रविवार 28 जुमादा-2 1446 - 29 दिसंबर 2024
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मुसलमान का अपनी गैर-मुस्लिम पत्नी को उसके धार्मिक त्योंहारों को मनाने से रोक देना

प्रश्न

एक मुसलमान व्यक्ति से शादीशुदा कैथोलिक लड़की को अपने धार्मिक पर्वों (त्योहारों) को मनाने की अनुमति क्यों नहीं है? जबकि वह एक मुसलमान से व्याही है और वह अपने धर्म पर स्थिर है। क्या उसके लिए अपनी आस्था के अनुसार पूजा-उपासना करना संभव है?

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

अगर ईसाई लड़की किसी मुसलमान से शादी करने पर सहमत है तो उसे कुछ चीज़ें जान लेनी चाहिए :

1- पत्नी को अल्लाह की अवज्ञा के अलावा में अपने पति का आज्ञा पालन करने का आदेश दिया गया है, इसमें मुसलमान पत्नी और गैर-मुस्लिम के बीच कोई अंतर नहीं है। यदि उसका पति अल्लाह की अवज्ञा के अलावा किसी चीज़ का आदेश देता है तो उसके लिए उसका आज्ञा पालन करना ज़रूरी है। अल्लाह तआला ने पुरूष को यह अधिकार इस लिए दिया है कि वह परिवार का निरीक्षक और ज़िम्मदेार है, और पारिवारिक जीवन इसके बिना ठीक नही हो सकता कि उसके सदस्यों में से एक सदस्य की बात सुनी और मानी जाती हो। लेकिन इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं होता है कि पुरूष अधिकार जमाए, या अपनी पत्नी और संतान के साथ दुष्ट व्यवहार के लिए इस अधिकार का दुरूप्योग करे। बल्कि उसे अच्छाई और सुधार, सलाह और आपसी मश्वरे (परामर्श) की कोशिश करनी चाहिए। लेकिन जीवन ऐसी परिस्थितियों से खाली नहीं होता है जिसके लिए निर्णायक रूख अपनाने की ज़रूरत होती है और ऐसा करना और उसे स्वीकार करना ज़रूरी हो जाता है। अतः ईसाइ लड़की के लिए किसी मुसलमान लड़के से शादी करने का क़दम उठाने से पहले इस सिद्धांत को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए।

2- इस्लाम का किसी ईसाई या यहूदी महिला से शादा को वैद्ध ठहराने का मतलब यह है कि उस महिला से उसके अपने धर्म पर बने रहने के साथ शादी करना है। अतः पति के लिए उसे इस्लाम स्वीकारने पर मजबूर करना जायज़ है और न तो उसे उसकी विशिष्ट उपासना से रोकना जायज़ है। लेकिन उसके लिए उसे घर से बाहर निकलने से रोक देना जायज़ है, भले ही वह चर्च के लिए बाहर निकल रही हो। क्योंकि उसे उसका आज्ञा पालन करने का आदेश दिया गया है, तथा उसके लिए उसे घर के अंदर खुल्लम-खुल्ला बुराई करने जैसे मूर्तियां लगाने और नाक़ूस (घण्टी) बजाने से रोकने का अधिकार है।

तथा इसी में से : नव अविष्कारित त्योहारों को मनाना भी शामिल है, जैसे ईस्टर (यानी मसीह के उठ खड़े होने का उत्सव), क्योंकि इस्लाम के अंदर यह दो एतिबार से एक बुराई (घृणास्पद और अवैद्ध) है : इस एतिबार से कि वह एक बिदअत (नवाचार) है जिसका कोई आधार नहीं - और इसी के समान पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का जन्म दिवस, या मातृ दिवस मनाना भी है -, और दूसरा इस एतिबार से कि वह इस भ्रष्ट मान्यता पर आधारित है कि मसीह की हत्या कर दी गई, उन्हें सूली (क्रूस) पर चढ़ाया गया और क़ब्र में प्रवेश किया गया फिर वह उससे उठ खड़े हुए।

हालांकि सच्चाई यह है कि ईसा अलैहिस्सलाम को क़त्ल नहीं किया गया और न तो उन्हें सूली पर चढ़ाया गया, बल्कि उन्हें ज़िन्दा आसमान पर उठा लिया गया।

प्रश्न संख्या (10277) और (43148) देखें।

पति को यह अधिकार नही है कि वह अपनी ईसाई पत्नी को अपने इस आस्था और विश्वास को त्यागने पर बाध्य करे, परंतु वह उसके बुराई को फैलाने और उसका खुले तौर पर प्रदर्शन करने का इन्कार और खण्डन करेगा। इसलिए उसके अपने धर्म पर बने रहने के अधिकार के बीच और उसके अपने पति के घर में बुराइयों का खुला प्रदर्शन करने के बीच अंतर करना ज़रूरी है। इसी तरह यह भी है कि यदि पत्नी मुसलमान है, और वह किसी चीज़ के वैध होने का विश्वास रखती है, जबकि उसका पति उसके हराम होने की आस्था रखता है, तो उस पति के लिए उसे उससे रोकने का अधिकार है, क्योंकि वह परिवार का प्रभारी है, और उसके लिए ज़रूरी है कि जिस चीज़ को वह बुरा समझता है उसका खण्डन करे।

3- विद्वानों के बहुमत के अनुसार कुफ्फार ईमान लाने (इस्लाम स्वीकारने) के लिए संबोंधित किए जाने के साथ-साथ, शरीअत के फुरूई मसाइल (यानी छोटे-छोटे मुद्दों) की प्रतिबद्धता के भी संबोधित हैं, इसका अर्थ यह होता है कि जो चीज़ मुसलमानों पर हराम और निषिद्ध है वह उन काफिरों के ऊपर भी हराम और वर्जित है, जैसे- शराब पीना, सुअर का मांस खाना, बिदअतें (नवाचार) पैदा करना, या उनका उत्सव मनाना। पति के ऊपर अनिवार्य है कि वह अपनी पत्नी को इनमें से कोई भी चीज़ करने से रोक दे। क्योंकि अल्लाह तआला का यह कथन सर्वसामान्य है :

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا قُوا أَنْفُسَكُمْ وَأَهْلِيكُمْ نَاراً وَقُودُهَا النَّاسُ وَالْحِجَارَةُ [التحريم :6]

''हे ईमान वालो, तुम अपने आपको और अपने परिवार को ऐसी आग से बचाओ जिसके ईंधन इन्सान और पत्थर हैं।'' (सूरतुत-तहरीम : 6)

इससे केवल वही चीज़ अपवाद (अलग) है जो उसकी आस्था और उसके धर्म में वैध उपासना है, जैसे उसकी नमाज़ और अनिवार्य रोज़ा। पति इसमें उससे कोई छेड़-छाड़ नहीं करेगा। और शराब पीना, सुअर का गोश्त खाना और नव अविष्कारित त्योंहारों को मनाना, जिन्हें दरअसल उनके विद्वानों और पादरियों ने गढ़ लिया है, उसके धर्म का हिस्सा नहीं है।

इब्नुल क़ैयिम रहिमहुल्लाह कहते हैं :

जहाँ तक चर्च और गिर्जा घर के लिए निकलने का मुद्दा है तो वह (पति) उसे रोक सकता है, इमाम अहमद ने स्पष्टता के साथ उस आदमी के बारे में उल्लेख किया है जिसके ईसाई बीवी है, कि : वह उसे ईसाइयों के त्योहार य चर्च के लिए बाहर निकलने की अनुमति नहीं देगा।

तथा उन्हों ने उस आदमी के बारे में, जिसके पास ईसाई लौण्डी होती है जो उससे अपने त्योंहारों, चर्च और समारोहों में भाग लेने के लिए जाने की अनुमति मांगती है, फरमाया : वह उसे इसकी अनुमति नहीं देगा।

इब्नुल क़ैयिम कहते हैं :

इसका कारण यह है कि वह कुफ्र के कारणों और उसके प्रतीकों पर उसका सहयोग नहीं करेगा और न उसे इसकी अनुमति प्रदान करेगा।

तथा उन्हों ने यह भी कहा :

उसके लिए यह अधिकार नहीं है कि उसे उसके उस रोज़े से रोक दे जिसके अनिवार्य होने की वह आस्था रखती है, अगरचे वह उस समय उससे लाभ उठाने से वंचित रह जाए। तथा वह उसे अपने घर में पूर्व की दिशा में नमाज़ पढ़ने से भी नहीं रोकेगा, जबकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने नजरान के ईसाइयों के वफद (प्रतिनिधिमंडल) को अपनी मस्जिद के अंदर उनके अपने क़िब्ला की ओर नमाज़ पढ़ने पर सक्षम किया था।'' ''अहकामों अहलिज़्ज़म्मा'' (2/819-823) से अंत हुआ।

तथा नजरान के ईसाइयों के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की मस्जिद में नमाज़ पढ़ने का उल्ले इब्नुल क़ैयिम रहिमहुल्लाह ने अपनी किताब ''ज़ादुल मआद'' (3/629) में भी किया है। उसके मुहक़्क़िक़ ने कहा है कि :उसके रिवायत करने वाले लोग ''सिक़ात'' (भरोसेमंद) हैं, लेकिन उसके अंदर इंक़िताअ पाया जाता है।'' अंत हुआ। इसका मतलब यह है कि उसकी सनद ज़ईफ (कमज़ोर) है।

तथा प्रश्न संख्या (3320) देखें।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर