदमी बिना किसी शुद्ध प्रमाण के दुआ को किसी चीज़ के साथ विशिष्ट कर लेता है तो वह बिदअत हो जायेगी।
5- जहाँ तक अज़ान के समय की दुआ का संबंध है तो आप के लिए सुन्नत का तरीक़ा यह है कि उसी तरह कहें जिस तरह मुअज्ज़िन कहता है, केवल उसके "हैय्या अलस्सलाह - हैय्या अलल फलाह़" कहने के समय आप "ला हौला वला क़ुव्वता इल्ला बिल्लाह" कहेंगे।
उमर बिन खत्ताब रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं : अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "जब मुअज़्ज़िन "अल्लाहु अक्बर, अल्लाहु अक्बर" कहे तो तुम में से कोई व्यक्ति "अल्लाहु अक्बर, अल्लाहु अक्बर" कहे। फिर जब वह "अश्हदो अन् ला-इलाहा इल्लल्लाह" कहे तो वह व्यक्ति भी "अश्हदो अन् ला-इलाहा इल्लल्लाह" कहे। फिर वह "अश्हदो अन्ना मुहम्मदन् रसूलुल्लाह" कहे तो वह व्यक्ति भी "अश्हदो अन्ना मुहम्मदन् रसूलुल्लाह" कहे। फिर वह "हैय्या अलस्सलाह" कह तो वह व्यक्ति "ला हौला वला क़ुव्वता इल्ला बिल्लाह" कहे। फिर वह "हैय्या अलल् फलाह़" कहे तो वह व्यक्ति "ला हौला वला क़ुव्वता इल्ला बिल्लाह" कहे। फिर वह "अल्लाहु अक्बर, अल्लाहु अक्बर" कहे तो वह व्यक्ति "अल्लाहु अक्बर, अल्लाहु अक्बर" कहे। फिर वह "ला-इलाहा इल्लल्लाह" कहे तो वह व्यक्ति भी "ला-इलाहा इल्लल्लाह"अपने दिल से कहे, तो वह स्वर्ग में प्रवेश करेगा।" इसे मुस्लिम (हदीस संख्या : 385)ने रिवायत किया है।
6- जहाँ तक इक़ामत के समय दुआ का संबंध है : तो कुछ विद्वानों ने उसे अज़ान समझते हुए उस पर अज़ान का सामान्य नियम लागु किया है, अतः इस आधार पर उन्हों ने उसी को दोहराना मुस्तहब समझा है। जबकि दूसरे विद्वानों ने उसे मुस्तहब नहीं समझा है ; क्योंकि इक़ामत के साथ उसको दोहराने के बारे में वर्णित हदीस ज़ईफ (कमज़ोर) है जिसका आगे उल्लेख किया जा रहा है। उन्हीं विद्वानों में शैख मुहम्मद बिन इब्राहीम (अल-फतावा 2/ 136)और शैख इब्ने उसैमीन अश्शर्हुल मुम्ते (2/ 84) में हैं। इसी प्रकार मुअज़्ज़िन के "क़द क़ामतिस्सलाह" कहते समय "अक़ा-महल्लाहु व अदामहा" कहना त्रुटि (गलत) है क्योंकि इसके बारे में वर्णित हदीस ज़ईफ है।
अबू उमामह या नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के कुछ सहाबा से वर्णित है कि : बिलाल रज़ियल्लाहु अन्हु ने इक़ामत कहना शुरू किया तो जब उन्हों ने "क़द-क़ामतिस्सलाह" कहा तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने "अक़ा-महल्लाहु व अदामहा" कहा और शेष इक़ामत के दौरान अज़ान के विषय में उमर रज़ियल्लाहु अन्हु की वर्णित हदीस के समान कहा।" इसे अबू दाऊद (हदीस संख्या : 528) ने रिवायत किया है। और इस हदीस को हाफिज़ इब्ने हजर ने "अत्तलखीस अलहबीर" (1/211) में ज़ईफ कहा है।