शनिवार 20 जुमादा-2 1446 - 21 दिसंबर 2024
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बिस्मिल्लाह की व्याख्या और उसके साथ क़ुरआन का पाठ आरंभ करने का हुक्म

प्रश्न

बसमलह (यानी बिस्मिल्लाहिर्-रहमानिर्-रहीम कहने) का अर्थ क्या हैॽ

क्या बसमलह को सूरत के मध्य से पढ़ा जाएगाॽ और क्योंॽ तथा “इक़्रा बिस्मि रब्बिका” (पढ़ो अपने पालनहार के नाम से) [सुरतुल अलक़ 96: 1] का क्या मतलब हैॽ

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

किसी व्यक्ति के कोई काम शुरू करने से पहले “बिस्मिल्लाह” कहने का मतलब यह है कि :

मैं इस कार्य को ‘अल्लाह के नाम’ के साथ या उससे मदद लेते हुए, उससे बरकत माँगते हुए शुरू करता हूँ। “अल्लाह” वह आराध्य परमप्रिय पूज्य है जिसकी ओर लोगों के दिल प्रेम, सम्मान और आज्ञाकारिता (उपासना) के साथ अग्रसर होते हैं। वह “रहमान” (दयावान्) विशाल एवं व्यापक दया के साथ विशिष्ट है, तथा “रहीम” (अत्यंत दयालु) है जो अपनी दया को अपनी  सृष्टि तक पहुँचाता है।

तथा कहा गया है कि उसका मतलब यह है : मैं इस काम को अल्लाह का नाम लेकर और उसका उल्लेख करके शुरू करता हूँ। इब्ने जरीर रहिमहुल्लाह ने कहा : “अल्लाह, जिसका चर्चा बुलंद और उसके नाम पवित्र हैं, ने अपने पैगंबर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को यह शिष्टाचार सिखाया है कि वह अपने सभी कामों से पहले उसके सबसे सुंदर नामों का उल्लेख करें, तथा आपको आदेश दिया है कि अपने सभी कार्यों से पहले उसकी इन विशेषताओं का वर्णन करें। और उसने आपको इनमें से जो शिष्टाचार सिखाए हैं, उन्हें सभी लोगों के लिए सुन्नत बना दिया है जिसका वे पालन करते हैं और एक रास्ता बना दिया है, जिसपर चलकर वे अपनी बातों, पत्रों, पुस्तकों और आवश्यकताओं की शुरुआत में उसका अनुसरण करते हैं; यहाँ तक कि “बिस्मिल्लाह” कहने वाले के शब्दों से स्पष्ट होने वाले आशय ने उसके परोक्ष अभिप्राय से, जो कि गुप्त होता है, बेनियाज़ कर दिया।” साधारण संशोधन के साथ उद्धरण समाप्त हुआ।

जब काम शुरू करने से पहले “बिस्मिल्लाह” कहा जाता है, तो इस वाक्यांश में कुछ शब्द लुप्त होते हैं। इस लुप्त शब्द का अनुमान यह है : मैं अपना काम अल्लाह के नाम से शुरू करता हूँ। जैसे कि यह कहना : अल्लाह के नाम से मैं पढ़ता हूँ, अल्लाह के नाम से मैं लिखता हूँ, अल्लाह के नाम से मैं सवारी करता हूँ, और इसी तरह अन्य। तथा लुप्त शब्द का अनुमान यह भी हो सकता है : मेरी शुरुआत अल्लाह के नाम से है, मेरा सवारी करना अल्लाह के नाम से है, मेरा पढ़ना अल्लाह के नाम से है, और इसी तरह अन्य। तथा उसका अनुमान यह भी हो सकता है : अल्लाह के नमा से मैं लिखता हूँ, अल्लाह के नाम से मैं पढ़ता हूँ। अर्थात क्रिया को बाद में अनुमानित किया जाए। और ऐसा करना अच्छा है ताकि अल्लाह के नाम को पहले लाने से बरकत प्राप्त हो। और ताकि यह सीमित होने का लाभ दे अर्थात् ‘अल्लाह ही के नाम से मैं शुरू करता हूँ, किसी और के नाम से नहीं’।

तथा महामहिम शब्द “अल्लाह” : यह महानतम (सबसे बड़ा और श्रेष्ठ) नाम है और इतनी अच्छी तरह से जाना जाता है कि किसी स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है। यह महिमावान सृष्टिकर्ता के लिए एक संज्ञा विशेष है, जो एकमात्र उसी के लिए विशिष्ट है, किसी और के लिए नहीं है। सही दृष्टिकोण यह है कि यह “अलिहा या’लहो, उलूहतन व इलाहतन, फ-हुवा इलाहुन” (यानी पूजना और इबादत करना) से लिया गया है। और इलाह का शब्द मा’लूह के अर्थ में है, जिसका अर्थ मा’बूद (पूज्य और आराध्य) है। अतः वह (अल्लाह) उलूहियत वाला अर्थात इबादत, पूजा और आराधना के योग्य है।

“रहमान” : अल्लाह तआला के उन नामों में से एक है जो उसके साथ विशिष्ट है। इसका अर्थ है विशाल एवं व्यापक दया वाला। क्योंकि “फा’लान” का वज़न पूर्णता और प्रचुरता को इंगित करता है और यह महामहिम शब्द (अल्लाह) के बाद अल्लाह का सबसे खास नाम है, जिस तरह दया उसकी सबसे खास विशेषता (गुण) है। इसलिए यह नाम “रहमान” (क्रम में) अक्सर महामहिम शब्द (अल्लाह) के बाद आता है, जैसा कि अल्लाह तआला के इस कथन में आया है :

 قل ادعوا الله أو ادعوا الرحمن .. الآية 

“कह दीजिए (ऐ रसूल) : अल्लाह को पुकारो या रहमान को पुकारो ...” (सूरतुल इस्रा : 110)

“रहीम” अल्लाह तआला के नामों में से एक है, जिसका मतलब है जो अपनी दया को अपने बंदों में से जिस तक चाहता है, पहुँचाता है।

इब्नुल-क़ैयिम रहिमहुल्लाह ने कहा : “रहमान सर्वशक्तिमान अल्लाह के साथ क़ायम (दया की) विशेषता को इंगित करता है, और “रहीम” उस (दया की) विशेषता के उस व्यक्ति से संबंधित होने को दर्शाता है जिस पर दया किया गया है। चुनाँचे पहला विशेषण के लिए और दूसरा क्रिया के लिए है। पहला यह इंगित करता है कि दया (रहमत) उसकी विशेषता है, तथा दूसरा यह इंगित करता है कि वह अपनी दया (रहमत) के साथ अपने सृष्टि पर दया करता है। यदि आप इसे समझना चाहते हैं, तो अल्लाह के इस कथन पर विचार करें :

وكان بالمؤمنين رحيما

“और वह मोमिनों पर बहुत दया करने वाला है।” [अल-अहज़ाब 33:43]

तथा इस कथन पर :

 إنه بهم رءوف رحيم 

“निःसंदेह वह उनके लिए करुणा से भरा हुआ, अत्यंत दयालु है।” [सूरतुत तौबा : 117]

तथा कभी भी ”रहमानुन बिहिम” (अनपर रहमान है) नहीं आया है। इसलिए पता चला कि “रहमान” शब्द का अर्थ है जो दया (रहमत) के साथ विशिष्ट है (यानी जिसकी विशेषता दया (रहमत) है), और रहीम शब्द का अर्थ है जो अपनी दया (रहमत) के साथ दया करने वाला है।”

“बदाए-उल फवाइद” (1/24) से उद्धरण समाप्त हुआ।

दूसरी बात :

जहाँ तक क़ुरआन का पाठ करने से पहले बसमलह (बिस्मिल्लाहिर्-रहमानिर्-रहीम) पढ़ने के हुक्म का संबंध है, तो उसकी चार स्थितियाँ हैं :

पहली स्थिति : यह सूरत की शुरुआत में हो - सूरत बराअत (सूरतुत तौबा) के अलावा –, तो अधिकांश इमामों ने कहा है कि : “प्रत्येक सूरत की शुरुआत में बसमलह का पाठ करना मुस्तहब है, चाहे वह नमाज़ के अंदर हो या उसके अलावा। तथा इसकी पाबंदी करनी चाहिए, यहाँ तक कि कुछ विद्वानों ने क़ुरआन के ख़त्म को अधूरा माना है यदि किसी ने सूरत बराअत (सूरतुत तौबा) के अलावा हर सूरत की शुरुआत में बसमलह का पाठ नहीं किया है।” जब इमाम अहमद रहिमहुल्लाह से हर सूरत की शुरुआत में इसे पढ़ने के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा : “वह उसे नहीं छोड़ेगा।”

दूसरी स्थिति : यह सूरत के बीच में हो – और इसी के बारे में इस सवाल में पूछा गया है -, तो अधिकांश विद्वानों और क़ुरआन के पाठकों का कहना है कि इसके साथ (तिलावत) शुरू करने में कोई आपत्ति (रुकावट) नहीं है।

इमाम अहमद से बसमलह के बारे में (उनके कथन : वह सूरत की शुरुआत में उसे नहीं छोड़ेगा, के बाद) कहा गया : अगर कोई व्यक्ति किसी सूरत के मध्य से पाठ करता है, तो क्या वह उसे पढ़ेगाॽ” उन्होंने कहा : “कोई बात नहीं।” तथा अल-अबादी ने इमाम शाफ़ेई रहिमहुल्लाह से सूरत के बीच में उसके मुस्तहब होने का वर्णन किया है।

क़ुरआन के पाठकों का कहना है : बसमलह से क़ुरआन के पाठ का आरंभ करना सुनिश्चित हो जाता है अगर उस आयत में जिसे वह बसमलह के बाद पढ़ेगा, कोई सर्वनाम है जो अल्लाह को संदर्भित करता है, जैसे कि अल्लाह का यह कथन है :

إلَيْهِ يُرَدُّ عِلْمُ السَّاعَةِ

“क़ियामत का ज्ञान केवल उसी (अल्लाह) की ओर लौटाया जाता है।” (फुस्सिलत :47)

तथा अल्लाह का यह फरमान :

وَهُوَ الَّذِي أَنْشَأَ جَنَّاتٍ

“और वही (अल्लाह) है जिसने बाग़ पैदा किए।” (सूरतुल अनआम : 141)

क्योंकि इन आयतों को “अऊज़ो बिलल्लाहि मिनश्शैतानिर्रजीम” पढ़ने के बाद उल्लेख करना घृणित है और यह भ्रम पैदा करना है कि सर्वनाम शैतान की ओर लौटता है।

तीसरी स्थिति : उसे सूरत बराअत (सूरतुत-तौबा) की शुरुआत में पढ़ना। तो विद्वानों और क़ुरआन के पाठकों का इसके मकरूह (नापसंद) होने के बारे में लगभग कोई मतभेद नहीं है।

सालेह ने अपने पिता इमाम अहमद रहिमहुल्लाह से जिन मसायल (मुद्दों) के बारे में प्रश्न किया था, उसमें कहते हैं : “मैंने उनसे सूरतुल-अनफाल और सूरतुत-तौबा के बारे में पूछा कि क्या एक आदमी के लिए बिस्मिल्लाहिर्-रहमानिर्-रहीम कहकर इन दोनों के बीच अलगाव करना जायज़ हैॽ मेरे पिता ने कहा : क़ुरआन के संबंध में, अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथियों की जिस चीज़ पर सहमति है, उसी पर निर्भर किया जाएगा, उसमें कोई वृद्धि या कमी नहीं की जाएगी।”

चौथी स्थिति : उसे सूरत बराअत (सूरतुत-तौबा) के बीच में पढ़ना। इसके बारे में कुरआन के पाठकों ने मतभेद किया है, जैसा कि इब्ने हजर अल-हैसमी ने “अल-फतावा अल-फिक़्हिय्यह” (1/52) में उल्लेख किया है। उन्होंने कहा : “सखावी जो कि क़िराअत के विज्ञान के इमामों में से हैं, कहते हैं : इसमें कोई मतभेद नहीं है कि उसके बीच में बिस्मिल्लाहिर्-रहमानिर्-रहीम के साथ पाठ का आरंभ करना सुन्नत है। तथा उन्होंने उसके मध्य में बिस्मिल्लाह से शुरू करने और उसकी शुरुआत में बिस्मिल्लाह से शुरू करने के बीच अंतर किया है, लेकिन ऐसी चीज़ के द्वारा जिसका कोई फायदा नहीं है। तथा क़ुरआन के पाठकों ही में से जअ-बरी ने उसका खण्डन किया है और वही अधिक संभावित है (अर्थात् उसके मकरूह होने का कथन सही होने के अधिक निकट है), क्योंकि जो अर्थ (कारण) इस सूरत के शुरू में बसमलह को न पढ़ने की अपेक्षा करता है, जो कि उसका तलवार (यानी काफ़िरों से लड़ने के हुक्म) के साथ उतरना और मुनाफ़िक़ों (पाखंडियों) के गलत कामों को इस तरह से उजागर करना है जो किसी अन्य सूरत में नहीं है, यह अर्थ (कारण) इस सूरत के बीच में भी मौजूद है। इसलिए इसके बीच में भी बिस्मिल्लाहिर्-रहमानिर्-रहीम पढ़ना धर्मसंगत (मसनून) नहीं है, जिस तरह कि इसकी शुरूआत में (धर्मसंगत) नहीं है, जैसाकि पहले तय किया गया है।”

देखें : इब्ने मुफ़लेह की “अल-आदाब अश-शरईय्यह” (2/325), “अल-मौसूअतुल फिक़्हिय्यह” (13/253) “अल-फतावा अल-फिक़्हिय्यह अल-कुबरा” (1/52).

तीसरा :

जहाँ तक अल्लाह के कथन : “इक़्रा बिस्मि रब्बिका” (अपने पालनहार के नाम से पढ़ो) [अल-अलक़ : 1) के अर्थ का संबंध है, तो इमाम इब्ने जरीर रहिमहुल्लाह ने कहा : अल्लाह तआला के फरमान “इक़्रा बिस्मि रब्बिका” की व्याख्या

अल्ला तआला का अपने फरमान : “इक़्रा बिस्मि रब्बिका” (अपने पालनहार के नाम से पढ़ो) से अभिप्राय मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हैं, अल्लाह कहता है : ऐ मुहम्मद, अपने पालनहार के नाम का उल्लेख करके पढ़ें, जिसने पैदा किया।” और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

स्रोत: शैख मुहम्मद सालेह अल-मुनज्जिद