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हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है।शैख मुहम्मद बिन उसैमीन रहिमहुल्लाह कहते हैं :
‘’नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रमाणित है कि आप अरफा के दिन (अरफा से पहले एक स्थान) नमिरह में ठहरे यहाँ तक कि सूरज ढल गया (जो कि ज़ुहर का प्रथम समय है)। फिर आप सवार हुए, फिर आप ने उ-रना घाटी के अंदर पड़ाव किया (जो कि नमिरह और अरफात के बीच एक घाटी है)। वहाँ आप ने एक अज़ान और दो इक़ामत के साथ ज़ुह्र और अस्र की नमाज़ दो-दो रकअत एकत्र कर ज़ुहर के समय में पढ़ी। फिर आप सवार होकर अपने ठहरने के स्थान पर आए और ठहर गए। और आप ने फरमाया: मैं यहाँ पर ठहरा हूँ और पूरा अरफा ठहरने की जगह है। फिर आप क़िबला की ओर मुँह किए हुए, अपने दोनों हाथों को उठाए हुए, अल्लाह का स्मरण करते हुए और उससे दुआ करते हुए निरंतर ठहरे रहे यहाँ तक कि सूरज डूब गया और उसकी टिकया गायब हो गई, तो आप मुज़दलिफा की ओर रवाना हुए।
अरफा में हाजियों से होनेवाली कुछ गलतियाँ इस प्रकार हैं :
प्रथम :
हाजी लोग आपके पास से गुज़रते हैं और आप उन्हें तल्बियह कहते हुए नहीं सुनते हैं। चुनाँचे वे मिना से अरफा जाते हुए ज़ोर आवाज़ से तल्बियह नहीं कहते हैं। जबकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रमाणित है कि आप ईद के दिन जमरतुल अक़बा को कंकरी मारने तक निरंतर तल्बियह कहते रहे।
द्वितीय:
तथा सबसे गंभीर गलतियों में से एक यह है कि कुछ हाजी लोग अरफा के बाहर पड़ाव करते हैं, और सूरज डूबने तक अपने स्थान पर बने रहते हैं। फिर वहीं से मुज़दलिफा की ओर रवाना हो जाते हैं। इन लोगों का जो इस तरह ठहरे हैं हज्ज नहीं है, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का कथन है: ‘’हज्ज अरफा में ठहरने का नाम है।‘’ इसे तिर्मिज़ी (हदीस संख्या: 889) ने रिवायत किया है और अल्बानी ने इर्वाउल-गलील (1064) में सहीह कहा है। अतः जो व्यक्ति अरफा में उस स्थान पर नहीं ठहरा जो उसी में से है, और उस समय में नही ठहरा जो उसमें ठहरने के लिए निर्धारित किया गया है, तो उसका हज्ज सही नहीं है, उस हदीस के आधार पर जिसकी ओर हम ने संकेत किया है, और यह एक गंभीर मामला है।
हालांकि अरफा की सीमाओं के लिए स्पष्ट संकेत लगा दिए गए हैं जो अति लापरवाह व्यक्ति पर ही गुप्त रह सकते हैं। प्रत्येक हाजी को चाहिए कि वह सीमाओं का निरीक्षण करे ताकि वह पता लगा सके कि वह अरफा के अंदर ठहरा है उसके बाहर नहीं।
क्या अच्छा होता अगर हज्ज का आयोजन करनेवाले कई भाषाओं में किसी ऐसे साधन से लोगों के लिए घोषणा करते जो सभी लोगों तक पहुँच सकता, तथा वे मुतव्विफीन (मुअल्लिम लोगों) को इस बारे में हाजियों को सचेत करने के लिए कहते, ताकि लोग अपने मामले के बारे में अवगत रहे और अपने हज्ज को ऐसे तरीक़ा पर अदा करें जिससे उनकी ज़िम्मेदारी मुक्त हो जाए।
तीसरी :
जब कुछ लोग दिन के अंत में दुआ करने में व्यस्त होते हैं, तो आप उन्हें उस पहाड़ी की ओर मुँह किए हुए पायेंगे जिसके पास अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ठहरे थे जबकि क़िबला उनकी पीठों के पीछे या उनके दाहिने या उनके बाएं होता है, यह भी एक अज्ञानता और गलती है ; क्योंकि अरफा के दिन दुआ करने में धर्मसंगत यह है कि इन्सान क़िबला की ओर मुँह किए हुए हो, चाहे पहाड़ी उसके सामने हो या उसके पीछे या उसके दाहिने हो या उसके बाएं। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने पहाड़ी को अपने सामने इसलिए किया था ; क्योंकि आप पहाड़ी के पीछे ठहरे हुए थे। तो इस तरह आप क़िबला की ओर मुँह किए हुए थे, और जब पहाड़ी उसके और क़िबला के बीच होगी तो आवश्यक रूप से वह क़िबला की ओर मुँह करने वाला होगा।
चौथी:
कुछ लोगों का भ्रम यह है कि इन्सान के लिए पहाड़ी के पास नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ठहरने की जगह जाना ज़रूरी है ताकि वह वहाँ ठहरे। चुनाँचे आप उन्हें पायेंगे कि वे कष्ट और कठिनाइयाँ झेलते यहाँ तक कि उस स्थान पर पहुँचते हैं, और शायद वे लोग पैदल चलनेवाले होते हैं और रास्ते से अनभिज्ञ होते हैं। तो जब खाना पानी नहीं पाते हैं तो भूखे और प्यासे रहते हैं, और ज़मीन में भटकते फिरते हैं, और इस गलत सोच की वजह से उन्हें गंभीर नुकसान का सामना करना पड़ता है। हालांकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया है: ‘’मैं यहाँ ठहरा हूँ और पूरा अरफा ठहरने की जगह है।‘’
मानो कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम यह संकेत दे रहे हैं कि : इन्सान को चाहिए कि वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ठहरने की जगह पर ठहरने के लिए कष्ट न करे, बल्कि उसके लिए जो आसान हो वही करे, क्योंकि पूरा अरफा ठहरने की जगह है।
पाँचवी :
कुछ लोग यह गुमान करते हैं कि अरफा में पाए जाने वाले पेड़ मिना और मुज़दलिफा में पाए जानेवाले पेड़ों के समान हैं, अर्थात: आदमी के लिए उनसे कोई पत्ती या शाखा या इस तरह की चीज़ काटना जायज़ नहीं है; क्योंकि वे लोग यह गुमान करते हैं कि पेड़ काटने का शिकार के समान एहराम से संबंध है, हालांकि यह एक गलत धारणा है, क्योंकि पेड़ काटने का एहराम से कोई संबंध नहीं है, बल्कि उसका संबंध स्थान से है, अतः जो पेड़ हरम की सीमाओं के भीतर हैं, वे सम्मानजनक हैं, उनसे पत्तियाँ या टहनियाँ नहीं काटी जायेंगी। तथा जो हरम की सीमाओं के बाहर है उसे काटने में कोई आपत्ति की बात नहीं है भले ही आदमी एहराम की हालत में हो। इस आधार पर अरफा के अंदर पेड़ों को काटने में कोई हर्ज नहीं है ..., (जहाँ तक उन पेड़ों का संबंध है जिन्हें लोगों ने लगाया है तो वे हरम की वजह से पेड़ों को काटने के निषेध के दायरे में नहीं आते हैं, प्रंतु एक अन्य कारण से उनका काटना हराम (निषिद्ध) हो सकता है और वह उन्हें लगानेवाले के अधिकार पर, तथा हाजियों के अधिकारों पर भी हमला करना है यदि वे इस कारण लगाए गए हैं कि माहौल सुखद हो जाए और लोग सूरज की गर्मी (धूप) से छाया प्राप्त करें।
इस आधार पर अरफा में लगाए गए पेड़ों को काटना जायज़ नहीं है, लेकिन हरम की वजह से नहीं बल्कि इस कारण कि उनका काटना सामान्य मुसलमानों के अधिकार पर आक्रमण (हमला) है।)
छठी:
कुछ हाजियों का यह मानना है कि जिस पहाड़ी के पास नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ठहरे थे उसकी एक विशेष पवित्रता है, इसीलिए वे उसके पास जाते हैं, उसके ऊपर चढ़ते हैं, उसके पत्थरों और उसकी मिट्टी से बर्कत (आशीर्वाद) लेते हैं, उसके पेड़ों पर कपड़ों के टुकड़े (लत्ते) लटकाते हैं और इसके अलावा अन्य चीज़ें करते हैं जो सर्वज्ञात हैं। हालांकि ये चीज़ें बिदअतों (नवाचारों) में से हैं। क्योंकि पहाड़ी पर चढ़ना तथा उस पर नमाज़ पढ़ना, या उसके पेड़ों पर कपड़ों के टुकड़े लटकाना धर्मसंगत नहीं है ; क्योंकि ये सभी चीज़ें नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से वर्णित नहीं हैं, बल्कि इसके अंदर मूर्ति पूजा की कुछ गंध पाई जाती है। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अनेकेश्वरवादियों के एक पेड़ से गुज़रे जिस पर वे अपने हथियार लटकाया करते थे। तो आपके साथ उपस्थित लोगों ने कहा : ऐ अल्लाह के पैगंबर! हमारे लिए एक ज़ात अनवात बना दीजिए (निर्धारित कर दीजिए) जिस तरह कि इन लोगों का एक ज़ात अनवात है। तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : अल्लाहु अक्बर (अल्लाह सबसे बड़ा है), यही तरीक़े हैं, तुम अवश्य ही उन लोगों के रास्तों पर चलोग गे जो तुमसे पहले थे, तुमने - उस अस्तित्व की क़सम जिसके हाथ में मेरी जान है - वैसी ही बात कही है जिस तरह कि बनी इस्राइल ने मूसा अलैहिस्सलाम से कही थी कि: हमारे लिए एक पूज्य निर्धारित कर दीजिए जिस तरह कि इन लोगों के लिए एक पूज्य है।‘’ इसे तिर्मिज़ी (हदीस संख्या: 2180) ने रिवायत किया है और अल्बानी ने इब्ने अबी आसिम की ‘सहीह अस्सुन्नह’ में हसन कहा है।
वास्तव में इस पहाड़ी की कोई पवित्रता (प्रतिष्ठा) नहीं है, बल्कि वह अरफा में मौजूद अन्य टीलों के समान और मैदानों की तरह है। किंतु अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम वहाँ ठहरे थे, अतः धर्मसंगत है कि इन्सान पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ठहरने के स्थान पर ठहरे यदि उसके लिए ऐसा करना आसान है, अन्यथा ऐसा करना अनिवार्य नहीं है, और इन्सान के लिए उचित नहीं है कि वह उसके पास जाने का कष्ट करे, उपर्युक्त बातों के आधार पर।
सातवीं :
कुछ लोग यह गुमान करते हैं कि आदमी के लिए ज़ुह्र और अस्र की नमाज़ इमाम के साथ मस्जिद में पढ़ना अनिवार्य है। इसीलिए आप उन्हें पाएंगे कि वे दूर के स्थानों से उस जगह जाते हैं ताकि वे इमाम के साथ मस्जिद में रहें, जिसके कारण उन्हें ऐसे कष्ट, कठिनाई, और भटकाव का सामना करना पड़ता है जो उनके लिए हज्ज को तंगी और कठिनाई का कारण बना देता है, वे एक दूसरे के लिए तंगी और कष्ट का कारण बनते है और एक दूसरे को तकलीफ पहुँचाते हैं। जबकि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अरफा में ठहरने के बारे में फरमाते हैं: ‘’मैं यहाँ ठहरा हूँ और पूरा अरफा ठहरने की जगह है।‘’
तथा आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : ‘’मेरे लिए पृथ्वी को सज्दा करने का स्थान और पवित्र बना दिया गया है।‘’ अतः अगर आदमी अपने तंबू में ऐसी नमाज़ पढ़ता है जिसमें वह किसी को कष्ट पहुँचाए या स्वयं अपने ऊपर कष्ट उठाए बिना इतमिनान के साथ, तथा बिना किसी ऐसी कठिनाई के नमाज़ पढ़े जो हज्ज को कष्टदायक चीज़ों से जोड़ दे, तो यह सबसे अच्छा और अति उत्तम है।
आठवीं :
कुछ हाजी लोग सूरज डूबने से पहले ही अरफा से बाहर निकल जाते हैं और वहाँ से मुज़दलिफा की ओर रवाना हो जाते हैं, यह एक बड़ी गलती है। तथा इसमें उन मुशरिकों (अनेकेश्वरवादियों) की समानता पाई जाती है जो सूरज डूबने से पहले ही अरफा से रवाना हो जाते थे, तथा इसमें पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का विरोध भी पाया जाता है जो अरफा से उस समय तक रवाना नहीं हुए जब तक सूरज डूब नहीं गया और थोड़ा पीलापन खत्म नहीं हो गया, जैसाकि जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस में आया है।
इस आधार पर, आदमी के ऊपर अनिवार्य है कि वह अरफा में उसकी सीमाओं के भीतर बना रहे यहाँ तक कि सूरज डूब न जाए ; क्योंकि अरफा में ठहरने का समय सूरज डूबने के साथ निर्धारित है। तो जिस तरह कि रोज़ेदार के लिए सूरज डूबने से पहले रोज़ा इफ्तार करना जायज़ नहीं है, उसी तरह अरफा में ठहरनेवाले के लिए सूरज डूबने से पहल उससे प्रस्थान करना भी जायज़ नहीं है।
नौवीं :
बिना किसी लाभ के समय नष्ट करना, चुनाँचे आप लोगों को दिन की शुरूआत से उसके अंत तक बात चीत (गपशप) करते हुए पाएंगे, हो सकता है उनकी बातचीत चुगली और लोगों के सतीत्व के बारे में आक्षेप से मुक्त और निर्दोष हो, और हो सकता है कि उससे पवित्र न हो, क्योंकि वे लोगों के सतीत्व (मान मर्यादा) के बारे में बात करते हैं और उनके मांस खाते हैं। यदि दूसरी ही बात है तो वे दो निषिद्ध (हराम) कार्यो में पड़े हैं :
एक : लोगों के मांस खाना और उनकी गीबत (पिशुनता) करना। और यह एक खराबी और दोष है यहाँ तक कि एहराम में भी (खराबी का कारण है), क्योंकि अल्लाह तआला का कथन है :
]فَمَن فَرَضَ فِيهِنَّ الْحَجَّ فَلاَ رَفَثَ وَلاَ فُسُوقَ وَلاَ جِدَالَ فِي الْحَجِّ [ [سورة البقرة:197]
‘’अतः जिसने इन महीनों में हज्ज को फर्ज़ कर लिया, तो हज्ज में कामुकता की बातें, फिस्क़ व फुजूर (अवहेलना) और लड़ाई-झगड़ा नहीं है।‘’ (सूरतुल बक़रा :197)
दूसरा : समय बर्बाद करना
यदि बात चीत निर्दोष है किसी हराम चीज़ पर आधारित नहीं है तो उसमें समय की बर्बादी तो है ही। लेकिन इसमें कोई हानि की बात नहीं है कि आदमी सूरज ढलने से पहले अपने समय को निर्दोष बातचीत में व्यस्त रखे। परंतु सूरज ढलने और ज़ुह्र और अस्र की नमाज़ के बाद सर्वोचित यह है कि वह दुआ, ज़िक्र, क़ुरआन के पाठ में व्यस्त रहे, इसी तरह अपने भाइयों के साथ लाभप्रद बातचीत करना जब वह ज़िक्र और दुआ से ऊब जाए। चुनाँचे उनसे शरई ज्ञान आदि के बारे में लाभदायक बात करे जिससे उन्हें खुशी प्राप्त हो, और उनके लिए अल्लाह सर्वशक्तिमान की दया व करूणा के लिए आशा और उम्मीद का द्वार खोल दे। लेकिन उसे दिन की अंतिम घड़ियों में अवसर का भरपूर लाभ उठाना चाहिए, चुनाँचे वह दुआ करने में व्यस्त हो जाए और अल्लाह से विलाप करते और गिड़गिड़ाते हुए, उसकी अनुकंपा की लालसा और उसकी दया की आशा रखते हुए उसकी ओर आकृष्ट हो जाए, दुआ करने में आग्रह करे, तथा क़ुरआन करीम में और सहीह हदीसों मे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से वर्णित दुआयें अधिक से अधिक करे। क्योंकि ये सबसे अच्छी दुआयें हैं, और इस घड़ी में दुआ करना क़बूल किए जाने के अधिक योग्य है।‘’