हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
पहला :
इस मुद्दे के बारे में विद्वानों रहिमहुमुल्लाह के बीच प्रसिद्ध मतभेद है। अधिकांश विद्वानों का मानना है कि क़ुर्बानी सुन्नत है, अनिवार्य नहीं है।
हनफिय्या और एक रिवायत के अनुसार इमाम अहमद, जिसे शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या ने अपनाया है, इस बात की ओर गए हैं कि वह क्षमता वाले व्यक्ति के लिए अनिवार्य है।
इब्ने कुदामा रहिमहुल्लाह फरमाते हैं:
“अधिकांश विद्वानों का मानना है कि क़ुर्बानी मुअक्कदा सुन्नत है, अनिवार्य नहीं है।
यह अबू बक्र, उमर, बिलाल और अबू मसऊद अल-बदरी – रज़ियल्लाहु अन्हुम – से वर्णित है। यही कथन सुवैद बिन ग़फला, सईद इब्नुल-मुसैयिब, अलक़मा, अस्वद, अता, शाफेइ, इसहाक़, अबू सौर और इब्नुल-मुंज़िर का भी है। रबीआ, मालिक, सौरी, औज़ाई, लैस और अबू हनीफा का कहना है कि : यह अनिवार्य है। क्योंकि अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु ने रिवायत किया है कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "जिसके पास क्षमता हो और वह क़ुर्बानी न करे, तो वह हमारी ईदगाह के निकट न आए।" तथा मिखनफ़ बिन सुलैम से वर्णित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः "ऐ लोगो, प्रत्येक घर वाले पर, प्रत्येक वर्ष एक क़ुर्बानी और एक अतीरह (रजब के महीने में दी जाने वाली बलि) अनिवार्य है।”
हमारा प्रमाण वह हदीस है जिसे दाराकुत्नी ने अपनी इस्नाद के साथ इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "तीन चीजें हैं जो मेरे लिए अनिवार्य हैं, लेकिन वे तुम्हारे लिए स्वेच्छिक हैं।” और एक रिवायत में है किः “वित्र, क़ुर्बानी और फज्र की दो रकअतें (सुन्नतें)।”
तथा इसलिए कि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : "जो व्यक्ति क़ुर्बानी करना चाहे, तो जब (ज़ुल-हिज्जा के) दस दिन शुरू हो जाएं तो वह अपने बालों और त्वचा से कुछ भी न काटे।” इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने क़ुर्बानी को इरादा (इच्छा) पर लंबित किया है, और वाजिब को इरादा पर लंबित नहीं किया जाता है।”
“अल-मुग़्नी” (11/95) से अंत हुआ।
दूसरा:
विद्वानों के प्रत्येक समूह ने अपने विचारों के सबूत के रूप में कई प्रमाणों से दलील पकड़ी है, लेकिन उनकी इस्नाद आपत्ति रहित नहीं हैं, या उन से दलील पकड़ने में विवाद से मुक्त नहीं है। हम यहां केवल सबसे महत्वपूर्ण मर्फू हदीसों की चर्चा करेंगेः
क़ुर्बानी को अनिवार्य कहने वाले लोगों की पहली हदीस:
अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस है कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "जिसके पास क्षमता हो और वह क़ुर्बानी न करे, तो वह हमारी ईदगाह के निकट न आए।" इसे इब्ने माजा [हदीस संख्याः 3123] ने रिवायत किया है।
हदीस के इमामों (प्रमुख विद्वानों) के एक समूह ने यह स्वीकार नहीं किया है कि यह हदीस मर्फू है और उन्हों ने इसे पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के कथन के बजाय अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु का कथन करार दिया है।
बैहक़ी ने अपनी सुनन (9/260) में कहा है : “मुझे अबू ईसा तिर्मिज़ी से यह बात पहुंची है कि उन्हों ने कहा : अबू हुरैरा से वर्णित हदीस के संबंध में सही बात यह है कि वह मौक़ूफ़ (यानी सहाबी का शब्द) है। उन्हों ने कहाः इसे जाफर बिन रबीआ और अन्य लोगों ने अब्दुर्रहमान अल-आरज से और उन्हों ने अबू हुरैरा से मौक़ूफ़ हदीस के रूप में रिवायत किया है।” उद्धरण का अंत हुआ।
हाफिज़ इब्ने हजर ने कहा : “इसे इब्ने माजा और अहमद ने रिवायत किया है और उसके रिवायत करने वाले लोग विश्वस्त हैं, लेकिन उसके मर्फू या मौक़ूफ़ होने में मतभेद है। और मौक़ूफ़ होना सही होने के अधिक संभावित है। यह तहावी और अन्य ने कहा है। इसके बावजूद, यह स्पष्ट रूप से यह नहीं दर्शाता है कि क़ुर्बानी करना अनिवार्य है।” “फत्हुल-बारी” (12/98) से अंत हुआ।
इस हदीस के मौक़ूफ़ होने को इब्ने अब्दुल बर्र ने और अब्दुल-हक़ ने “अल-अहकाम अल-वुस्ता” (4/127) में, मुंज़िरी ने “तर्गीब वत् तर्हीब” में और इब्ने अब्दुल हादी ने “अत्-तनक़ीह” (2/498) में राजेह करार दिया है। देखें: “हाशिया मुहक़्क़िक़ी सुनन इब्ने माजा” (4/303)।
दूसरी हदीसः मिखनफ़ बिन सुलैम से वर्णित अबू रमला की मर्फ़ू हदीस हैः "ऐ लोगो, प्रत्येक घर वाले पर, प्रत्येक वर्ष एक क़ुर्बानी और एक अतीरह (रजब के महीने में दी जाने वाली बलि) अनिवार्य है।” इसे अबू दाऊद (हदीस संख्या : 2788), तिर्मिज़ी (हदीस संख्या : 1596) और इब्ने माजा (हदीस संख्या : 3125) ने रिवायत किया है।
अतीरहः एक बलिदान है जिसे वे रजब के महीने में पेश करते थे। इसे “रजबिय्या” के नाम से भी जाना जाता था।
इस हदीस को विद्वानों रहिमहुमुल्लाह के एक समूह ने ज़ईफ़ (कमज़ोर) कहा है, क्योंकि अबू रमलह जिनका नाम आमिर है, अज्ञात हैं।
खत्ताबी ने कहा : “यह हदीस ज़ईफ है, और अबू रमला अज्ञात हैं।”
“मआलिमुस सुनन” (2/226) से अंत हुआ।
जैलई ने कहा : “अब्दुल हक़ ने कहा : इसकी इस्नाद ज़ईफ है। इब्नुल क़त्तान ने कहा : इस हदीस के साथ समस्या यह है कि अबू रमला, जिनका नाम आमिर है उनकी स्थिति अज्ञात है। वह केवल इसी रिवायत के लिए जाने जाते हैं, जिसे उनसे इब्ने औन रिवायत करते हैं।” “नस्बुर रायह” (4/211) से अंत हुआ।
क़ुर्बानी को मुस्तहब (स्वेच्छिक) कहने वाले लोगों ने कई मर्फू हदीसों से दलील पकड़ी है, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण वे दो हदीसें हैं जिन्हें इब्ने कुदामा रहिमहुल्लाह ने उल्लेख किया है।
पहली हदीसः इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा की हदीस है कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : “तीन चीजें हैं जो मेरे लिए अनिवार्य हैं, लेकिन तुम्हारे लिए वे स्वेच्छिक हैं : वित्र, बलिदान (क़ुर्बानी) और चाश्त की नमाज़।” इसे अहमद (हदीस संख्या : 2050) और बैहक़ी (2/467) ने रिवायत किया है।
इस हदीस को कई पहले और बाद के प्रमुख विद्वानों ने ज़ईफ़ करार दिया है। इब्ने हजर रहिमहुल्लाह कहते हैं :
“इस हदीस का आधार अबू जनाब अल-कलबी पर है जो कि इसे इक्रिमा से रिवायत करते हैं, और अबू जनाब एक ज़ईफ कथाकार हैं और मुदल्लिस भी हैं और उन्हों ने इसे “अन्अना” के शब्द के साथ रिवायत किया है। अहमद, बैहक़ी, इब्नुस-सलाह, इब्नुल जौज़ी और नववी इत्यादि जैसे प्रमुख विद्वानों ने इस हदीस को ज़ईफ माना है।”
“अत-तल्खीसुल हबीर” (2/45) से समाप्त हुआ। तथा यह भी देखें : (2/258)।
दूसरी हदीसः उम्मे सलमह की हदीस है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : ''जब (ज़ुल-हिज्जा के) दस दिन शुरू हो जाएं और तुम में से कोई क़ुर्बानी करना चाहे, तो वह अपने बाल और त्वचा में से किसी चीज़ को न छुए।'' इसे मुस्लिम (हदीस संख्या : 1977) ने रिवायत किया है।
इमाम शाफेई ने कहा : “यह इस बात का प्रमाण है कि क़ुर्बानी करना अनिवार्य नहीं है, क्योंकि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "और वह इरादा करे।" चुनांचे आपने उसे उसकी इच्छा से संबंधित किया है। यदि वह अनिवार्य होता, तो आप इस तरह कहते कि : तो वह अपने बालों में से कुछ भी न छुए यहां तक कि वह क़ुर्बानी कर ले।”
“अल-मजमूअ” (8/386) से अंत हुआ।
लेकिन यह इस्तिदलाल, चर्चा के अधीन है, क्योंकि इच्छा के आश्रित बनाना अनिवार्य न होने का प्रमाण नहीं है।
शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने फरमाया :
“मेरे विचार में, इच्छा के हवाले करना अनिवार्यता के विपरीत नहीं है, अगर उसपर प्रमाण स्थापित है। पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मीक़ातों के बारे में फरमाया : "वे (मीक़ात) उन (मीक़ात वालों) के लिए हैं तथा उनके अलावा लोगों में से उन (मीक़ातों) से गुज़रने वाले लोगों के लिए हैं, जो हज्ज और उम्रा करना चाहते हैं।” इसका मतलब यह नहीं है कि हज्ज और उम्रा किसी अन्य प्रमाण के आधार पर अनिवार्य नहीं हैं। ... तथा क़ुर्बानी उस व्यक्ति के लिए अनिवार्य नहीं है जो इसकी क्षमता नहीं रखता है। इसलिए वह उसको चाहने वाला नहीं है। इसलिए इस संबंध में लोगों को सक्षमता और अक्षमता के एतिबार से उसको चाहने वाले और न चाहने वाले में विभाजित करना सही है।”
"अहकामुल उज़्हिया वज़्ज़कात" (पृष्ठः 47) से समाप्त हुआ।
निष्कर्ष : यह कि क़ुर्बानी को अनिवार्य करने वाली हदीसों के बारे में कुछ आपत्ति है, अगरचे कुछ विद्वानों ने इनमें से कुछ हदीस को हसन कहा है।
यही मामला उन हदीसों का भी है जो इसके मुस्तहब होने को स्पष्ट करती हैं, बल्कि वे इस्नाद के एतिबार से अधिक ज़ईफ़ (कमज़ोर) हैं।
इसीलिए शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने अपनी पुस्तिकाः “अहकामुल उज़्हिया वज़्ज़कात" के अंत में फरमाया :
“ये विद्वानों के विचार और उनके प्रमाण हैं, जिन्हें हमने इस्लाम धर्म में क़ुर्बानी की स्थिति और उसके महत्व को उजागर करने के लिए उल्लेख किया है। प्रत्येक दृश्य के बारे में प्रमाण लगभग बराबर हैं, और सावधानी का पहलू (दृष्टिकोण) यह है कि अगर कोई इसकी क्षमता रखता है तो इसे न छोड़े, क्योंकि इसमें अल्लाह की महिमा, ज़िक्र और निश्चित रूप से दायित्व का निर्वहन है।” अंत हुआ।
तीसरा :
क़ुर्बानी के अनिवार्य न होने के कथन की दो चीजें समर्थन करती हैं :
पहलीः “अल-बराअतुल असलिय्या” (अर्थात मूल सिद्धांत यह है कि कोई चीज़ अनिवार्य नहीं है यहां तक कि अनिवार्य होने का कोई प्रमाण आ जाए) अतः जब अनिवार्य होने का कोई ठोस प्रमाण नहीं है जो आपत्ति रहित हो, तो मूल सिद्धांत यह है कि यह अनिवार्य नहीं है।
शैख इब्ने बाज रहिमहुल्लाह ने फरमाया : क़ुर्बानी का हुक्म यह है कि वह सक्षमता के साथ सुन्नत है, वह अनिवार्य नहीं है। क्योंकि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम दो चितकबरे मेंढों की क़ुर्बानी करते थे। तथा सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के जीवनकाल के दौरान और आपकी मृत्यु के बाद और इसी तरह उनके बाद मुसलमान क़ुर्बानी करते रहे हैं, और शरई प्रमाणों में कोई ऐसा प्रमाण वर्णित नहीं है जो उसकी अनिवार्यता को इंगित करता हो, और उसके अनिवार्य होने का कथन एक कमज़ोर मत है।”
“मजमूओ फतावा इब्ने बाज़” (18/36) से अंत हुआ।
दूसराः सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम से वर्णति सहीह आसार
अबू बक्र और उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा और अन्य से सही रिपोर्टों में प्रमाणित है कि वे क़ुर्बानी नहीं करते थे, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि लोग यह सोचें कि यह अनिवार्य है।
बैहक़ी ने “मारिफतुस-सुनन वल-आसार” (14/16, संख्याः 18893) में अबू सरीहा से रिवायत किया है कि उन्होंने कहा : “मैंने अबू बक्र और उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा का समय पाया, वे मेरे पड़ोसी थे, और वे दोनों क़ुर्बानी नहीं करते थे।”
इसके बाद बैहक़ी ने कहाः “और किताबुस-सुनन में हमें सुफयान बिन सईद सौरी की हदीस से रिवायत किया गया है, जिसे वह अपने पिता तथा मुतर्रिफ और इसमाइल के माध्यम से शाबी से रिवायत करते हैं, और उनकी कुछ हदीसों में है किः क्योंकि उन्हों ने नापसंद किया कि उनका अनुसरण किया जाए।”
यह भी देखें : “अस-सुनन अल-कुब्रा” (9/444)।
नववी ने “अल-मजमू” (8/383) में कहा : “वह असर (रिपोर्ट) जो अबू बक्र और उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित हैः उसे बैहक़ी वग़ैरह ने हसन इस्नाद के साथ रिवायत किया है।” उद्धरण का अंत हुआ।
हैसमी ने कहा : “इसे तब्रानी ने “अल-मोजमुल कबीर” में रिवायत किया है और उसके रिवायत करने वाले सही हदीसों के रिवायत करने वाले लोग हैं।”
“मजमूउज़-ज़वाइद” (4/18) से अंत हुआ। इसे शैख अल्बानी ने “अल-इर्वा” (4/354) में सही कहा है।
बैहक़ी (9/445) ने अपनी इस्नाद के साथ अबू मसऊद अल-अंसारी से रिवायत किया है (कि उन्हों ने कहा) : मैं क़ुर्बानी करने से उपेक्षा करता हूं जबकि मैं इसमें सक्षम होता हूं, ताकि ऐसा न हो कि मेरे पड़ोसी यह सोचें कि यह मेरे लिए ज़रूरी है।” अल्बानी ने “अल-इर्वा” में इसे भी सही करार दिया है।