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मैं एक ग़ैर क़ादियानी व्यक्ति हूँ, और मैं जानता हूँ कि क़ादियानी लोग मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के बाद एक नबी (ईश्दूत) के अस्तित्व पर विश्वास रखते हैं, प्रश्न यह है कि क्या वे लोग इस्लाम से बाहर (निष्कासित) हैं ? मेरा मानना है कि वे लोग इस्लाम से निष्कासित हैं, और इसी आधार पर मैं उन के साथ व्यवहार करता हूँ।
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
परिचय :
क़ादियानियत एक आंदोलन है जो भारतीय उपमहाद्वीप में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा एक साज़िश के रूप में 1900 ई0 में शुरू हुआ, जिस का उद्देश्य मुसलमानों को उन के धर्म से, विशेष रूप से जिहाद के दायित्व से दूर करना था, ताकि वे (मुसलमान) लोग उपनिवेशवाद का इस्लाम के नाम पर विरोध न कर सकें। इस आंदोलन का मुखपत्र "अल-अद्यान" नामी पत्रिका है जो अग्रेज़ी भाषा में प्रकाशित होती है।
संस्थापना और प्रमुख व्यक्तित्व :
- मिर्ज़ागुलाम अहमद क़ादियानी (1839-1908 ई0)क़ादियानियत की स्थापना का मुख्य उपकरण था। वह 1839 ई0 में भारत में पंजाब के एक गाँव क़ादियान में पैदा हुआ, उस का संबंध एक ऐसे परिवार से था जो धर्म और देश के साथ धोखा और गद्दारी के लिये जाना जाता था, इस प्रकार ग़ुलाम अहमद उपनिवेशवादियों का वफादार और प्रत्येक मामले में उनके आज्ञाकारी के रूप में पला बढ़ा,चुनाँचि उसे तथाकथित ईश्दूत (नबी) की भूमिका के लिये चयन किया गया ताकि मुसलमान उस के आसपास इकट्ठा हो जायें और ब्रिटिश उपनिवेशवादियों से छेड़-छाड़ करने से विचलित हो जायें। ब्रिटिश सरकार का उनके ऊपर बहुत एहसान था,इसलिए उन्हों ने भी उसके साथ वफादारी का प्रदर्शन किया। गुलाम अहमद अपने अनुयायियों के बीच अस्थिर मिज़ाज़,बहुत सारी बीमारियों और मादक पदार्थों के लत से कुख्यात था।
जिन लोगों ने उसका और उसकी दुष्ट दावत (निमन्त्रण) का सामना किया, उनमें अखिल भारतीय जमीअत अह्ले हदीस के अमीर शैख अबुल वफा सनाउल्लाह अमृतसरी हैं जिन्हों ने उस से बहस किया और उसके तर्क का खण्डन किया,और उसके बुरे उद्देश्यों,उसके कुफ्र और उसके मत के विचलन और दुष्टता का खुलासा किया। जब गुलाम अहमद अपने होश में वापस नहीं आया तो शैख अबुल वफा ने उस से इस बात पर मुबाहला किया कि उन दोनों में से झूठा आदमी सच्चे आदमी के जीवन में मर जाये, और अभी थोड़े ही दिन नहीं बीते थे कि मिर्ज़ागुलाम अहमद क़ादियानी 1908 ई0 में मर गया और उस ने पचास पुस्तकें,पर्चे और लेख छोड़े,जिन में सब से महत्वपूर्ण : इज़ालतुल औहाम (भ्रमों का निवारण),ऐजाज़े अहमदी (अहमदी चमत्कार),बराहीन अहमदिय्या (अहमदी सबूत),अनवारुल इस्लाम (इस्लाम की रोशनी),ऐजाज़ुल मसीह (मसीहा के चमत्कार),अत्तब्लीग़, और तजल्लियाते इलाहिय्या हैं।
- नूरुद्दीन : क़ादियानियत का पहला खलीफा (उत्तराधिकारी), ब्रिटिश ने उसके सिर पर खिलाफत का ताज रखा तो श्रद्वालुओं ने उसकी पैरवी की। उसकी पुस्तकों में से एक फस्लुल खिताब है।
- मुहम्मद अली और खोजा कमालुद्दीन : ये दोनों लाहौरी क़ादियानियत के अमीर हैं, और यही दोनों क़ादियानियत के नियम निर्माण कर्ता हैं, उन में से प्रथम (मुहम्मद अली) ने क़ुर्आन करीम का अंग्रेज़ी में विकृत अनुवाद किया और उसकी पुस्तकों में से : हक़ीक़तुल इख्तिलाफ (मतभेद की वास्तविकता), अन्नुबुव्वतो फिल इस्लाम (इस्लाम में ईश्दूतत्व) और अद्दीनुल इस्लामी (इस्लामी धर्म) है। खोजा कमालुद्दीन की किताब "ईश्दूतों में सर्वोच्च आदर्श" तथा अन्य पुस्तकें हैं। अहमदियों का यह लाहौरी समूह गुलाम अहमद मिर्ज़ाको मात्र एक मुजद्दिद (नवीकरण कर्ता) समझता है,किन्तु वे दोनों एक ही आंदोलन समझे जाते हैं जो एक दूसरे की कमी के पूरक हैं।
- मुहम्मद अली : लाहौरी क़ादियानियों का अमीर, वह क़ादियानियों का सिद्वान्ता,उपनिवेशवाद का जासूस और क़ादियानियत के प्रवक्ता पत्रिका का निरीक्षक था,उसनेक़ुरआन करीम का अंग्रेज़ी में विकृत अनुवाद प्रस्तुत किया। उसकी पुस्तकों में से हक़ीक़तुल इख्तिलाफ (मतभेदों की वास्तविकता), अन्नुबुव्वतो फिल इस्लाम (इस्लाम में ईश्दूतत्व) हैं,जैसा कि पीछे बीत चुका।
- मुहम्मद सादिक़ : क़ादियानियों का मुफ्ती,इसकी पुस्तकों में : खातमुन्नबीईन (ईश्दूतों की मुहर) है।
- बशीर अहमद बिन अल-गुलाम : इसकी पुस्तकों में से सीरतुल मह्दी (महदी की जीवनी) और कलिमतुल फस्ल (निर्णायक शब्द) है।
- महमूद अहमद बिन अल-गुलाम और उसका द्वितीय खलीफा (उत्तराधिकारी) : उसकी पुस्तकों में से अनवारुल खिलाफा,तोहफतुल मम्लूक और हक़ीक़तुन्नुबुव्वह है।
- क़ादियानी ज़फरूल्लाह खान की पाकिस्तान के प्रथम विदेश मंत्री के रूप में नियुक्ति का इस पथ-भ्रष्ट संप्रदाय के समर्थन में एक प्रमुख प्रभाव था क्योंकि उस ने इस संप्रदाय को पंजाब प्रांत में एक बड़ा छेत्र दे दिया ताकि वह इस संप्रदाय का वैश्विक मुख्यालय बन जाये और उन्हों ने क़ुर्आन करीम की आयत : "और हम ने उन दोनों को एक उच्च भूमि (रब्वा),स्थिरता एंव आराम वाली और बहते पानी वाली जगह में पनाह दी।" (सूरतुल मूमिनून : 50) से उपमा लेते हुए उसका नाम "रब्वा" रखा।
उनके विचार और विश्वास :
- गुलाम अहमद ने एक इस्लामी उपदेशक के रूप में अपनी गतिविधियों को शुरू किया यहाँ तक कि उस के आसपास उसके अनुयायी इकट्ठा हो गये, फिर उस ने मुजद्दिद और अल्लाह की ओर से प्रेरित होने का दावा किया,फिर उसने एक कदम और बढ़ाया और प्रतीक्षित महदी और मसीह मौऊद (वादा किये गये मसीहा) होने का दावा किया,फिर उस ने नबी होने का दावा किया और यह गुमान किया कि उसकी नुबुव्वत (ईश्दूतत्व) हमारे सरदार मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ईश्दूतत्व से सर्वोच्च और श्रेष्ठ है।
- क़ादियानियों का मानना है कि अल्लाह तआला रोज़ा रखता,नमाज़ पढ़ता, सोता,जागता, लिखता,गलती करता और संभोग करता है -अल्लाह तआला इनकी बातों से बहुत महान और सर्वोच्च है-।
- क़ादियानी यह विश्वास रखता है कि उस का पूज्य (भगवान) अंग्रेज़ है क्योंकि वह उस से अंग्रेज़ी में बात करता है।
-क़ादियानियत का विश्वास है कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर नुबुव्वत की समाप्ति नहीं हुई बल्कि यह जारी है,और अल्लाह तआला आवश्यकता के अनुसार सन्देष्टा को भेजता रहता है,और गुलाम अहमद समस्त ईश्दूतों में सब से श्रेष्ठ है।
- वे विश्वास रखते हैं कि जिब्रील अलैहिस्सलाम गुलाम अहमद पर उतरते थे,और यह कि उस पर वह्य (प्रकाशना) आती थी,और उसके इलहामात क़ुरआन के समान हैं।
- वे कहते हैं कि जो क़ुर्आन मसीह मौऊद (गुलाम) ने प्रस्तुत किया है उस के अलावा कोई क़ुरआन नहीं है, और कोई हदीस नहीं सिवाय उसके जो उसकी शिक्षाआके की रोशनी में है,और जो भी नबी है वह गुलाम अहमद के नेतृत्व में है।
- वे मानते हैं कि उनकी पुस्तक (आसमान से) अवतिरत है और उसका नाम "अल-किताबुल मुबीन" है, और वह क़ुरआन करीम के अतिरिक्त है।
- उनका मानना है कि वे एक नये और स्वतंत्र धर्म और एक स्वतंत्र शरीअत (धर्म-शास्त्र)के अनुयायी हैं, और यह कि गुलाम अहमद के साथी सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम की तरह हैं।
- वे मानते हैं कि "क़ादियान" नगर, मदीना मुनव्वरा और मक्कह मुकर्रमा के समान है,बल्कि उन दोनों से श्रेष्ठ है और उसकी धरती "हरम" है और वही उनकाक़िब्ला है और उसी की तरफ उनका हज्ज है।
- उन्हों हज्ज के दायित्व को समाप्त करने की आवाज़ उठाई, जिस तरह कि उन्हों ने अंग्रेज सरकार की अंधी आज्ञाकारिकता की मांग की क्योंकि उनके भ्रम में वह क़ुर्आन की आयत के अनुसार वलीयुल अम्र (मुसलमानों का शासक और सरपरस्त) है।
- उनके निकट हर मुसलमान काफिर है यहाँ तक कि वह क़ादियानियत में प्रवेश कर ले, तथा जिस ने गैर क़ादियानी से शादी-विवाह किया तो वह काफिर है।
- वे शराब,अफीम,नशीले और मादक पदार्थ को वैध ठहराते हैं।
बौद्धिक और वैचारिक जड़ें :
- सर सैयद अहमद खान की पश्चिमीकरण आंदोलन ने कादियानियत के उदय के लिए रास्ता प्रशस्त किया क्योंकि उस ने दुष्ट (भटकाऊ) विचार फैलाये थे।
-- ब्रिटिश ने इस परिस्थिति का लाभ उठाते हुये क़ादियानी आंदोलन शुरू कर दिया और उस के लिए उपनिवेशवादियों की सेवा में डूबी हुई परिवार से एक आदमी को चुना।
- 1953 ई0 में एक जन क्रांति शुरू हुई जिस ने उस समय के विदेश मंत्री ज़फरूल्लाह खान को हटाने और क़ादियानी संप्रदाय को एक गैर मुस्लिम अल्पसंख्यक समझने की मांग की, इस क्रांति में लगभग दस हज़ार मुसलमान शहीद हुए और वे क़दियानी मंत्री को पद से हटाने में सफल रहे।
- रबीउल-अव्वल 1394 हिज्री (अप्रेल 1974)में मक्का मुकर्रमा (सऊदी अरब) में मुस्लि विश्व लीग ने एक बड़ा सम्मेलन आयोजित किया जिस में दुनिया भर के मुस्लिम संगठनों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया, और इस सम्मेलन ने इस संप्रदाय के काफिर और इस्लाम से बाहर (निष्कासित) होने की घोषणा की,और मुसलमानों से इस खतरे का मुक़ाबला (प्रतिरोध) करने और क़ादियानियों के साथ सहयोग न करने और उनके मृतकों को मुसलमानों के क़ब्रिस्तानों में न दफनाने देने का आग्रह किया।
- पाकिस्तान में क़ौमी कौंसिल (केन्द्रीय संसद) ने इस संप्रदाय के नेता मिर्ज़ानासिर अहमद से बहस किया और मुफ्ती महमूद रहिमहुल्लाह के द्वारा उसका खण्डन किया गया। यह बहस लगभग तीस घंटे जारी रही जिस में नासिर अहमद उत्तर देने में असमर्थ रहा और इस समुदाय का कुफ्र उजागर हो गया, तो मजलिस (कौंसिल) ने एक बयान जारी किया कि क़ादियानियत को एक गैर मुस्लिम अल्पसंख्यक माना जाना चाहिये।
मिज़ाZ गुलाम अहमद क़ादियानी के काफिर होने के कारण निम्नलिखित हैं :
- उसका नबी (ईश्दूत) होने का दावा करना।
- उस ने उपनिवेशवादियों के हितों की सेवा के लिए जिहाद के कर्तव्य को स्थगित करार दिया।
- मक्का की ओर हज्ज को निरस्त करके उसे क़ादियान की ओर प्रतिस्थापन कर देना।
- अल्लाह तआला को मनुष्य के समान ठहराना।
- आत्मा के आवागमन और अल्लाह तआला के अपनी सृष्टि में अवतरित होने का विश्वास रखना।
- अल्लाह तआला की ओर बेटे की निस्बत करना और उस का अल्लाह तआला का बेटा होने का दावा करना।
- मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर ईश्दूतत्व (नुबुव्वत) के समाप्त होने का इंकार करना और हर एक के लिए इस का द्वार खोलना।
- क़ादियानियत के इसराइल के साथ घनिष्ठ संबंध हैं,और इसराइल ने उनके लिए केन्द्र और मदरसे (स्कूल) खोले हैं, और उन्हें अपना एक मुखपत्र पत्रिका निकालने और दुनिया भर में वितरण करने के लिए पुस्तकें प्रकाशित करने का सक्षम बनाया है।
- उनका यहूदियों,ईसाईयों और बातिनी आंदोलनों से प्रभावित होना उनके विश्वासों और व्यवहारों में स्पष्ट है, हालांकि वे देखने में इस्लाम का दावा करते हैं।
उनके प्रसार और प्रभाव की स्थिति :
- अधिकांश क़ादियानी इस समय भारत और पाकिस्तान में रहते हैं और उन में से कुछ इसराइल और अरब देशों में हैं, और वे उपनिवेशवादियों की मदद से जिस देश में भी रहते हैं वहाँ संवेदनशील स्थानों की प्राप्ति के लिए कोशिश करते हैं।
- क़ादियानी लोग अफ्रीका और कुछ पश्चिमी देशों में बहुत सक्रिय हैं, केवल अफ्रीक़ा में उनके 5000 से अधिक धर्म उपदेशक हैं जो लोगों को क़ादियानियत की ओर बुलाने के लिए विशिष्ट हैं,उनकी व्यापक गतिविधि इस बात को सुनिश्चित करती है कि उन्हें उपनिवेशवादियों का समर्थन प्राप्त है।
- ब्रिटिश सरकार भी इस सिद्वांत का समर्थन करती है और उसके अनुयायियों के लिए विश्व के सरकारी छेत्रों जैसे कंपनियों के प्रशासनों और आयोगों में नियुक्ति को आसान बनाती है,और उन में से कुछ को अपनी गुप्त सेवाओं में उच्च रैंकिंग के अधिकारी बनाती है।
- क़ादियानी लोग सभी साधनों के द्वारा लोगों को अपने विश्वासों की ओर बुलाने में सक्रिय हैं, विशेष रूप से शिक्षा के माध्यम से,क्योंकि वे लोग शिक्षित हैं और उनके यहाँ बहुत से विद्वान,इंजीनियर और डॉक्टर हैं। तथा ब्रिटेन में एक इस्लामी टी वी के नाम से एक उपग्रह टीवी चैनल है जो क़ादियानियों द्वारा संचालित है।
ऊपर उल्लिखित बातों से स्पष्ट हो जाता है कि :
क़ादियानियत एक गुम्राह (पथभ्रष्ट) समूह है जिसका इस्लाम से कोई संबंध नहीं है,और उसका विश्वास हर चीज़ में इस्लाम के विरूध (मुखालिफ) है, अब जबकि इस्लाम के विद्वानों ने उनके काफिर होने का फत्वा जारी कर दिया है,मुसलमानों को उनकी गतिविधियों से सावधान रहना चाहिए।
अधिक जानकारी के लिए देखिये : एहसान इलाही ज़हीर की पुस्तक "क़ादियानियत"।
संदर्भ : "अल-मौसूआ़ अल-मुयस्सरा फिल-अद्यानवल मज़ाहिब वल-अह़जाब अल-मुआसिरा" लेखक : डा0 मानि बिन हम्माद अल जोहनी 1/419- 523)
तथा इस्लामी फिक़्ह (धर्मशास्त्र) अकादमी के प्रस्तावों में निम्नलिखित बातें उल्लेख की गई हैं :
दक्षिणी अफ्रीक़ा के केप टाउन नगर में स्थित इस्लामी फिक़्ह परिषद की तरफ से क़ादियानियत और उस से निकलने वाले समूह लाहौरी के विषय में हुक्म से संबंधित प्रश्न पर चर्चा करने के बादकि क्या उन्हें मुसलमानों में से गिना जायेगा या नहीं, और क्या एक गैर मुस्लिम को इस प्रकार के मुद्दे में जांच करने का अधिकार है, तथा परिषद के सदस्यों के सामने मिर्ज़ागुलाम अहमद क़ादियानी जो कि फिछली सदी में भारत में उभरा था और उसी की तरफ क़ादियानी धर्म और लाहौरी समूह संबंधित है, के विषय में जो दस्तावेज़ और अनुसंधान प्रस्तुत किये गये हैं उनकी रोशनी में, और इन दोनों समूहों के बारे में उल्लिखित जानकारियों में विचार करने के बाद, और इस बात को सुनिश्चित कर लेने के बाद कि मिर्ज़ागुलाम अहमद ने इस बात का दावा किया था कि वह एक भेजा हुआ नबी है जिस की तरफ वह्य उतरती है, और यह बात उसकी पुस्तकों में प्रमाणित है जिन में से कुछ के बारे में उस ने यह दावा किया है वह वह्य है जो उस पर उतरी है, और वह आजीवन इसी मत का प्रचार करता रहा है और अपनी किताबों और कथनों के द्वारा लोगों से अपनी नुबुव्वत व रिसालत (ईश्दूतत्व) पर विश्वास रखने का आग्रह करता रहा है, इसी तरह उस से बहुत सारी ऐसी बातों का इंकार भी साबित है जिनका इस्लाम धर्म से होना आवश्यक रूप से ज्ञात है, जैसे कि जिहाद।
परिषद ने यह फैसला किया है :
सर्वप्रथम : मिर्ज़ागुलाम अहमद ने नुबुव्वत व रिसालत (ईश्दूतत्व) और अपने ऊपर वह्य (ईश्वाणी) के उतरने का जो दावा किया है, वह इस तथ्य का स्पष्ट रूप से इंकार और खण्डन है जिसका निश्चित रूप से धर्म से होना प्रमाणित है कि हमारे सरदार मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर नुबुव्वत व रिसालत की समाप्ति हो चुकी है, और यह कि आप के बाद किसी पर भी वह्य नहीं उतरेगी। मिर्ज़ागुलाम का यह दावा उसे और उस से सहमत सभी लोगों को मुर्तद और इस्लाम से बाहर (निष्कासित) कर देता है, जहाँ तक लाहौरी समूह का संबंघ है तो वह भी उस पर मुर्तद्दका हुक्म लगाने में क़ादियानियत ही के समान है, यद्यपि उन्हों ने मिर्ज़ागुलाम अहमद को हमारे नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की छाया और अभिव्यक्ति कहा है।
दूसरा : किसी गैर इस्लामी न्यायालय, या किसी गैर मुस्लिम न्यायाधीश को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी के मुसलमान होने या स्वधर्म त्याग करने (मुर्तद्दहोने) का हुक्म जारी करे,विशेष रूप से उन चीज़ों के विरोध और उल्लंघन में जिस पर इस्लामी उम्मत की उसके विद्वानों और संगठनों के द्वारा सर्वसहमति है। क्योंकि किसी के मुसलमान होने या स्वधर्म त्याग करने (मुर्तद्दहोने) का हुक्म केवल उसी समय स्वीकारनीय हो सकता है जब वह किसी ऐसे मुसलमान विद्वान के द्वारा जारी हुआ हो जो उन सभी चीज़ों का ज्ञान रखता हो जिस से किसी का इस्लाम में प्रवेश करना,या मुर्तद्दहोने के कारण उस से निष्कासित होना संपन्न होता है, तथा वह इस्लाम या कुफ्र की हक़ीक़त को जानता हो, और क़ुरआन व हदीस और इज्माअ़ (सर्व सहमति) में प्रमाणित चीज़ों से अवगत हो,अत: इस तरह के न्यायालय का हुक्म (फैसला) बातिल (असत्य और अमान्य) है। और अल्लाह तआला ही सर्व श्रेष्ठ ज्ञान रखता है।
मज्मउल फिक़्हिल-इस्लामी (इस्लामी फिक़्ह अकादमी) पृ0 13