शुक्रवार 19 रमज़ान 1445 - 29 मार्च 2024
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वह बैठकर नमाज़ पढ़ता है तो क्या उसके लिए तकबीरतुल एहराम को खड़े होने की हालत में कहना ज़रूरी हैॽ

प्रश्न

मैं बैठकर नमाज़ पढ़ने वाले व्यक्ति के लिए फ़र्ज़ नमाज़ में तक्बीरतुल एहारम के बारे में पूछना चाहता हूँ, क्या उसके लिए अनिवार्य है कि वह खड़े होकर तकबीर कहे फिर बैठेॽ अगर वह खड़े होकर तकबीर कहना भूल गया, और उसने बैठे हुए तकबीर कही, तो क्या उसके लिए नमाज़ को दोहराना ज़रूरी हैॽ मेरे पिता ज़ुहर की सुन्नत बैठकर पढ़ रहे थे हैं; इसलिए कि उनके घुटने में दर्द है। वह रुकूअ और सज्दा तो कर सकते हैं, लेकिन खड़ा होना उनके लिए बड़ा कष्टदायक है। अतः जब उन्हों ने फर्ज़ नमाज़ पढ़ी, तो उसे बैठकर पढ़ी, और तकबीर के लिए खड़े नही हुए, तो क्या उनके ऊपर कोई चीज़ अनिवार्य हैॽ

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है।

सर्व प्रथम :

फ़र्ज़ नमाज़ में खड़ा होना एक रुक्न (स्तंभ) है जिसके बिना नमाज़ सही नहीं होती है। अतः किसी के लिए बैठकर नमाज़ पढ़ना जायज़ नहीं है सिवाय इसके कि वह खड़ा होने में सक्षम न हो।

तथा प्रश्न संख्याः (67934) का उत्तर देखें।

विद्वानों ने फ़र्ज़ (अनिवार्य) नमाज़ में तकबीरतुल एहराम के लिए खड़े होने की अनिवार्यता को स्पष्ट रूप से वर्णन किया है।

अल्लामा नववी रहिमहुल्लाह ने "अल-मजमूअ" (3/296) में फरमाया : ''तकबीरतुल एहराम का उसके समस्त अक्षरों के साथ उसके खड़े होने की स्थिति में कहना अनिवार्य है, अतः यदि उसका कोई एक अक्षर खड़े होन की स्थिति के अलावा में कह दिया तो उसकी नमाज़ फर्ज़ के रूप में स्थापित नहीं हुई।'' समाप्त हुआ।

अल-अखज़री अल-मालिकी ने कहाः ''नमाज़ के फ़राइज़ (अनिवार्य चीज़ों) ये हैं : विशिष्ट (निर्धारित) नमाज़ की नीयत, तकबीरतुल एहराम और उसके लिए खड़ा होना, सूरतुल फ़ातिहा और उसके लिए खड़ा होना, रुकूअ..." उद्धरण समाप्त हुआ।

अल-खरशी रहिमहुल्लाह ने ''शर्ह मुख़्तसर खलील'' (1/264) में नमाज़ के फराइज़ का वर्णन करते हुए फरमाया :

"खड़े होने में सक्षम ऐसा व्यक्ति जो कोई रकअत समाप्त हो जाने के बाद जमाअत की नमाज़ में शामिल होनेवाला न हो उसके लिए, फ़र्ज़ नमाज़ में, तकबीरतुल एहराम के लिए खड़ा होना; चुनाँचे उसे बैठे या झुके हुए होने की अवस्था में कहना पर्याप्त नहीं होगा, नित्यकार्य का अनुसरण करते हुए।'' समाप्त हुआ।

"अल-मौसूअतुल फ़िक़्हिय्या अल-कुवैतिय्या'' (13/220) में है:

"जिस नमाज़ के लिए खड़ा होना फ़र्ज़ है उसमें नमाज़ पढ़ने वाले के लिए खड़े होकर तकबीर (तहरीमा) कहना अनिवार्य है, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इमरान बिन हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु से फरमाया जिन्हें बवासीर की बीमारी थी : (खड़े होकर नमाज़ पढ़ो, यदि तुम इसमें सक्षम न हो तो बैठकर नमाज़ पढ़ो, और यदि इसमें भी सक्षम न हो तो पहलू पर (लेटकर) नमाज़ पढ़ो।'' और नसाई ने इस शब्द की वृद्धि की है : ''यदि तुम ऐसा करने में सक्षम न हो तो चित लेटकर नमाज़ पढ़ो।'' और ‘क़ियाम’ पीठ को सीधा रखने से परिपूर्ण होता है।

अतः तकबीरतुल एहराम को बैठे या झुके होने की हालत में कहना पर्याप्त नहीं होगा। और क़ियाम (खड़ा होने) से अभिप्राय वह क़ियाम है जिसमें वह क़ियाम भी आ जाता है जो क़ियाम के हुक्म (अर्थ) में होता है, ताकि फर्ज़ नमाज़ में उज़्र के कारण बैठने को भी शामिल हो जाए।'' 

रोगी की नमाज़ में नियम यह है कि : उसके ऊपर नमाज़ के उन वाजिबात और अरकान की अदायगी करना अनिवार्य है जिनकी वह ताक़त रखता है, और उनमें से जिसकी वह क्षमता नही रखता है वह उससे समाप्त हो जाएगा।

अतः अगर वह खड़े हो कर नमाज़ को शुरू करने की क्षमता रखता है, तो उसके लिए ऐसा करना अनिवार्य है, फिर यदि उसके लिए खड़ा होना कठिन हो तो वह बैठ जाए।

तथा प्रश्न संख्याः (263252) का उत्तर भी देखें।

"मुख्तसर खलील" अल-मालिकी में आया है : "और अगर वह खड़े होकर फातिहा पढ़ने में असमर्थ है तो बैठ जाएगा।"

अल-हत्ताब ने अपनी व्याख्या में कहा :

"इब्ने अब्दुस्सलाम ने कहा ... और उसमें यह होना चाहिए कि:

अगर वह कुछ भी क़ियाम करने में सक्षम है, तो वह उतना ही करेगा, चाहे वह विशिष्ट रूप से तकबीरतुल एहराम की मात्रा भर हो या उससे अधिक हो; क्योंकि अपेक्षित यह है क़िराअत के साथ खड़ा होना है, यदि वह कुछ क़ियाम या क़िराअत में सक्षम नहीं है तो वह उतना ही करेगा जितना वह कर सकता है, और जो बाक़ी बचा है, वह उससे समाप्त हो जाएगा।'' उद्धरण अंत हुआ।

इब्ने फ़र्हून ने कहा : उनका मतलब यह है कि अगर वह खड़े होकर फ़ातिहा को पूरा करने में असमर्थ है, जबकि वह चक्कर आने या अन्य कारण से बैठने की अवस्था में उससे असमर्थ नहीं है : तो प्रसिद्ध मत यह है कि वह उतना ही करेगा जितना कर सकता है, और शेष हिस्से के लिए खड़ा होना उससे समाप्त हो जाएगा और वह उसे बैठने की स्थिति में करेगा।

(चेतावनी) लेखक के शब्द से यह प्रत्यक्ष होता है कि उससे संपूर्ण रूप से क़ियाम समाप्त हो जाएगा यहाँ तक कि तकबीरतुल एहराम के लिए भी। हालांकि मामला ऐसा नहीं है, सिवाय इसके कि उनका वक्तव्य इस बात के साथ प्रतिबंधित हो कि यदि वह खड़ा हो गया, तो उसके बाद वह बैठने में सक्षम नहीं होगा ...'' संक्षेप के साथ ''मवाहिबुल जलील'' (2/5) से समाप्त हुआ।

"फतावा अल-हिंदिय्या" (1/136) – अहनाफ़ की एक किताब – में है :

"(चौदहवाँ अध्यायः रोगी की नमाज़ के बारे में):

यदि बीमार व्यक्ति खड़े होने में असमर्थ है, तो वह बैठकर नमाज़ पढ़ेगा, वह (उसी आसन में) रुकूअ और सज्दा करेगा। इसी तरह ''अल-हिदायह'' में भी है।

असमर्थता की व्याख्या में सबसे सही कथन यह है कि उसे खड़े होने की वजह से क्षति (हानि) पहुंचती हो...

यदि उसे केवल थोड़ा कष्ट पहुँचता है : तो उस क़ियाम को छोड़ने की अनुमति नहीं है। ‘‘अल-काफ़ी’’ में भी इसी तरह है।

अगर वह पूर्ण क़ियाम के बजाय कुछ ही क़ियाम करने में सक्षम है : तो उसे आदेश दिया जाएगा कि वह जितना क़ियाम करने में सक्षम है उतना ही करे, यहाँ तक कि अगर वह खड़े होकर तकबीर कहने में सक्षम है और क़िराअत करने के लिए खड़े होने में सक्षम नहीं है, या वह केवल कुछ ही क़िराअत करने में सक्षम है पूर्ण क़िराअत में नहीं, तो उसे आदेश दिया जाएगा कि वह खड़े होकर तकबीर कहे और जितनी वह खड़े होकर क़िराअत कर सकता है उतनी क़ियाम की स्थिति में क़िराअत करे, फिर जब वह असमर्थ हो जाए तो बैठ जाए... संक्षेप के साथ समाप्त हुआ।

शैख मुहम्मद मुख्तार अश-शन्क़ीती ने कहा:

"क्षम्य (माज़ूर) व्यक्ति जो खड़े होने में सक्षम नहीं है वह बैठकर नमाज़ पढ़ेगा ...

यदि वह तकबीरतुल एहराम में क़ियाम करने में सक्षम है, तो ऐसा नहीं करेगा कि वह आए और सीधे बैठ जाए और फिर तकबीरतुल एहराम कहे, बल्कि वह खड़े होने की अवस्था में तकबीर कहेगा; क्योंकि उसके लिए संभव है कि वह खड़े होने की हालत में तकबीर कहे, और फिर बैठ जाए यदि उसके लिए खड़ा होना कष्टदायक है। और यदि उसके लिए खड़ा होना संभव नहीं है या दुर्लभ है, जैसे कि लकवाग्रस्त व्यक्ति की स्थिति होती है, तो वह बैठे हुए ही तकबीर कहेगा। लेकिन यदि उसके लिए खड़ा होना संभव है, तो वह खड़ा होगा और कुर्सी को अपने पीछे कर लेगा और इसमें कोई आपत्ति की बात नहीं है। यदि उसे कठिनाई का सामना होता है तो वापस बैठ जाएगा। जैसा कि फ़िक़्ह (धर्म शास्त्र) में यह नियम है कि "आवश्यकता को आवश्यकता भर ही आंका जाएगा'', और उसी से यह नियम निकलता है किः जिस चीज़ की अनुमति किसी आवश्यकता के कारणवश दी गई है उसे आवश्यकता तक ही सीमित रखा जाएगा।

चुनांचे जब उसकी ज़रूरत (आवश्यकता) यह है कि क़ियाम करना उसके लिए मुश्किल है, तो हम कहते हैं कि : "खड़े होकर तकबीर कहो, फिर बैठ जाओ।

लेकिन जब उसकी ज़रूरत यह है कि उसके लिए खड़ा होना दुर्लभ है, तो हम कहते हैं : बैठे हुए ही तकबीर कहो, और इसमें कुछ भी आपत्ति की बात नहीं है।

तो इसके लिए इसका मापदण्ड है और उसके लिए उसका मापदण्ड है। अतः लोगों को इससे सचेत किया जाना चाहिए। क्योंकि आप देखते हैं कि एक व्यक्ति बैठे हुए तकबीर कहता है जबकि वह खड़े होने में सक्षम होता है। कभी-कभार वह खड़ा होता है और कुर्सी लेता है और उसके साथ बाहर निकलता है और उसे उठाए हुए होता है। तो ऐसे आदमी के लिए इस बात की रुख्सत नहीं है कि वह तकबीरतुल एहराम के रुक्न को बैठे होने की हालत में अदा करे। इस पर चेतावानी देना चाहिए। यदि उसके लिए खड़ा होना दुर्लभ है तो हम कहेंगे कि वह बैठ जाए।''

''शर्ह ज़ादुल मुस्तक़ने'' (2/91, अश्शामिला डिजिटल लाइब्रेरी की गणना के अनुसार) से समाप्त हुआ।

उपर्युक्त आधार पर, आपके पिता के लिए अनिवार्य है वह उन नमाज़ों को दोहराएं जिनमें तकबीरतुल एहराम के लिए खड़ा होना भूल गए थे, यदि उन्हें इस बात का ज्ञान था कि तकबीरतुल एहराम के लिए खड़ा होना आवश्यक है।

लेकिन अगर उन्हों ने शरई प्रावधान से अनभिज्ञ होने के कारण बैठकर नमाज़ पढ़ी थी, और वह यह समझते थे कि जिसके लिए बैठने की अनुमति है वह बैठे हुए तकबीरतुल एहारम भी कह सकता है, तो उनके लिए नमाज़ को दोहराना अनिवार्य नही है। तथा प्रश्न संख्याः (45648), (193008) और (50684) के उत्तर देखें।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर