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मैं सूरतलु माईदा में वर्णित "अस्साबिऊन" शब्द का ऐराब जानना चाहता हूँ, और इस में "वाव" क्यों आया है? जबकि दूसरी आयत में यही शब्द "या" के साथ आया है, और दोनों आयतो में वार्तालाप के अंदर बड़ी समानता है। यह बात मेरे और एक ईसाई आदमी के बीच एक बड़े मतभेद का कारण बन गयी, उसका कहना था कि : क़ुर्आन में नह्वी गलतियां हैं, तो मैं ने कहा कि : यदि क़ुर्आन में एक भी नह्वी गलती है तो मैं इस्लाम धर्म त्याग कर दूँ गा। मेरा यह वचन ईमान की शक्ति और इस भरोसे के आधार पर था कि क़ुर्आन अल्लाह सुब्हानहु व तआला की वाणी है और झूठ गढ़ने वालों और आरोपियों के बकवास से पवित्र है।
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
शब्द "अस्साबिईन" ज़ेर की "या" के साथ सूरतुल बक़रा और सूरतुल हज्ज में आया है ; अल्लाह तआला का फरमान है :
إِنَّ الَّذِينَ آمَنُوا وَالَّذِينَ هَادُوا وَالنَّصَارَى وَالصَّابِئِينَ مَنْ آمَنَ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الآخِرِ وَعَمِلَ صَالِحاً فَلَهُمْ أَجْرُهُمْ عِنْدَ رَبِّهِمْ وَلا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلا هُمْ يَحْزَنُونَ البقرة: 62
"निसन्देह जो मुसलमान हो, यहूदी हो, ईसाई हो या साबी हो, जो कोई भी अल्लाह तआला और अन्तिम दिन पर ईमान लायेगा और अच्छे काम करेगा, उसका बदला उसके पालनहार के पास है, और उन को न कोई डर है और न कोई गम होगा।" (सूरतुल बक़रा : 62)
तथा दूसरे स्थान पर अल्लाह तआला ने फरमाया :
إِنَّ الَّذِينَ آمَنُوا وَالَّذِينَ هَادُوا وَالصَّابِئِينَ وَالنَّصَارَى وَالْمَجُوسَ وَالَّذِينَ أَشْرَكُوا إِنَّ اللَّهَ يَفْصِلُ بَيْنَهُمْ يَوْمَ الْقِيَامَةِ إِنَّ اللَّهَ عَلَى كُلِّ شَيْءٍ شَهِيدٌ
الحج: 17
"ईमान वाले, और यहूदी और साबी और ईसाई और आग के पुजारी और मूर्तिपूजक, उन सब के बीच क़ियामत के दिन अल्लाह तआला स्वयं फैसला कर देगा, अल्लाह तआला हर चीज़ का गवाह है।" (सूरतुल हज्ज :17)
और यही शब्द सूरतुल माईदा में पेश के "वाव" के साथ आया है, अल्लाह तआला का फरमान है :
إِنَّ الَّذِينَ آمَنُوا وَالَّذِينَ هَادُوا وَالصَّابِئُونَ وَالنَّصَارَى مَنْ آمَنَ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الآخِرِ وَعَمِلَ صَالِحاً فَلا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلا هُمْ يَحْزَنُونَ
المائدة:49
"मुसलमानों, यहूदियों, साबियों (तारों के पुजारियों) और ईसाईयों में से जो भी अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान लायेगा और नेक काम करेगा, उन पर कोई डर नहीं और न ही वो गम करेंगे।" (सूरतुल माईदा : 69)
पहली दोनों आयतों के ऐराब में कोई समस्या नही है, क्योंकि उन दोनों आयतों में शब्द "अस्साबिईन" एक ऐसे शब्द पर वाव के द्वारा मा´तूफ है जिस का स्थान ज़बर का है, और वह"इन्ना" का इस्म "अल्लज़ीना" है, और उसके ज़बर होने की पहचान "या" है, इसलिए कि वह जमा मुज़क्कर सालिम (पुरूष के लिए बहुवचन शब्द है और उसके एकवचन का वज़न सही-सालिम है, टूटा नहीं) है।
समस्या केवल तीसरी आयत में है जो सूरतलु माईदा की है, क्योंकि वह पहली दोनों आयतों ही के स्थान पर आयी है, इसके उपरान्त वह पेश की हालत में है (जबकि पहली दोनों आयतें ज़बर की हालत में हैं)।
अरबी व्यकारण के विद्वानों और क़ुर्आन के भाष्यकारों ने इस समस्या के स्पष्टीकरण के कई कारण उल्लेख किये हैं, और अरबी भाषा में इस शैली के कई उदाहरणों और नमूनों का वर्णन किया है जो प्रचलित और प्रसिद्ध हैं, हम उन में से तीन के वर्णन पर निर्भर करते हैं, जो इस अध्याय में कही जाने वाली बातों में से सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं :
पहला
: आयत में तक़दीम व ताखीर है (अर्थात् जिसका स्थान बाद में था उसे पहले कर दिया गया है), इस आधार पर आयत के अर्थ का संदर्भ यह बने गा :
إن الذين آمنوا والذين هادوا والنصارى ، من آمن بالله ...فلاخوف عليهم ، ولا هم يحزنون ، والصابئون كذلك.
और उसका ऐराब इस तरह किया जायेगा कि "अस्साबिऊन" मुब्तदा है और पेश की हालत में है, और उसके पेश की हालत में होने की निशानी "वाव" है, क्योंकि वह जमा मुज़क्कर सालिम है, और अरबी भाषा से इस का उदाहरण कवि का यह कथन है :
فمن يك أمسى بالمدينة رحله فإني وَقَيَّارٌ بها لغريب
इस में तर्क का स्थान कवि का कथन "क़ैयार" है, जो कि उसके घोड़े या ऊँट का नाम है, यह शब्द पेश की हालत में है इस आधार पर कि वह मुब्तदा है, और वह इस आधार पर ज़बर की हालत में नहीं आया है कि वह इन्ना के इस्म पर मा´तूफ है जो ज़बर की हालत में हैं, और वह इन्नी में मुतकिल्लम की "या" है।
दूसरा
: शब्द "अस्साबिऊन" मुब्तदा है, और अन्नसारा उसके ऊपर मा´तूफ है, और आमना बिल्लाहि.... का वाक्य "अस्साबिऊन" की खबर है, और शब्द "इन्ना" की खबर गुप्त (मह्ज़ूफ) है जिस पर मुब्तदा "अस्साबिऊन" की खबर दलालत करती है। अरबी भाषा से इस का उदाहरण कवि का यह कथन है :
نحن بما عندنا ، وأنت بما عندك راضٍ ، والأمر مختلف
इस में तर्क का स्थान यह है कि मुब्तदा "नह्नो" की खबर का उल्लेख नहीं किया गया है, मा´तूफ "अन्ता" की खबर पर निर्भर किया गया है ; क्योंकि उसकी खबर "राज़िन्" पहले मुब्तदा की खबर पर तर्क स्थापित करती है, इस वाक्य का पूरा संदर्भ इस प्रकार होगा :
نحن بما عندنا راضون ، وأنت بما عندك راض
तीसरा
: "अस्साबिऊन" का शब्द "इन्ना" के इस्म के स्थान पर मा´तूफ है, चुनाँचि हुरूफ नासिखा "इन्ना" और उसकी बहनें, मुब्तदा और खबर से निर्मित जुम्ला इस्मिया पर दाखिल होते हैं, और इन्ना का असली (वास्तविक) स्थान, उस पर इन्ना के दाखिल होने से पहले पेश की हालत है क्योंकि वह मुब्तदा है, इसी कारण "अस्साबिऊन" पेश की हालत में है इस ऐतिबार से कि वह इन्ना के इस्म के स्थान पर मा´तूफ है।
(देखिये : इब्ने हिशाम की किताब अवज़हुल मसालिक, मुहीयुद्दीन की शर्ह के साथ,1/352-366, तथा शौकानी और आलूसी की इस आयत की तफसीर)
आप ने अपने विश्वास और यक़ीन की शक्ति और अल्लाह सुब्हानहु के कलाम (वाणी) पर भरोसा का जो उल्लेख किया है, तो यही हर मुसलमान पर अनिवार्य है, अल्लाह तआला का फरमान है : "क्या ये लोग क़ुर्आन में सोच विचार नहीं करते? यदि वह -क़ुरआन- अल्लाह के अतिरिक्त किसी और की ओर से होता तो वे उस में बहुत अधिक मतभेद और विरूद्धता पाते।" (सूरतुन-निसा : 82)
शैख इब्ने आशूर रहिमहुल्लाह अपनी तफसीर में फरमाते हैं : इसके बाद, यह विश्वास रखना अनिवार्य है कि यह शब्द ठीक इसी तरह उतरा है, और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इसे इसी तरह बोला है, और मुसलमानों ने इसे आप से ठीक इसी तरह सीखा और पढ़ा है, और मुसहफों में लिखा गया है, अत: हमारे लिए एक आधार और असल है जिस से हमें अत्फ में अरब के प्रयोग शैलियों में से एक शैली का पता चलता है, अगरचि यह प्रयोग अप्रचलित है, किन्तु फसाहत और संछेप में इसका एक स्थान है...
इब्ने आशूर ने "अस्साबिऊन" शब्द के पेश की हालत में आने का वाक्पटुता (बलागत) के ऐतिबार से लाभ का खोज किया है और कहा है जिस का आशय यह है कि :
इस संदर्भ में पेश का आना एक विचित्र और अनोखी बात है, इसलिए पाठक यहाँ पर रूक कर सोचता है कि : विशिष्ट रूप से यही शब्द पेश की हालत में क्यों है? जबकि स्वभाविक रूप से इस तरह के संदर्भ में ज़बर होना चाहिए।
तो इसके उत्तर में कहा जाये गा कि : "अस्साबिऊन" शब्द के पेश की हालत में आने की विचित्रता, अस्साबिऊन के बख्शिश (क्षमा) के वादे में दाखिल होने की विचित्रता के अनुकूल और मुनासिब है, क्योंकि वे लोग सितारों की पूजा करते हैं, जिसके कारणवश वे यूदियों और ईसाईयों से भी अधिक मार्गदर्शन और हिदायत से दूर हैं, यहाँ तक कि वे लोग बख्शिश और नजात के वादे से लगभग निराश हो चुके थे, तो इस के द्वारा यह सचेत किया है कि अल्लाह तआला की क्षमा और माफी बहुत महान है, अल्लाह तआला और अखिरत के दिन पर ईमान रखने वाले और सत्कर्म करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को सम्मिलित है, चाहे वह साबियों में से ही क्यों न हो। (देखिये: तफ्सीर इब्ने आशूर में सूरतुल माईदा की उक्त आयत की तफ्सीर)
साबियह (साबी) कौन लोग हैं? इसके बारे में जानकारी के लिए देखिये प्रश्न संख्या (49048) का उत्तर।
लेकिन हमारे लिए इस संदर्भ में कुछ इबरतें हैं जिन्हें छोड़ देना उचित नहीं :
पहला
: हमारे लिए शरई इल्म (धार्मिक शिक्षा) का ध्यान रखना उचित है, अत: मनुष्य के लिए केवल यही पर्याप्त नहीं है कि उसके पास पूर्व विश्वास मौजूद है, अगरचि यह एक बहुत बड़ा शरण और बचाव है, बल्कि अगर इसके साथ धार्मिक ज्ञान भी सम्मिलित हो जाये, तो इन-शा-अल्लाह वह इस बात से सुरक्षित हो जायेगा कि ये और इन के समान अन्य सन्देह, जिन्हें उसके धर्म के शत्रु उत्पन्न करते रहते हैं, उसके ईमान को डगमगा सकें।
दूसरा
: इस प्रकार की घटना हमें इस बात से सचेत और सावधान करती है कि हम ने अल्लाह अताला की किताब के प्रति अपने एक बड़े कर्तव्य के विषय में कोताही से काम लिया है और वह कर्तव्य है क़ुर्आन में मनन चिंतन और विचार करना, तथा एक दूसरे के साथ उसका अध्ययन करना, न कि केवल उसका पाठ करना, अल्लाह तआला का फरमान है : "यह मुबारक किताब है जिसे हम ने आप की तरफ इस लिए उतारा है कि लोग इसकी आयतों पर ध्यान दें और ख्याल करें और बुद्धि वाले इस से नसीहत (उपदेश) हासिल करें।" (सूरत साद् :29) शैख इब्ने सा'दी रहिमहुल्लाह फरमाते हैं : "अर्थात् इस किताब को नाज़िल करने की हिक्मत (उद्देश्य) यह है कि लोग इस की आयतों में तदब्बुर (मनन चिंतन) करके इसके ज्ञान को निकालें, इसके रहस्यों, भेदों और हिक्मतों में सोच विचार करें, क्योंकि इस में चिंतन मनन करने, उसके अर्थों में सोच विचार करने और उसमें बार-बार विचार करने से ही उसकी बरकत और खैर व भलाई को प्राप्त किया जा सकता है। यह आयत क़ुर्आन में तदब्बुर और ग़ौर व फिक्र करने पर बल देती है, और इस बात को दर्शाती है कि वह सर्वश्रेष्ठ कार्यों में से है, और यह कि तदब्बुर (मनन चिंतन) के साथ की जाने वाली तिलावत तेज़ी से तिलावत करने से बेहतर है जिस से उक्त उद्देश्य प्राप्त नहीं होते हैं।"
उक्त बातों पर इस घटना से प्रमाण यह है कि अगर हम ने इस कर्तव्य को समय-समय से निभाया होता तो इस प्रकार की आयतें हमें अवश्य ही रोकतीं कि हम इन के बारे में प्रश्न करें, या हम इनकी खोज-बीन करें, इस से पूर्व कि हमारे दुश्मनों की तरफ से इस समस्या का सामना हो।
तीसरा
: जब हम पिछले दोनों कर्तव्यों को पूरा कर लेंगे तो हम पहल करने की बागडोर को संभालने के योग्य हो जायेंगे, ताकि हम अपने अलावा के लोगों को निमंत्रण दें, हमारे पास जो सत्य मौजूद है उस से उन्हें अवगत करायें, और अच्छे ढंग से उनके पास जो असत्य है उसको खोल कर उनके सामने रखें, ऐसा न हो कि हम कमज़ोरों और पराजित लोगों के समान प्रत्युत्तर और सफाई देने की स्थिति को अपनायें।
और अल्लाह तआला ही तैफीक़ देने वाला है।