शनिवार 8 जुमादा-1 1446 - 9 नवंबर 2024
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आशूरा का दिन इस्लाम और पूर्व धर्मों में, तथा रवाफिज़ (शियाओं) के इस दावे का खंडन कि वह उमैय्या के शासन काल का एक नवाचार (बिद्अत) है

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प्रकाशन की तिथि : 17-11-2016

दृश्य : 8121

प्रश्न

जिस दिन हम आशूरा का रोज़ा रखते हैं क्या वह आशूरा का सही दिन नहीं है? क्येंकि मैं ने पढ़ा है कि आशूरा का सही दिन इब्रानी (हिब्रू) कैलेंडर के अनुसार तशरी महीने का दसवाँ दिन है, और बनू उमैय्या के खुलफा ने इसे मुहर्रम के महीने के दसवें दिन से बदल दिया। तशरी महीना यहूदी कैलेंडर के अनुसार पहला महीना है।

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

1 – आशूरा का रोज़ा जिसे हम मुहर्रम की दसवीं तारीख को रखते हैं, यह वही दिन है जिस में अल्लाह तआला ने मूसा अलैहिस्सलाम को मुक्ति (नजात) प्रदान की थी। तथा यह वही दिन है जिसका मदीना में यहूदियों के एक समूह ने इसी वजह से रोज़ा रखा था। और यही वह दिन है जिसका नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने शुरू-शुरू में रोज़ा रखने का आदेश दिया था। फिर रमज़ान के रोज़ों की अनिवार्यता के द्वारा उसकी अनिवार्यता को मन्सूख़ (निरस्त) कर दिया गया, और अब आशूरा का रोज़ा मुस्तहब रह गया है।

और यह दावा करना कि बनू उमैय्या के कुछ खुलफा ही ने इसे मुहर्रम के महीने में कर दिया है : एक राफ़िज़ी दावा है, और यह उनकी झूठी बातों की श्रृंखला का एक हिस्सा है, जिन पर उन्होंने अपने धर्म का आधार रखा है। तथा यह उनकी उस कुंठा का एक हिस्सा है कि वे हर बुरी चीज़ की निस्बत बनू उमैय्या के खुलफा और उनके शासनकाल की तरफ करते हैं। यदि उमवी लोग झूठी हदीसें गढ़ कर पवित्र शरीअत की ओर मन्सूब करना चाहते : तो वे ऐसी हदीसें गढ़ते कि आशूरा का दिन ईद का दिन होता, रोज़े का दिन नहीं, कि आदमी अपने आपको खाने, पीने और संभोग से रोक दे। क्योंकि रोज़ा वैध चीज़ों से रूकने की इबादत है, जबकि ईद उन्हें भोगने और करने में खुशी के लिए होती है।

2 – इसमें कोई शक नहीं है कि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का हिज्रत करके मदीना में आगमन रबीउल अव्वल के महीने में हुआ, न कि मुहर्रम के महीने में। और आप ने यहूदियों के एक समूह को रोज़ा रखते हुए देखा। और जब आप ने उनसे उनके इस रोज़ा के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि यह वह दिन है जिस में अल्लाह तआला ने मूसा अलैहिस्सलाम और उनके साथ के लोगों को डूबने से बचाया था, अतः हम अल्लाह का शुक्र अदा करते हुए इस दिन का रोज़ा रखते हैं।

इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत है की नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जब मदीना तशरीफ लाए तो यहूदियों को एक दिन का अर्थात आशूरा का रोज़ा रखते हुए पाया। उन्होंने बताया कि यह एक महान दिन है, और यह वह दिन है जिस में अल्लाह ने मूसा अलैहिस्सलाम को नजात दिया था और फिरऔनियों को डिबो दिया था, तो इस पर मूसा अलैहिस्सलाम ने अल्लाह का शुक्र अदा करते हुए रोज़ा रखा था। तो पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः (मैं उन से ज़्यादा मूसा का हक़दार हूँ। चुनाँचे आप ने उसका रोज़ा रखा और लोगों को भी इस दिन रोज़ा रखने का आदेश दिया।)

इसे बुखारी (हदीस संख्याः 3216) ने रिवायत किया है।

यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि क्या आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने यहूदियों को रोज़ा रखते हुए मदीना में पहुँचने के बाद ही रबीउल अव्वल में देखा था या उसके बाद (अगले वर्ष) मुहर्रम के महीने में देखा था?

इस बारे में उलमा (विद्वानों) के दो कथन हैं, और इसमें राजेह यह है किः आपका यह देखना, और उनसे संवाद करना तथा रोज़ा रखने का हुक्म देनाः अल्लाह के महीने मुहर्रम में हुआ था, अर्थातः आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मदीना आगमन के दूसरे वर्ष में। और इससे यह पता चलता है कि यहूद हिसाब (गणना) में चाँद के महीनों पर भरोसा करते थे।

इब्ने क़ैय्यिम अल-जौज़िय्या रहिमहुल्लाह कहते है :

''कुछ लोगों के लिए यह मुद्दा उलझाव का कारण बन गया है। वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम रबीउल अव्वल के महीने में मदीना तशरीफ लाए तो फिर इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा यह कैसे कह रहे हैं कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मदीना आए तो यहूदियों को आशूरा के दिन रोज़ा रखते हुए पाया?

तथा आप रहिमहुल्लाह ने जवाब देते हुए फरमायाः

रही बात पहले इश्काल (दुविधा) कीः और वह यह कि जब आप सल्लल्लाह अलैहि व सल्लम मदीना तशरीफ लाए तो यहूदियों को आशूरा के दिन रोज़ा रखते हुए पायाः तो इसका मतलब यह नहीं है कि आप ने अपने आगमन के दिन ही उन्हें रोज़ा रखते हुए पाया। क्योंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मदीना में रबीउल अव्वल की बारह तारीख को सोमवार के दिन पहुँचे थे। परन्तु आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को सबसे पहले इसका ज्ञान आपके मदीना आगमन के बाद, दूसरे वर्ष में हुआ। मक्का में रहते हुए आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को इसका ज्ञान नहीं था। यह उस स्थिति में है कि जब अह्ले किताब अपने रोज़ों की गिन्ती चाँद के महिनों के अनुसार करते रहे होँ।

''ज़ादुल मआद फी हद्ये-खैरिल-इबाद'' (2/66)

तथा हाफिज़ इब्ने हजर रहिमहुल्लाह कहते है :

''हदीस के प्रत्यक्ष अर्थ से कुछ लोगों को उलझाव पैदा हुआ है; क्योंकि उसकी अपेक्षा यह है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मदीना पहुँचने पर यहूदियों को आशूरा का रोज़ा रखते हुए पाया, जबकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम रबीउल अव्वल के महीने में मदीना पहुँचे थे। तो इसका जवाब यह है कि इससे अभिप्राय यह है किः आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को सबसे पहले यहूदियों के रोज़ा रखने का ज्ञान और इस विषय में आप का सवाल करना मदीना में आने के बाद हुआ था, न कि मदीना में आगमन से पहले। अंततः यह कि हदीस के वाक्य में कुछ अंश गुप्त है, और पूरा वाक्य इस प्रकार है किः नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मदीना तशरीफ लाए और आशूरा का दिन आने तक वहाँ ठहरे रहे, तो आप ने यहूदियों को उस दिन रोज़ा रखते हुए पाया।''

''फत्हुल बारी'' (4/247)

3 – क्या यहूदी लोग अपने उस रोज़े का हिसाब चाँद के महीनों के अनुसार करते थे, या सौर महीनों के अनुसार?

अब अगर हम यह कहें कि उनका हिसाब चाँद के महीनों के आधार पर था - जैसा कि ऊपर बयान हुआ - तो इस में कोई समस्या नहीं है, क्योंकी दस मुहर्रम का दिन हर वर्ष परिवर्तित नहीं होता है। लेकिन अगर यह कहें कि उनका हिसाब सौर महीनों के आधार पर था तो यहाँ समस्या पैदा होती है; क्योंकि यह दिन हर वर्ष बदलता रहेगा और हमेशा दसवीं मुहर्रम ही को नहीं आएगा।

इब्नुल क़ैय्यिम रहिमहुल्लाह ने इस मतभेद का उल्लेख करते हुए यह स्पष्ट किया है कि इस कथन के आधार पर कि यहूदियों का हिसाब सौर महीनों के अनुसार थाः नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का यहूदियों को उस दिन का रोज़ा रखते हुए देखनाः आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मदीना में आगमन के शुरू ही में, रबीउल अव्वल के महीने में था। और सौर कैलेंडर पर आधारित उनका हिसाब आप के आगमन से मेल खाता था। जहाँ तक उस वास्तविक दिन का संबंध है जिसमें अल्लाह ने मूसा अलैहिस्सलाम को बचाया था तो वह मुहर्रम की दसवीं तारीख थी, लेकिन वे सौर कैलेंडर का पालन करने की वजह से उस दिन का निर्धारण करने में ग़लती करने लगे।

इब्ने क़ैय्यिम अल-जौज़िय्या रहिमहुल्लाह कहते है :

और अगर यहूदियों का हिसाब सौर महीनों के आधार पर था तो समस्या पूरी तरह से समाप्त हो गई। और वह दिन जिस में अल्लाह ने मूसा अलैहिस्सलाम को नजात दी थी मुहर्रम के आरंभ से दसवाँ दिन (यानी आशूरा का दिन) होगा। चुनाँचे यहूदियों ने इसे सौर महीनों के अनुसार नियंत्रित किया। तो वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सस्लम के रबीउल अव्वल के महीने में मदीना में आगमन से मेल खा गया। अह्ले किताब (यहूद) का रोज़ा सौर कैलेंडर के हिसाब से होता है, जबकि मुसलमानों का रोज़ा चाँद के महीने के हिसाब से होता है, इसी तरह उनका हज्ज और वे सभी अनिवार्य या मुस्तहब चीज़ें जिनके लिए महीने का एतिबार किया जाता है। इस पर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : (हम मूसा अलैहिस्सलाम के तुम से ज़्यादा हक़दार हैं।) तो इस प्राथमिकता का हुक्म इस दिन का सम्मान करने और उसका निर्धारण करने में प्रकट होता है।जबकि सौर वर्ष में इसके रोटेशन के कारण यहूदियों ने इस दिन का निर्धारण करने में ग़लती की है। जिस तरह कि ईसाइयों ने अपने रोज़ा का निर्धारण करने में ग़लती की है कि उन्हों ने उसे वर्ष के एक विशेष मौसम में कर लिया जिस में महीने बदलते रहते हैं।''

''ज़ादुल मआद फी हद्ये-खैरिल-इबाद'' (2/69-70)

हाफिज़ इब्ने हजर ने इस व्याख्या को एक संभावना के तौर पर बयान किया है और इस का खंडन किया है, तथा इब्ने क़ैय्यिम के इसका पक्ष करने का भी खंडन किया है।

हाफिज़ रहिमहुल्लाह कहते हैं :

बाद में आनेवाले कुछ विद्वानों का कहना है कि : हो सकता है कि यहूदियों का रोज़ा रखना सौर कैलेंडर के हिसाब से था, तो ऐसी स्थिति में आशूरा का रबीउल अव्वल के महीने में पड़ना असंभव नहीं है। और इस तरह समस्या पूरी तरह से समाप्त हो जाएगी। इब्ने क़ैय्यिम ने ज़ादुल मआद में इसे इसी तरह साबित किया है। वह कहते हैं कि :‘‘अहले किताब का रोज़ा रखना सौर कैलेंडर के हिसाब से था'', मैं कहता हूँ : इब्ने क़ैय्यिम का समस्या खत्म हो जाने का दावा करना आश्चर्यपूर्ण है। क्योंकि इससे एक दूसरी समस्या पैदा होती है। और वह यह कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मुसलमानों को हुक्म दिया कि वे आशूरा का रोज़ा हिसाब (यानी सौर कैलेंडर) के अनुसार रखें, हालांकि आशूरा के रोज़ा के बारे में हर युग में मुसलमानों की स्थिति से यही परिचित है किः वह ''मुहर्रम'' में है, न कि इसके अतिरिक्त किसी अन्य महीने में है। हाँ, मुझे तबरानी में जैय्यिद सनद के साथ ज़ैद बिन साबित की एक रिवायत मिली है, वह कहते हैं : ''आशूरा का दिन वह नहीं है जिसे लोग आशूरा का दिन कहते हैं, यह उस दिन था जिस में काबा पर ग़िलाफ चढ़ाया जाता था और हब्शी लोग उस दिन - तलवारों और युद्ध के अन्य उपकरणों के साथ - खेलते थे। और यह पूरे वर्ष में घूमता रहता था, और लोग फलाँ यहूदी के पास पूछने के लिए आया करते थे। फिर जब उस यहूदी की मृत्यु हो गई तो लोग ज़ैद बिन स़ाबित के पास आकर पूछने लगे।''

इस आधार पर : विभिन्न रिवायतों में सामंजस्य का तरीक़ा यह है कि आप कहें कि : इस में असल यही है (कि उनका आधार सौर कैलेंडर पर था)। फिर जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने लोगों को आशूरा का रोज़ा रखने का हुक्म दियाः तो उसे अपनी शरीअत के हुक्म की ओर लौटाया, और वह चाँद के महीनों का एतिबार करना है। चुनाँचे मुसलमानों ने इसी पर अमल किया। परंतु उन्हों ने जो यह दावा किया है की यहूद अपने रोज़े का आधार सौर कैलेंडर को बनाते थे, यह विचारणीय है, क्योंकि यहूद अपने रोज़े में चाँद के महीनों ही का एतिबार करते थे, और उनके के बारे में हमने यही अवलोकन किया है। अतः संभव है कि उनमें से कुछ लोग ऐसे रहे हों जो महीनों का एतिबार सौर कैलेंडर के हिसाब से करते थे। लेकिन आज उनका अस्तित्व नहीं है। जिस तरह कि उन लोगों का अब कोई वजूद नहीं है जिनके बारे में अल्लाह ने यह सूचना दी है कि वे उज़ैर को अल्लाह का बेटा कहते थे। अल्लाह इस बात से सर्वोच्च है।''

''फत्हुल बारी'' (7/276) तथा यह भी देखिएः (4/247 )

तथा ''फत्हुल बारी'' में एक और जगह हाफिज़ इब्ने हजर रहिमहुल्लाह तबरानी की असर (रिवायत) पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं :

मुझे अबू रैहान अल-बैरूनी की पुस्तक ''अल-आसारुल क़दीमा'' में इसी अर्थ का एक वक्तव्य मिला है। चुनाँचे उन्हों ने जो कुछ उल्लेख किया है उसका सारांश यह है कि :यहूदियों में से अज्ञानी लोग अपने रोज़ों और त्योहारों में खगोलीय गणना पर भरोसा करते हैं। इस तरह उन लोगों के यहाँ वर्ष सौर कैलेंडर के हिसाब से होता है, चंद्र कैलेंडर के हिसाब से नहीं होता है। मैं कहता हूँ किः इसी वजह से उन्हें इस गणना का ज्ञान रखने वाले की आवश्यक्ता है ताकि वे इस विषय में उस पर भरोसा कर सकें।''

''फत्हुल बारी'' (4/247, 248 )

जहाँ तक ज़ैद बिन साबित के उस असर (रिवायत) का संबंध है जिसे हाफिज़ इब्ने हजर रहिमहुल्लाह ने उल्लेख किया है और उसका जवाब दिया है, हाफिज़ इब्ने रजब रहिमहुल्लाह ने उसकी सनद और मतन (मूल पाठ) दोनों की आलोचना की है।

आप रहिमहुल्लाह कहते हैं :

इस (असर) में यह संकेत मिलता है कि आशूरा ''मुहर्रम'' के महीने में नहीं है, बल्कि इसका अह्ले किताब के हिसाब की तरह, सौर वर्ष के अनुसार हिसाब लगाया जायेगा। जबकि यह पहले समय से चले आ रहे मुसलमानों के अमल के विरूद्ध है। . . . और इब्ने अबिज़्-ज़िनाद (जो इस हदीस के वर्णनकर्ता हैं) जब किसी हदीस को अकेले रिवायत करें, तो उस पर भरोसा नहीं किया जाएगा। यहाँ उन्हों ने पूरी हदीस को ज़ैद बिन साबित का कथन क़रार दिया है, जबकि हदीस के अन्तिम वाक्य का ज़ैद बिन साबित का कथन होना सही नहीं है, इसलिए शायद यह ज़ैद के अलावा किसी अन्य का कथन है। और अल्लाह ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।

''लताइफुल मआरिफ'' (पृष्ठ संख्या : 53)

4 – कोई पूछने वाला पूछ सकता है किः नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने यहूदियों की इस बात पर कैसे विश्वास कर लिया कि आशूरा ही के दिन अल्लाह तआला ने मूसा अलैहिस्सलाम और उनके साथियों को नजात दी थी? यह वही सवाल है जिसे राफिज़ी लोग बड़ी धूर्तता और दुष्टता के साथ पूछते हैं ताकि वे इसके द्वारा आशूरा के रोज़ा की रूचि दिलाने वाली अहादीस पर आक्षेप लगाने तक पहुँच हासिल कर सकें, ताकि उनका यह दावा मान लिया जाए कि यह उमवी लोगों की बिदअतों में से है!

इस समस्या और उसके जवाब में माज़ुरी रहिमहुल्लाह कहते हैं :

''यहूदियों की बात अस्वीकारनीय है; अतः इस बात की संभावना है कि आप की ओर वह्य (प्रकाशना) की गई हो कि ये लोग अपनी बात में सच्चे हैं, या यह बात आप को बहुत अधिक स्रोतों से पहुँची हो जिससे आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को इसके सहीह होने का ज्ञान हो गया हो।'' समाप्त हुआ।

इमाम नववी ने इसे ''शर्हे मुस्लिम'' (8/11) में नक़ल किया है।

शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह कहते हैं :

जब आशूरा का रोज़ा मूलतः अह्ले किताब की सहमति के तौर पर नहीं थाः तो आप सल्लल्लाहु अअलैहि व सल्लम का यह कथन किः (हम मूसा अलैहिस्सलाम के तुम लोगों से अधिक हक़दार हैं) आशूरा के रोज़े की पुष्टि के लिए, और यहूदियों के लिए यह स्पष्ट करने के लिए है कि जो तुम मूसा अलैहिस्सलाम की सहमति जतलाते होः हम भी उसे करते हैं, इस तरह हम मूसा अलैहिस्सलाम के तुमसे अधिक योग्य हैं।

''इक़्तिज़ाउस्सिरात़िल मुस्तक़ीम'' (पृष्ठ संख्या : 174)

5 – इस बात से अवज्ञत होना उचित है की जिस विषय में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को कोई हुक्म नहीं दिया गया होता, उसमें आप अह्ले किताब की समानता को पसंद करते थे। और इसी में से आशूरा का रोज़ा भी है।

अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपने सिर के बालों को माथे पर लटकाते थे। जबकि मुश्रिकीन (अनेकेश्वरवादी लोग) बालों की माँग निकालते थे और अह्ले किताब अपने सिर के बालों को माथे पर लटकाते थे। और जिन मामलों में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को कोई हुक्म नहीं दिया गया होता था आप उनमें अह्ले किताब की समानता को पसन्द करते थे। फिर बाद में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम भी अपने सिर के बालों की माँग निकालने लगे।''

इसे बुखारी (हदीस संख्या : 3728) ने रिवायत किया है।

यह इमाम बुखारी रहिमहुल्लाह के धर्म शास्त्र की गहन समझबूझ का एक प्रतीक है कि उन्होंने इस हदीस को आशूरा के रोज़े से संबंधित अबू मूसा और इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुम की दो हदीसों के बाद बयान किया है।

अबुल अब्बास क़ुर्तुबी रहिमहुल्लाह कहते हैं :

इस बात की संभावना है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने आशूरा का रोज़ा उसपर उनके साथ सहमति के तौर पर रखा हो, जिस तरह कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनके साथ उन्हीं की तरह हज्ज करने पर सहमति जताई; – अर्थात आपका वह हज्ज जिसे आपने अपनी हिज्रत से पूर्व और हज्ज की अनिवार्यता से पहले किया था-; क्योंकि यह सब अच्छा कार्य था।

और यह भी कहा जा सकता है किः अल्लाह तआला ने आपको आशूरा का रोज़ा रखने की अनुमति दे रखी थी, फिर जब आप मदीना पहुँचे तो यहूदियों को उस दिन का रोज़ा रखते हुए पाया और उन से रोज़ा रखने का कारण पूछा। तो उन्होंने वही जवाब दिया जो इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने उल्लेख किया है किः वास्तव में यह एक महान दिन है, इस दिन अल्लाह ने मूसा और उनकी क़ौम को नजात दी थी, और फिरऔन और उसकी क़ौम को ड़िबो दिया था, तो मूसा अलैहिस्सलाम ने अल्लाह के लिए कृतज्ञता प्रकट करने के लिए रोज़ा रखा था, इसलिए हम इस दिन का रोज़ा रखते हैं। तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : (हम मूसा अलैहिस्सलाम के तुम से अधिक योग्य और ज़्यादा हक़दार हैं); तो उस समय आप ने मदीना में उसका रोज़ा रखा और उसका रोज़ा रखने का हुक्म दिया, अर्थात उसका रोज़ा रखना अनिवार्य क़रार दिया और अपने आदेश की पुष्टि की, यहाँ तक की सहाबा-ए-किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम अपने छोटे बच्चों को रोज़ा रखवाते थे। चुनाँचे आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने स्वयं इसके रोज़ा की पाबन्दी की और अपने सहाबा को भी इसका पाबन्द बनाया, यहाँ तक कि रमज़ान के महीने का रोज़ा अनिवार्य कर दिया गया और आशूरा के दिन का रोज़ा मन्सूख (निरस्त) कर दिया गया। तो उस समय आप ने फरमाया : (अल्लाह ने तुम पर इस दिन का रोज़ा रखना अनिवार्य नही किया है), फिर आप ने इस दिन रोज़ा रखने या न रखने के बीच चुनाव का विकल्प दिया। परंतु उसकी फज़ीलत (विशेषता) को अपने इस कथन के द्वारा बाक़ी रखा किः (हालांकि मैं रोज़े से हूँ), जैसा कि मुआविया रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस में आया है।

इस बुनियाद पर हम कहते हैं किः नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने यहूदियों का पालन करते हुए आशूरा का रोज़ा नहीं रखा। क्योंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उनके पास आने और उनकी हालत के ज्ञान से पहले ही रोज़ा रखा करते थे। परंतु इसकी जानकारी के बाद आप ने, यहूदियों का दिल जीतने और धीरे धीरे उन्हें क़रीब लाने के लिए, इसे अनिवार्य क़रार दिया और इसकी पाबन्दी की। जिस तरह कि यही हिक्मत उनके क़िब्ले की तरफ मुँह करके नमाज़ पढ़ने में थी। और यह वही समय था जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ऐसे मामले में यहूद की सहमति (समानता अपनाना) पसन्द करते थे जिससे आपको मनाही नहीं की गई थी।

''अल-मुफहिम लिमा अश्कला मिन तल्खीसि किताबि मुस्लिम'' (3/191,192)

हाफिज़ इब्ने हजर रहिमहुल्लाह कहते हैं :

बहरहाल, आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने यहूदियों का अनुकरण करते हुए आशूरा का रोज़ा नहीं रखा; क्योंकि आप इससे पहले ही आशूरा का रोज़ा रखते थे। और यह उस समय की बात है जब आप उस मामले में जिससे आपको मनाही नहीं की गई थी, अह्ले किताब की सहमति को पसन्द करते थे।

''फत्हुल बारी'' (4/248)

6 – विद्वानों के कलाम (वक्तव्यों) में ऐसी बातें गुज़र चुकी हैं जिनसे पता चलता है कि ''आशूरा'' का दिन मक्का में क़ुरैश के यहाँ और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के यहाँ सुपरिचित और सर्वज्ञात था। वे लोग इसका सम्मान करते थे बल्कि इस दिन रोज़ा भी रखते थे। और स्वयं नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनके साथ इस दिन का रोज़ा रखा। तथा वे लोग इस दिन काबा पर ग़िलाफ चढ़ाते थे। तो इन सब बातों के होते हुए, यह झूठा दावा कहाँ से आ गया कि ''आशूरा'' एक उमवी बिद्अत है ?! जबकि सहीह साबित हदीसों में यह स्पष्ट रूप से वर्णित हैं :

आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा कहती हैं : जाहिलियत के समय काल में क़ुरैश आशूरा का रोज़ा रखते थे, और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम भी इस दिन का रोज़ा रखते थे। फिर जब आप ने मदीना की तरफ हिज्रत किया तो इस दिन का रोज़ा रखा और इसका रोज़ा रखने का हुक्म भी फरमाया। फिर जब रमज़ान के महीने का रोज़ा अनिवार्य हो गया तो आप ने फरमाया : (जो चाहे इस दिन का रोज़ा रखे और जो चाहे न रखे।''

इसे बुखारी (हदीस संख्याः 1794) और मुस्लिम (हदीस संख्याः 1125) ने रिवायत किया है। (और शब्द मुस्लिम के हैं).

अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत है किः जाहिलियत के समय काल के लोग आशूरा के दिन का रोज़ा रखते थे, और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तथा मुसलमानों ने भी रमज़ान का रोज़ा फर्ज़ (अनिवार्य) होने से पहले इस दिन का रोज़ा रखा। फिर जब रमज़ान का रोज़ा फर्ज़ हो गया तो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : (आशूरा अल्लाह के दिनों में से एक दिन है। अतः जो चाहे इस दिन का रोज़ा रखे और जो चाहे न रखे)।

इसे मुस्लिम (हदीस संख्याः 1126) ने रिवायत किया है।

हमने यहाँ इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा की हदीस को राफ़िज़ियों (शीयों) और उनकी मूर्खता पर उनकी पैरवी करनेवालों का खंडन करने के लिए बयान किया है, जिनका यह दावा है कि मक्का में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के आशूरा का रोज़ा रखने की बात केवल आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा ने बयान किया है।

इब्ने अब्दुल बर्र रहिमहुल्लाह कहते हैं :

अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने भी, आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा की रिवायत की तरह, नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से हदीस रिवायत की है। उसे उबैदुल्लाह बिन उमर और अय्यूब ने नाफे से और नाफे ने इब्ने उमर से रिवायत किया है कि उन्हों ने आशूरा के रोज़े के बारे में फरमायाः ''रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उस दिन का रोज़ा रखा और उसका रोज़ा रखने का हुक्म दिया।''

''अत्तम्हीद लिमा फिल मुअत़्त़ा मिनल मआनी वल असानीद'' (7/207)

इमाम नववी रहिमहुल्लाह कहते हैं :

कुल हदीसों के योग से यह निष्कर्ष निकलता है किः जाहिलियत के युग में क़ुरैश के नास्तिक और अन्य लोग, तथा यहूद आशूरा के दिन रोज़ा रखते थे। इस्लाम ने आकर इस रोज़े की पुष्टि की और उसपर ज़ोर दिया। फिर इस दिन का रोज़ा पहले से कम प्रबल रह गया।

''शर्हे मुस्लिम'' (8/9, 10)

अबुल अब्बास क़ुर्तुबी रहिमहुल्लाह कहते हैं :

आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा का कथनः (क़ुरैश जाहिलियत के समय काल में आशूरा का रोज़ा रखते थे) इस बात को दर्शाता है कि इस दिन के रोज़े की वैधता और मान उनके यहाँ सर्वज्ञात था। और वे शायद इस दिन का रोज़ा इस आधार पर रखते थे कि वह इब्राहीम और इस्माईल सलावातुल्लाहि व सलामुहू अलैहिमा की शरीअत से है। क्योंकि वे लोग इन दोनों पैगंबरों से अपने आपको संबंधित करते थे और हज्ज वग़ैरह के बहुत सारे प्रावधानों में इनको आधार बनाते थे।

''अल-मुफहिम लिमा अश्कला मिन तल्खीसि किताबि मुस्लिम'' (3/190-191)

तथा क़ुरैश के इस दिन का रोज़ा रखने के कारणों को विस्तार से जानने के लिएः ''अल-मुफस्सल फी तारीखिल अरब क़ब-लल इस्लाम'' (11/339, 340) देखना चाहिए।

7 – अंत में, हमने आशूरा की फज़ीलत में सहीह हदीसों से जो कुछ बयान किया है कि इस दिन का रोज़ा एक वर्ष के पापों का परायश्चित बन जाता है, और यह कि वह मुहर्रम की दसवीं तारीख़ को आता हैः तो इन तमाम बातों को केवल अह्ले सुन्नत ही नहीं मानते हैं बल्कि ये बातें राफिज़ियों की मोतबर (विश्वसनीय) पुस्तकों में भी आई हैं ! तो फिर यह उनके इस दावे के साथ कैसे मेले खा सकता है कि हमारे यहाँ जो कुछ है वह इस्राईली बातें हैं, यहूदियों से ली गई हैं और उमवी युग की गढ़ी हुई बातें हैं !!?

(1) अबू अब्दुल्लाह अलैहिस्सलाम अपने पिता से रिवायत करते हैं कि अली अलैहिमस्सलाम ने फरमाया : ''आशूरा का रोज़ा रखो - इसी तरह - नौ और दस का; क्योंकि यह एक वर्ष के पापों को मिटा देता है।''

इसे त़ूसी ने ''तह्ज़ीबुल अहकाम'' (4/299) और ''अल-इस्तिब्सार'' ((2/134) में, फैज़ काशानी ने ''अल-वाफी'' (7/13) में, हुर्र आमिली ने ''वसायलुश्शीआ'' (7/337) में, और बरोजरदी ने ''जामे अहादीसुस्शीआ'' (4/474, 475) में रिवायत किया है।

(2) अबुल हसन अलैहिस्सलाम से रिवायत किया गया है कि उन्होंने फरमाया : ''रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने आशूरा के दिन का रोज़ा रखा।''

''तह्ज़ीबुल अहकाम'' (4/29), ''अल-इस्तिब्सार'' (2/134), ''अल-वाफी'' (7/13), ''वसायलुश्शीआ''(7/337), ''जामे अहादीसुस्शीआ'' (9/475).

(3) जाफर से रिवायत किया गया है कि वह अपने पिता से रिवायत करते हैं कि उन्होंने कहा : ''आशूरा के दिन का रोज़ा एक वर्ष के पापों का कफ्फारा है।''

''तह्ज़ीबुल अहकाम'' (4/300), ''अल-इस्तिब्सार'' (2/134), ''जामे अहादीसुस्शीआ'' (9/475), ''अल-हदाईक़ुन्नाज़िरा'' (13/371), काशानी की ''अल-वाफी'' (7/13) और हुर्र आमिली की ''वसायलुश्शीआ'' (7/337).

(4) अली रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि उन्होंने कहा : ''आशूरा के दिन का रोज़ा रखो नौवीं और दसवीं का सावधानी के तौर पर, क्योंकि यह पिछले एक वर्ष के पापों का कफ्फारा है। और अगर किसी को इसका पता न चले यहाँ तक कि खा ले तो उसे चाहिए कि अपना रोज़ा पूरा करे।''

इस रिवायत को शीया मुहद्दिस हुसैन नूरी तबरसी ने ''मुस्तदरकुल वसायल'' (1/594) में और बरोजरदी ने ''जामे अहादीसुस्शीआ'' (9/475) में रिवायत किया है।

(5) इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत है उन्होंने कहा : ''जब तुम मुहर्रम का चाँद देखोः तो तुम दिन गिनो, और जब तुम नौ तारीख की सुबह करोः तो उस दिन का रोज़ा रखो। मैं ने - यानी रावी ने - कहा : क्या इसी तरह मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम रोज़ा रखते थे? उन्होंने कहा : हाँ।''

इस रिवायत को शीया रज़ीउद्दीन अबुल क़ासिम अली बिन मूसा बिन जाफर बिन ताऊस ने अपनी किताब ''इक़बालुल आमाल'' (पृष्ठ संख्याः 554) में, हुर्र आमिली ने ''वसायलुश्शीआ'' (7/347) में, नूरी तबरसी ने ''मुस्तदरकुल वसायल'' (1/594) और ''जामे अहादीसुश्शीआ'' (9/475) में रिवायत किया है।

हमने इन सारी रिवायतों को उनकी तख्रीज (हवाले) समेत अब्दुल्लाह बिन अब्दुल अज़ीज़ की किताब ''मन क़तलल हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु'' से लिया है।

और अल्लाह ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर