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मेरे पिता का 3 महीने पहले निधन हो गया, अल्लाह उनपर दया करे। मुझे उनकी बहुत याद आती है और मैं बहुत सारे उतार-चढ़ाव से ग्रस्त हूँ। कभी तो मुझे बहुत दुख होता है मानो कि वह अभी कल ही फौत हुए हों, और कभी तो मुझे जीवन में अरूचि का एहसास होता है, तथा कभी मैं शांत होती हूँ मुझे बिल्कुल किसी चीज़ का एहसास नहीं होता है... मैंने उचित मात्रा में शरई ज्ञान प्राप्त किया है तथा मैंने कई धार्मिक किताबें पढ़ी हैं और धार्मिक पाठों और व्याख्यानों में भाग लेती हूँ। मैं सब्र (धैर्य) का अर्थ और उसके प्रतिफल को जानती हूँ। मैं उनके लिए बहुत दुआएँ करती हूँ। अक्सर मैं अपने दिल में दोहराती रहती हूँ यहाँ तक कि सोने से पहले भी, कि ऐ मेरे रब! मैं तेरे फ़ैसले से संतुष्ट (राज़ी) हूँ और तू ही देने वाला और तू ही रोकने वाला है, और केवल तेरा ही आदेश चलता है। मेरे लिए क्षमा कर दे जो मैं जानती हूँ और जो मैं नहीं जानती। मैं अपने मामले के प्रति हैरत (भ्रम) का शिकार हूँ और मेरे दिमाग़ में यह बात आती है कि मैं मुनाफ़िक़ (पाखंडी) हूँ। यदि मैं धैर्यवान हूँ, तो मैं यह दर्द और गंभीर कष्ट कैसे महसूस करती हूँ... क्या मैं जो कुछ महसूस करती हूँ वह धैर्य की वास्तविकता के विरुद्ध है और यदि मैं ऐसी नहीं हूँ तो मैं संतुष्टि कैसे प्राप्त कर सकती हूँ .. .. मैंने अल्लाह के नाम “अस्सलाम” (हर दोष से पाक और हर कमी से मुक्त) का अर्थ पढ़ा है और मैंने इस नाम पर आधारित आयतों पर विचार किया और मैं इसके साथ अपने पिता के लिए दुआ करती हूँ, मैं कहती हूँ : “ऐ अल्लाह! तू सलाम (हर दोष से पाक और हर कमी से मुक्त) है, और तुझ ही से सलामती (सुरक्षा) है, ऐ महिमा और सम्मान वाले! तू बड़ी बरकत वाला और सर्वोच्च है। मैं तुझसे सवाल करती हूँ कि तू मेरे पिता को उनकी क़ब्र में सलामती प्रदान कर और उन्हें उस दिन सलामती प्रदान कर जब वह जीवित उठाए जाएँगे।” तो क्या मेरी यह दुआ सही हैॽ
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
इस सांसारिक जीवन में कोई भी ऐसा नहीं है जो अपने नफ़्स, अपने परिवार, अपने प्रियजनों, या अपने धन ... और अन्य चीजों के संबंध में उसकी विपत्तियों से सुरक्षित रहता हो।
मोमिन को चाहिए कि यदि उसे इनमें से कोई विपत्ति पहुँचे, तो वह धैर्य से काम ले और यदि वह संतोष के स्तर तक पहुँच जाता है, तो यह अधिक परिपूर्ण, बेहतर और अधिक पुण्य वाला है। धैर्य और संतोष के बीच अंतर का वर्णन प्रश्न संख्या : (219462) में किया जा चुका है।
आप कभी-कभी जो महसूस करती हैं वह धैर्य के प्रतिकूल नहीं है, जब तक कि वह मन के भीतर मात्र एक भावना होने से आगे नहीं जाता है और वह इस्लाम के विपरीत शब्दों या कार्यों में प्रकट नहीं होता है, जैसे कि रोना-पीटना और कपड़े फाड़ना आदि।
यह भावना (गहन शोक) किसी व्यक्ति को उसकी पसंद के बिना आती है, खासकर यदि वह व्यक्ति जिसे उसने खोया है, उसे बहुत प्रिय था, जैसा कि आपके मामले में है।
परंतु मुसलमान को चाहिए कि वह इन दुखों का पालन न करे और उनके साथ आगे न बढ़े (बल्कि उनसे दूर रहे), ताकि वे उसके जीवन और उसकी इबादत को प्रभावित न करें। इसलिए आप बहुत अधिक अकेले न बैठें। तथा इन चिंताओं और दुखों के बारे में मत सोचें, बल्कि अपने आपको हमेशा कुछ उपयोगी चीज़ों में व्यस्त रखे और इन दुखों के क़ैदी मत बनें, जिन्हें शैतान उत्तेजित करता रहता है, ताकि मुसलमान उदास और शोकाकुल होकर बैठ रहे। क्योंकि शैतान खुश होता है यदि वह मुसलमान को दुःख पहुँचाने में सक्षम हो जाता है। अल्लाह तआला ने फरमाया :
إِنَّمَا النَّجْوَى مِنَ الشَّيْطَانِ لِيَحْزُنَ الَّذِينَ آَمَنُوا وَلَيْسَ بِضَارِّهِمْ شَيْئًا إِلَّا بِإِذْنِ اللَّهِ وَعَلَى اللَّهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُونَ
المجادلة/10
“यह कानाफूसी तो मात्र शैतान की ओर से है, ताकि वह ईमान वालों को दुखी करे। हालाँकि वह अल्लाह की अनुमति के बिना उन्हें कुछ भी नुकसान नहीं पहुँचा सकता। और ईमान वालों को अल्लाह ही पर भरोसा रखना चाहिए।” (सूरतुल मुजादिलह : 10)
तथा आप, हमेशा यह सोचकर, संतोष (रज़ामंदी) के स्तर तक पहुँच सकती हैं कि यह कुछ ऐसा है जिसे अल्लाह ने लिख दिया है और उसका घटित होना अपरिहार्य (अनिवार्य) है। अतः दुःख उस विपत्ति को कभी दूर नहीं करेगा, बल्कि उसे बढ़ाएगा।
तथा आप हमेशा अल्लाह के पास संतोष के प्रतिफल के विषय में सोचें। “क्योंकि जो (अल्लाह के फैसले से) संतुष्ट (राज़ी) हो गया, उसके लिए (अल्लाह की) प्रसन्नता है।” और इससे बढ़कर कुछ नहीं कि अल्लाह अपने बंदे से प्रसन्न हो जाए।
आप अपने पिता के लिए जो दुआ करती हैं, वह एक अच्छी दुआ है। हम अल्लाह से प्रश्न करते हैं कि वह इसे क़बूल फरमाए, और आपको जो विपत्ति पहुँची है उसका आपको अच्छा बदला प्रदान करे।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।