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उस व्यक्ति का क्या हुक्म है जो ला इलाहा इल्लल्लाह (अल्लाह के अलावा कोई सच्चा पूज्य नहीं) की गवाही देता है और नमाज़ स्थापित करता है, परंतु ज़कात नहीं देता है और उससे संतुष्ट नहीं है? अगर वह मर जाता है तो उसका इस्लाम में क्या हुक्म है, क्या उसका पर जनाज़ा (अंतिम संस्कार) की नमाज़ पढ़ी जाएगी या नहीं?
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
ज़कात इस्लाम के स्तंभों में से एक स्तंभ है। जिस व्यक्ति ने उसकी अनिवार्यता को नकारते हुए उसे छोड़ दिया, तो उसके लिए हुक्म को स्पष्ट किया जाएगा। अगर वह अपनी बात पर अटल रहता है तो वह काफिर है, उसपर जनाज़ा की नमाज़ नहीं पढ़ी जाएगी और न तो उसे मुसलमानों के क़ब्रिस्तान में दफन किया जाएगा। लेकिन अगर वह ज़कात का भुगतान कंजूसी की वजह से नहीं करता है, जबकि वह उसकी अनिवार्यता को मानता है, तो वह एक प्रमुख पाप का दोषी है और इसकी वजह से वह दुराचारी है। लेकिन वह काफिर नहीं है। इसलिए यदि वह मौके पर मर जाता है तो उसे ग़ुस्ल दिया जाएगा और उसपर जनाज़ा (अंतिम संस्कार) की नमाज़ पढ़ी जाएगी, और उसके मामले का फैसला क़ियामत के दिन किया जाएगा।