हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
अबू दाऊद (हदीस संख्या : 3237) तिर्मिज़ी (हदीस संख्या : 738) और इब्न माजा (हदीस संख्या : 1651) ने अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "जब आधा शाबान हो जाए तो रोज़ा न रखो।" इसे अल्बानी ने सहीह तिर्मिज़ी (हदीस संख्या : 590) में सहीह कहा है।
यह हदीस इस बात को इंगित करती है कि आधे शाबान के बाद अर्थात् सोलहवीं शाबान की शुरूआत से रोज़ा रखना निषिद्ध है।
किन्तु इसके विपरीत ऐसे प्रमाण भी आए हैं जो रोज़ा रखने के जायज़ होने पर तर्क हैं। उन्हीं में से कुछ निम्नलिखित हैं :
बुख़ारी (हदीस संख्या : 1914) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 1156) ने अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "रमज़ान से एक या दो दिन पहले रोज़ा न रखो, सिवाय उस आदमी के जो - इन दिनों में - कोई रोज़ा रखता था तो उसे चाहिए कि वह रोज़ा रखे।"
इस हदीस से पता चलता है कि आधे शाबान के बाद उस आदमी के लिए रोज़ा रखना जायज़ है जिसकी रोज़ा रखने की आदत है। जैसेकि किसी आदमी की सोमवार और जुमेरात को रोज़ा रखने की आदत है, या वह एक दिन रोज़ा रखता था और एक दिन इफ्तार करता (रोज़ा तोड़ देता) था . . . इत्यादि।
तथा बुखारी (हदीस संख्या : 1970) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 1156) ने आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा : "अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पूरे शाबान का रोज़ा रखते थे, आप कुछ दिनों को छोड़कर पूरे शाबान का रोज़ा रखते थे।" हदीस के शब्द मुस्लिम के हैं।
इमाम नववी रहिमहुल्लाह कहते हैं : आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा के कथन ("अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पूरे शाबान का रोज़ा रखते थे, आप कुछ दिनों को छोड़कर पूरे शाबान का रोज़ा रखते थे।") में दूसरा वाक्य, पहले वाक्य की व्याख्या है, और उनके कथन "पूरे शाबान" का मतलब "अक्सर शाबान" है।" अंत हुआ।
यह हदीस आधे शाबान के बाद रोज़ा रखने के जायज़ होने पर दलालत करती है, लेकिन उस आदमी के लिए जो उसे आधे शाबान से पहले के साथ मिलाए।
शाफेईया ने इन सभी हदीसों पर अमल किया है। चुनांचे उनका कहना है किः आधे शाबान के बाद केवल उसी आदमी के लिए रोज़ा रखना जायज़ है जिसकी रोज़ा रखने की आदत है, या वह उसे आधे शाबान से पहले के साथ मिलाए (अर्थात् यदि आधे शाबान से पहले भी वह रोज़ा रखता था तो वह अब उसके बाद भी रोज़ा रख सकता है।)
और यही बात अक्सर विद्वानों के निकट सबसे सही है कि हदीस में निषेध तह्रीम (वर्जन दर्शाने) के लिए है।
जबकि कुछ लोग – जैसे कि अर्रुवैयानी - इस बात की ओर गए हैं कि निषेध कराहत (अप्रियता दर्शाने) के लिए है, तह्रीम (वर्जन दर्शाने) के लिए नहीं है।"
देखिए : अल-मजमूअ (6/399-400), फत्हुल बारी (4/129)
नववी रहिमहुल्लाह रियाज़ुस्सालिहीन (पृ. 412) में फरमाते हैं : (आधे शाबान के बाद रमज़ान से पहले रोज़ा रखने से निषेध का अध्याय, सिवाय उस आदमी के जो उसे उसके पहले के साथ मिलाए या - उन दिनों में रोज़ा रखना - उसकी किसी आदत के अनुकूल हो जाए जैसेकि सोमवार और जुमेरात को रोज़ा रखने की उसकी आदत हो।) समाप्त हुआ।
विद्वानों की बहुमत इस बात की ओर गई है कि आधे शाबान के बाद रोज़ा रखने से निषेध की हदीस ज़ईफ (कमज़ोर) है। और इस आधार पर उन्हों ने कहा है कि आधे शाबान के बाद रोज़ा रखना मक्रूह (घृणित और नापसंदीदा) है।
हाफिज़ इब्न हजर कहते हैं : जमहूर उलमा (विद्वानों की बहुमत) का कथन है कि : आधे शाबान के बाद नफ्ली रोज़ा रखना जायज़ है और इन लोगों ने इस बारे में वर्णित हदीस को ज़ईफ (कमज़ोर) कहा है। इमाम अहमद और इब्न मईन ने कहा है कि यह हदीस "मुन्कर" है।" (फत्हुल बारी से समाप्त हुआ)।
इसी तरह बैहक़ी और तह़ावी ने भी इसे ज़ईफ कहा है।
तथा इब्न क़ुदामा ने अपनी किताब "अल-मुग़्नी" में उल्लेख किया है कि इमाम अहमद ने इस हदीस के बारे में फरमाया : "यह "महफूज़" - सुरक्षित - नहीं है, और हम ने इसके बारे में अब्दुर्रहमान बिन मह्दी से पूछा, तो उन्हों ने इसे सही (शुद्ध) नहीं कहा, और न ही उन्हों ने इस हदीस को मुझ से वर्णन किया। और वह इस हदीस से उपेक्षा करते थे। अहमद ने कहा : 'अला' सिक़ा (विश्वस्त और भरोसेमंद) आदमी हैं उनकी हदीसों में केवल यही हदीस मुन्कर (आपत्तिजनक) है।"
अला से मुराद अला बिन अब्दुर्रहमान हैं, वह इस हदीस को अपने बाप के माध्यम से अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत करते हैं।
इब्नुल क़ैयिम रहिमहुल्लाह ने "तह्ज़ीबुस्सुनन" में इस हदीस को ज़ईफ क़रार देने वालों का जवाब दिया है : उन्हों ने जो कुछ कहा है उसका सारांश यह है कि :
यह हदीस मुस्लिम की शर्त पर सहीह है, और अला का इस हदीस को अकेले ही रिवायत करना हदीस के अन्दर किसी त्रुटि का कारण नहीं है। क्योंकि अला सिक़ा रावी हैं (हदीस बयान करने वाले को रावी कहते हैं)। और मुस्लिम ने अपनी सहीह के अन्दर उनकी उनके बाप के माध्यम से अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से कई हदीसें रिवायत की हैं। तथा बहुत सारी सुन्नतें ऐसी हैं जिन्हें सिक़ा रावियों ने अकेले ही रिवायत किया है और उम्मत ने उन्हें क़बूल किया है . . . फिर उन्हों ने फरमाया :
यह गुमान करना कि यह हदीस शाबान के रोज़े पर दलालत करने वाली हदीसों से टकराती है, तो वास्तव में दोनों के बीच कोई टकराव नहीं है, और वे हदीसें आधे शाबान के बाद उसके पहले आधे के साथ रोज़ा रखने पर दलालत करती हैं, तथा दूसरे आधे में आदत के अनुसार रोज़ा रखने पर दलालत करती हैं। और अला की हदीस आधे शाबान के बाद, बिना किसी आदत के या उसके पहले आधे के साथ मिलाए बिना, रोज़ा रखने के निषेध पर दलालत करती है।" (इब्नुल क़ैयिम की बात समाप्त हुई)
शैख इब्न बाज़ रहिमहुल्लाह से आधे शाबान के बाद रोज़ा रखने के निषेध की हदीस के बारे में प्रश्न किया गया तो उन्हों ने कहा :
वह एक सही हदीस है जैसाकि हमारे भाई अल्लामा शैख नासिरूद्दीन अल्बानी ने कहा है। और उससे अभिप्राय आधे शाबान के बाद रोज़े की शुरूआत करने से निषेध है। किन्तु जिस आदमी ने इस महीने के अक्सर दिनों का रोज़ा रखा या पूरे महीने का रोज़ा रखा तो वह सुन्नत को पहुँच गया।" (मजमूओ फतावा शैख इब्न बाज़ 15/385)
शैख इब्न उसैमीन रहिमहुल्लाह ने "रियाज़ुस्सालिहीन की व्याख्या" (3/394) में फरमाया :
"यहाँ तक कि यदि वह हदीस सही ही हो, तब भी उसमें निषेध, हराम होने को नहीं दर्शाता है, बल्कि वह केवल कराहत के लिए है, जैसाकि कुछ उलमा रहिमहुमुल्लाह ने इस दृष्टिकोण को अपनाया है। किन्तु जिस आदमी की रोज़ा रखने की आदत है, तो वह आधे शाबान के बाद भी रोज़ा रख सकता है।" (शैख इब्न उसैमीन की बात समाप्त हुई)
जवाब का सारांश यह है कि :
शाबान के दूसरे अर्द्ध में रोज़े का निषेध या तो कराहत (नापसन्दीदा और घृणित होने) के तौर पर है, या उसके वर्जित और हराम होने के कारण है। किन्तु वह आदमी जिसकी - आधे शाबान के बाद - रोज़ा रखने की आदत है, या वह उसे आधे शाबान से पहले के साथ मिलाता है तो उसके लिए कोई निषेध नहीं है।
और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।
इस निषेध की हिक्मत (तत्वदर्शिता) यह है कि लगातार रोज़ा रखना आदमी को रमज़ान के रोज़े रखने से कमज़ोर कर सकता है।
यदि आपत्ति व्यक्त की जाए कि : अगर वह महीने के शुरू से ही रोज़ा रखता है, तो यह तो और अधिक कमज़ोरी का कारण है !
तो इसका उत्तर यह है किः जो आदमी शाबान के शुरू से ही रोज़ा रखता है, वह रोज़ा रखने का आदी हो जाता है। अत: उससे रोज़े की कठिनाई कम हो जाती है।
अल्लामा मुल्ला अली क़ारी कहते हैं : यह निषेध तंज़ीह (नापसन्दीदा होने को दर्शाने) के लिए है, इस उम्मत पर दया करते हुए कि कहीं वे रमज़ान के रोज़े के हक़ को स्फूर्ति के साथ अदा करने से कमज़ोर न हो जाएं। परन्तु जो आदमी पूरे शाबान का रोज़ा रखता है वह रोज़े का आदी हो जाता है, और उस से कठिनाई दूर हो जाती है।'' (क़ारी की बात समाप्त हुई)
और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।