हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
अज्ञानता का दावा करने और उस को बहाना बनाने के मामले में विस्तार है, और हर व्यक्ति अज्ञानता के कारण क्षम्य नही समझा जायेगा। अत: वे मामले जिन्हें इस्लाम लेकर आया है और पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उन्हें लोगों से खोल-खोल कर बयान कर दिया है और अल्लाह की किताब ने उन्हें स्पष्ट कर दिया है और वे मुसलमानों के बीच आम और प्रचलित हो चुके हैं उन में अज्ञानता का दावा स्वीकार नहीं किया जायेगा, विशेष रूप से जिसका संबंध अक़ीदा (आस्था व विश्वास) और धर्म के मूल सिद्धान्तों से है, क्योंकि अल्लाह अज्ज़ा व जल्ल ने अपने पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को इसीलिए भेजा था कि वह लोगों के लिए उनके धर्म को स्पष्ट रूप से बयान कर दें और उन के लिए उस की व्याख्या कर दें, और आप ने खुले तौर पर उस का प्रचार कर दिया और उम्मत के लिए उस के धर्म की वास्तविकता को स्पष्ट कर दिया और उस के लिए हर चीज़ की व्याख्या कर दी, और उसे एक प्रकाशवान मार्ग पर छोड़ कर गये जिस की रात भी दिन की तरह (रोशन) है, और अल्लाह की किताब में हिदायत (मार्गदर्शन) और प्रकाश है। फिर अगर कुछ लोग ऐसी चीज़ों में अज्ञानता का दावा करें जिन का धर्म से होना आवश्यक रूप से सर्वज्ञात है, और वह मुसलमानों के बीच प्रचलित और फैली हुई हैं, जैसे कि शिर्क और सर्वशक्तिमान अल्लाह के अलावा की इबादत से अज्ञानता का दावा करना, या यह दावा करना कि नमाज़ अनिवार्य नहीं है, या यह दावा कि रमज़ान का रोज़ा अनिवार्य नहीं है, या यह कि ज़कात फर्ज़ नहीं है, या यह कि सामर्थ्य रखने के बावजूद हज्ज करना अनिवार्य नहीं है, तो ये और इस तरह की चीज़ों में ऐसे आदमी की तरफ से अज्ञानता का दावा स्वीकार नहीं किया जायेगा जो मुसलमानों के बीच रहता है ; इसलिए कि ये चीज़ें मुसलमानों के बीच सर्वज्ञात और जानी पहचानी हैं। और इन का इस्लाम धर्म से होना आवश्यक रूप से मालूम और सर्वज्ञात है और मुसलमानों के बीच प्रचलित है, अत: इस में अज्ञानता का दावा स्वीकार नहीं होगा। इसी तरह यदि कोई व्यक्ति यह दावा करे कि वह उन चीज़ों को नहीं जानता है जो कुछ मुश्रेकीन (अनेकेश्वरवादी) क़ब्रों या मूर्तियों के पास करते हैं, जैसे कि मृतकों को पुकारना, उन से फर्याद करना, उन के लिए जानवर की बलि देना, उन के लिए मन्नत मानना, या मूर्तियों या सितारों या पेड़ों या पत्थरों के लिए जानवर ज़िब्ह करना, या मृतकों या मूर्तियों या जिन्नों या फरिश्तों या ईश्दूतों से शिफा (रोगनिवारण) या दुश्मनों के विरूद्ध विजय मांगना . . तो इन सभी चीज़ों का धर्म से होना आवश्यक रूप से सर्वज्ञात है और यह कि ऐसा करना शिर्क अकबर (बड़ा शिर्क) है। जबकि अल्लाह तआला ने उसे अपनी किताब में स्पष्ट कर दिया है, और उसके पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने भी उसे स्पष्ट रूप से बयान कर दिया है, और आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम तेरह साल तक मक्का मुकर्रमा में लोगों को इस शिर्क से डराते और सावधान करते रहे, और इसी तरह दस साल मदीना में रहे और उन के लिए एक मात्र अल्लाह के लिए इबादत को विशिष्ट और खालिस करने की अनिवार्यता को स्पष्ट करते रहे और उन पर अल्लाह तआला की किताब तिलावत करते रहे, उदाहरण के तौर पर अल्लाह तआला का यह फरमान:
"और तुम्हारे रब ने फैसला कर दिया कि तुम मात्र उसी की इबादत करना।" (सूरतुल इस्रा : 23)
तथा अल्लाह तआला का यह फरमान :
"हम तेरी ही इबादत करते हैं और तुझ ही से मदद मांगते हैं।" (सूरतुल फातिहा : 5)
और सर्वशक्तिमान अल्लाह का यह फरमान कि :
"उन्हें इस के सिवाय कोई हुक्म नहीं दिया गया कि केवल अल्लाह की इबादत करें, उसी के लिए धर्म (उपासना) को खालिस करते हुए, यकसू हो कर।" (सूरतुल बैय्यिना : 5)
और अल्लाह सुब्हानहू का यह फरमान कि :
"तो आप केवल अल्लाह ही की इबादत करें उसी के लिए दीन को खालिस करते हुए। सुनो! अल्लाह ही के लिए ख़ालिस दीन (इबादत करना) है।" (सूरतुज़्ज़ुमर : 2-3)
तथा अल्लाह तआला का यह फरमान :
"आप कह दीजिये कि नि:सन्देह मेरी नमाज़ और मेरी समस्त उपासनायें (इबादतें) और मेरा जीना और मेरा मरना ; ये सब केवल अल्लाह ही के लिए हैं जो सारे संसार का पालनहार है। उस का कोई साझी नहीं और मुझे इसी का आदेश हुआ है और मैं सब मानने वालों में से पहला हूँ।" (सूरतुल अन्आम : 162-163)
तथा अल्लाह सुब्हानहु व तआला रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को अपने इस कथन के द्वारा संबोधित करते हुए फरमाता है :
"बेशक हम ने आप को कौसर (और बहुत कुछ) दिया है। अत: आप अपने रब के लिए नमाज़ पढ़ें और कुर्बानी करें।" (सूरतुल कौसर : 1-2)
तथा अल्लाह तआला के इस फरमान के द्वारा :
"और यह कि मस्जिदें केवल अल्लाह ही के लिए (खास) हैं, तो अल्लाह के साथ किसी दूसरे को न पुकारो।" (सूरतुल जिन्न : 18)
और अल्लाह सुब्हानहु व तआला के इस फरमान के द्वारा :
"और जो इंसान अल्लाह के साथ किसी दूसरे देवता को पुकारे जिस का उस के पास कोई सुबूत नहीं तो उस का हिसाब उस के रब के ऊपर ही है। बेशक काफिर लोग कामयाबी से वंचित हैं।" (सूरतुल मोमिनून : 117)
इसी प्रकार धर्म का उपहास करना, उसे लांक्षित और निन्दित करना, उस का मज़ाक़ उड़ाना, उसे गाली देना और उस की भर्त्सना करना; ये सारी चीज़ें कुफ्र अक्बर (घोर नास्तिकता) में से हैं और जिन के बारे में किसी आदमी का अज्ञानता का दावा क्षमा के योग्य नहीं है, क्योंकि इस्लाम धर्म की यह बात आवश्यक रूप से सर्वज्ञात है कि धर्म को गाली देना (बुरा भला कहना) या पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को गाली देना कुफ्र अकबर में से है। और इसी तरह धर्म का उपहास करना और मज़ाक़ उड़ाना भी है, अल्लाह तआला का फरमान है :
"आप कह दीजिए कि क्या तुम अल्लाह, उसकी आयतों और उस के रसूल का मज़ाक़ उड़ाते थे? अब बहाने न बनाओ, नि:सन्देह तुम ईमान के बाद (फिर) काफिर हो गए।" (सूरतुत तौबा : 65-66)
अत: विद्वानों पर, चाहे वे किसी भी स्थान पर रहते हों, यह अनिवार्य है कि वे इस बात को लोगों के बीच प्रसारित करें और इसे प्रकाश में लायें, ताकि जनसाधारण के लिए कोई बहाना न रह जाये और ताकि यह महत्वपूर्ण मामला उन के बीच सार्वजनिक और प्रचलित हो जाये, और ताकि वे लोग मृतकों से संबंध जोड़ना (आश्रय करना) और उनसे मदद मांगना छोड़ दें, चाहे वे मिस्र या सीरिया या ईराक़ या मदीना में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की क़ब्र के पास, या मक्का में या इस के अलावा किसी भी स्थान पर हों, और ताकि हाजी लोग सावधान हो जायें तथा दूसरे लोग भी सावधान हो जायें और अल्लाह के धर्म और उस की शरीअत को जान लें। क्योंकि विद्वानों का चुप रहना जनसाधारण के विनाश और उन की अज्ञानता का कारण है, इसलिए विद्वानों पर चाहे वे कहीं भी हों, यह अनिवार्य है कि वे लोगों तक अल्लाह के दीन को पहुँचायें, उन्हें अल्लाह की तौहीद (एकेश्वरवाद) और अल्लाह के साथ शिर्क के भेदों की जानकारी उपलब्ध करायें ताकि वे ज्ञान और समझ बूझ के आधार पर शिर्क को त्याग दें तथा समझ बूझ के साथ केवल अल्लाह तआला की उपासना करें। इसी प्रकार "बदवी" की क़ब्र, या हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु की क़ब्र के पास, या शैख अब्दुल क़ादिर जीलानी की क़ब्र के पास, या मदीना में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की क़ब्र के पास, या इनके अलावा किसी दूसरे की क़ब्र के पास जो कुछ होता है उस पर चेतावनी देना अनिवार्य है, और यह कि लोगों को यह बात मालूम हो जाये कि इबादत एकमात्र अल्लाह का अधिकार है उस में किसी और का कुछ भी अधिकार नहीं है, जैसा कि अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल का फरमान है :
"उन्हें इस के सिवाय कोई हुक्म नहीं दिया गया कि केवल अल्लाह की इबादत करें, उसी के लिए धर्म को खालिस करते हुए, यकसू हो कर।" (सूरतुल बैय्यिना : 5)
और अल्लाह सुब्हानहु का यह फरमान कि :
"तो आप केवल अल्लाह ही की इबादत करें उसी के लिए दीन को शुद्ध (खालिस) करते हुए। सुनो! अल्लाह ही के लिए ख़ालिस दीन (इबादत करना) है।" (सूरतुज़्ज़ुमर : 2-3)
और अल्लाह सुब्हानहु व तआला ने फरमाया :
"और तुम्हारे रब ने फैसला कर दिया कि तुम मात्र उसी की इबादत करना।" (सूरतुल इस्रा : 23) अर्थात् तुम्हारे रब ने हुक्म दिया है।
अत: सभी इस्लामी देशों में और सभी मुस्लिम अल्पसंख्यक छेत्रों में और हर जगह विद्वानों पर अनिवार्य है कि वे लोगों को अल्लाह की तौहीद (एकेश्वरवाद) की शिक्षा दें, उन्हें अल्लाह तआला की इबादत के अर्थ से अवगत करायें और उन्हें सर्वशक्तिमान अल्लाह के साथ शिर्क करने से सावधान करें जो कि महा पाप है, और अल्लाह तआला ने मानव जाति और जिन्नों को इस लिए पैदा किया है कि वे मात्र उसी की इबादत करें और उन्हें इस का हुक्म दिया है। अल्लाह सुब्हानहु व तआला का फरमान है :
"मैं ने जिन्नात और मनुष्य को मात्र इसलिए पैदा किया है कि वे मेरी उपासना करें।" (सूरतुज़्ज़ारियात : 56)
और उस की इबादत का मतलब : उस का आज्ञा पालन करना और उस के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का आज्ञा पालन करना, और उस के लिए इबादत को विशिष्ट और खालिस करना और दिलों को उसी की ओर केन्द्रित रखना है, अल्लाह तआला का फरमान है :
"हे लोगो! अपने उस पालनहार की इबादत करो जिस ने तुम को और तुम से पहले के लोगों को पैदा किया ताकि तुम परहेज़गार हो जाओ।" (सूरतुल बक़रा : 21)
जहाँ तक उन मसायल का संबंध है जो गुप्त रह जाते हैं, जैसे कि मामलात से संबंधित कुछ मसायल, और नमाज़ के कुछ मसायल, और रोज़े के कुछ मसायल तो इन में एक अनजाना आदमी माज़ूर (क्षम्य) समझा जायेगा, जैसाकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उस आदमी को क्षम्य समझा जिस ने एक जुब्बा (चोगा) में एहराम बांध रखा था और सुगंध लगा रखा था, तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उस से कहा कि : "तुम जुब्बा उतार दो, और इस सुगंध को अपने शरीर से धो डालो, और अपने उम्रा में भी उसी तरह करो जिस तरह कि तुम अपने हज्ज में करते हो।" तथा आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उस की अज्ञानता के कारण उसे फिद्या का हुक्म नहीं दिया। इसी तरह कुछ मसायल जो गुप्त रह जाते हैं उन में जाहिल (अनजाने) आदमी को सिखाया जायेगा और उसे उस से अवगत कराया जायेगा, लेकिन जहाँ तक अक़ीदा के सिद्धान्तों, इस्लाम के स्तम्भों, प्रत्यक्ष रूप से हराम और निषिद्ध चीज़ों का संबंध है तो इन में मुसलमानों के बीच रहने वाले किसी भी मुसलमान से अज्ञानता का दावा स्वीकार नहीं किया जायेगा। यदि मुसलमानों के बीच रहने वाला कोई आदमी यह कहे कि मैं नहीं जानता की ज़िना (व्यभिचार) हराम (निषिद्ध) है, तो उसे क्षम्य नहीं समझा जायेगा, या कहे कि मुझे नहीं पता कि माता पिता की अवज्ञा हराम है तो उस का यह बहाना क्षम्य नहीं होगा बल्कि ऐसे आदमी की पिटाई की जायेगी और उसे दण्डित किया जायेगा, या वह कहे कि मैं नहीं जानता की समलैंगिकता हराम है तो उस का बहाना नहीं चलेगा, क्योंकि ये ऐसी बातें हैं जो इस्लाम में मुसलमानों के बीच विदित और सर्वज्ञात हैं।
लेकिन अगर वह किसी ऐसे देश में है जो इस्लाम से दूर है या वह अफ्रीक़ा के जंगलों में है जिस के आस पास मुसलमान नही पाये जाते हैं, तो ऐसे आदमी से अज्ञानता का दावा स्वीकार किया जा सकता है, और अगर वह इसी हालत पर मर जाता है तो उस का मामला अल्लाह की तरफ है, और उस का हुक्म अह्ले फत्रह (दो सन्देष्टाओं के बीच की अवधि के लोगों) का हुक्म है, और उन के बारे में सही बात यह है कि क़ियामत के दिना उन का परीक्षण किया जायेगा, अगर वे मान लेते हैं और आज्ञा पालन करते हैं तो स्वर्ग में भर्ती किये जायेंगे और अगर वे अवहेलना और अवज्ञा करते हैं तो नरक में जायेंगे, परन्तु जो आदमी मुसलमानों के बीच रहता है और अल्लाह के साथ कुफ्र के काम करता है और सर्वज्ञात वाजिबात को छोड़ देता है तो वह क्षमा के योग्य (क़ाबिले मुआफी) नहीं है, क्योंकि मामला बिल्कुल स्पष्ट और खुला हुआ है और अल्लाह का शुक्र है कि मुसलमान मौजूद हैं, और वे रोज़ा रखते हैं और हज्ज करते हैं, और ये सभी चीज़ें मुसलमानों के बीच सर्वज्ञात और प्रचलित हैं, अत: ऐसी चीज़ों में अज्ञानता का दावा करना एक असत्य और झूठा दावा है, और अल्लाह तआला ही से मदद का प्रश्न है।