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तौहीदे-रूबूबियत और उसके विरोधियों की वास्तविकता

03-01-2010

प्रश्न 49025

तौहीदे-रूबूबियत की क्या वास्तविकता है ?

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

तौहीदे-रूबूबियत : अल्लाह तआला को उसके कामों जैसे कि पैदा करने, मालिक होने, संसार का संचालन और व्यवस्था करने, रोज़ी देने, जीवित करने, मृत्यु देने, और वर्षाबरसाने इत्यादि में एकता और अकेला मानने को तौहीदे-रूबूबियत कहते हैं। चुनाँचि बन्दे का तौहीद संपूर्ण नहीं हो सकता यहाँ तक कि वह इस बात का इक़रार करे कि अल्लाह तआला ही प्रत्येक चीज़ का रब (पालनहार), मालिक, पैदा करने वाला और रोज़ी देने वाला है, और यह कि वही ज़िन्दा करने वाला, मारने वाला, लाभ पहुँचाने वाला, हानि पहुँचाने वाला और एक मात्र वही दुआ क़बूल करने वाला है, जिसकी मिल्कियत में सारी चीज़ें हैं, और उसी के हाथ में हर प्रकार की भलाई है, जिस चीज़ पर चाहे सक्षम और शक्तिवान है। और इसी में अच्छी और बुरी तक़्दीर पर ईमान रखना भी शामिल है।

तौहीद की इस क़िस्म का उन मुश्रिकों (अनेकेश्वरवादियों) ने भी विरोध नहीं किया जिन के बीच रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम भेजे गये थे, बल्कि सामान्य रूप से उस को स्वीकार करते थे ; जैसा कि अल्लाह तआला का फरमान है : "यदि आप उन से पूछें कि आकाशों और धरती की रचना किस ने की है ? तो नि:सन्देह उनका यही उत्तर होगा कि उन्हें सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञानी अल्लाह ही ने पैदा किया है।" (सूरतुज़-ज़ुख़रूफ़: 9)चुनाँचि वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि अल्लाह तआला ही सभी मामलों का संचालन करता है, और उसी के हाथ में आकाशों और धरती की बादशाहत है। इस से पता चला कि मात्र अल्लाह तआला की रूबूबियत का इक़रार कर लेना बन्दे के वास्तविक रूप से मुसलमान होने के लिए काफी नहीं है, बल्कि उस के साथ ही उसके लाज़मी तक़ाजे और उसके लिए आवाश्यक तत्व को पूरा करना ज़रूरी है, और वह तौहीदे उलूहियत और अल्लाह तआला को उसकी इबादत में एकता और अकेला मानना है।

तथा इस तौहीद -अर्थात् तौहीदे-रूबूबियत- का आदम की संतान (मनुष्यों) में से किसी सर्वज्ञात मनुष्य ने इनकार नहीं किया है ; चुनाँचि किसी एक मख्लूक़ ने भी यह नहीं कहा है कि : एक ही स्तर के संसार के दो पैदा करने वाले (सृष्टता) हैं। अत: तौहीदे-रूबूबियत का किसी एक ने भी इनकार नहीं किया है ; सिवाय इस के जो फिरऔन ने किया था ; तो वास्तविकता यह है कि उस ने भी घमण्ड, अहंकार और हठ के तौर पर इनकार किया था, बल्कि उस ने -उस पर अल्लाह की धिक्कार हो- यह गुमान किया कि वह रब (प्रभु) है, अल्लाह तआला ने उस के कथन का उल्लेख करते हुये फरमाया :

"उस ने कहा, तुम सब का महान प्रभु मैं ही हूँ।" (सूरतुन् नाज़िआत: 24)

"मैं तो अपने अतिरिक्त किसी को तुम्हारा पूज्य नहीं जानता।" (सूरतुल क़सस्: 38)

यह उस ने घमण्ड के तौर पर कहा था क्योंकि वह जानता था कि रब (परमेश्वर) उस के अतिरिक्त कोई अन्य ही है ; जैसा कि अल्लाह तआला ने फरमाया :

"उन्हों ने केवल अत्याचार और घमंड के कारण इन्कार कर दिया हालांकि उनके हृदय विश्वास कर चुके थे।" (सूरतुन नम्ल : 14)

तथा अल्लाह तआला ने मूसा अलैहिस्सलाम के कथन का उल्लेख करते हुये, जबकि वह फिरऔन से बहस कर रहे थे, फरमाया :

"यह तो तुझे ज्ञात हो चुका है कि आकाशों और धरती के प्रभु ही ने यह मोजिज़े (चमत्कार) दिखाने समझाने को अवतरित किए हैं।" (सूरतुल इस्रा: 102)

चुनाँचि वह अपने दिल में इस बात का इक़रार करने वाला था कि रब (प्रभु) अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल ही है।

इसी प्रकार साझेदारी के तौर पर तौहीदे-रूबूबियत का इनकार मजूस (पारसियों) ने भी किया है, उनका कहना है : संसार के दो खालिक़ (पैदा करने वाले या सृष्टा) हैं और वे दोनों प्रकाश और अंधकार हैं, इसके उपरान्त उन्हों ने इन दोनों पैदा करने वालों को समांतर और बराबर नहीं ठहराया है, चुनाँचि वे कहते हैं कि : प्रकाश, अंधकार से श्रेष्ठ है ; क्योंकि वह भलाई को जन्म देता है, जबकि अंधकार, बुराई को जन्म देता है, और जो भलाई को पैदा करता है वह उस से बेहतर है जो बुराई को पैदा करता है। तथा अंधकार अनस्तित्व है रोशनी नहीं देता है, और प्रकाश अस्तित्व है रोशनी फैलाता है, इसलिए वह अपने अस्तित्व में अधिक सम्पूर्ण है।

इसके बाद . . मुश्रेकीन (अनेकेश्वरवादियों) के तौहीदे-रूबूबियत को स्वीकार करने का मतलब यह नहीं है कि वे इसे सम्पूर्ण रूप से मानते थे ; बल्कि वे सामान्य रूप से इसका इक़रार करते थे जैसा कि अल्लाह तआला ने पिछली आयतों में उनके बारे में वर्णन किया है ; किन्तु वे ऐसी चीज़ों में पड़े हुये थे जो उस (तौहीदे रूबूबियत) में खराबी पैदा करती और उसे दूषित कर देती थीं ; उन्ही खराबियों में से उनका बारिश की निस्बत सितारों की ओर करना, और काहिनों और जादूगरों के बारे में यह आस्था रखना था कि वे प्रोक्ष (ग़ैब की बातों) का ज्ञान रखते हैं, इनके अलावा रूबूबियत में शिर्क के अन्य रूप भी थे ; किन्तु ये उनके उलूहियत और इबादत में शिर्क करने की शक्लों के अनुपात में, कम और सीमित थे।

हम अल्लाह तआला से प्रार्थना करते हैं कि हमें अपने दीन पर स्थिर और सुदृढ़ रखे यहाँ तह कि हम उस से मुलाक़ात करें।

और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।

देखिये :(तैसीरुल अज़ीज़िल हमीद /33 तथा अल-क़ौलुल मुफीद 1/14)

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