रविवार 21 जुमादा-2 1446 - 22 दिसंबर 2024
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उस चीनी का हुक्म जिसकी रिफाइनिंग प्रक्रिया में हड्डी की राख का उपयोग किया जाता है

प्रश्न

क्या गन्ने की चीनी को रिफाइन करना हराम (निषिद्ध) हैॽ क्योंकि कारखाने रिफाइनिंग प्रक्रिया में जली हुई हड्डी का उपयोग करते हैं, जो कि पशुधन की हड्डी हो सकती है, लेकिन हम नहीं जानते कि उनका स्रोत क्या है और क्या वह हलाल है या हराम है।

उत्तर का सारांश

निष्कर्ष : यह है कि यदि ये हड्डियाँ पूरी तरह से जल गई हैं और (जलकर) कोयला या राख बन गई हैं; तो यह राख शुद्ध (पाक) है और वह उस चीनी की वैधता को प्रभावित नहीं करती हैं जिसके साथ वह रिफाइनिंग (शोधन) प्रक्रिया के दौरान मिश्रित होती है।

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

सर्व प्रथम :

चीनी के निर्माण में जली हुई हड्डी का उपयोग करने से अभिप्राय : सफेद खाद्य चीनी को निकालने के लिए, गन्ने या चुकंदर के रस को रिफाइन करने की प्रक्रिया के दौरान हड्डी की राख और उसके कोयले (बोन चार) का उपयोग करना है।

“अल-मौसूअह अल-अरबिय्यह अल-आलमिय्यह” (17/249) में आया है :

“वनस्पति से निर्मित कोयले के दो प्रकार दूसरों की तुलना में अधिक प्रसिद्ध हैं। वे हैं : लकड़ी का कोयला, जो लकड़ी से बनाया जाता है, तथा हड्डी का कोयला (बोन चार), जिसे “पशु का कोयला” भी कहा जाता है और वह जानवरों के अवशेषों,  विशेष रूप से उनकी हड्डियों से बनाया जाता है। हड्डी का कोयला मुख्य रूप से राख से बनता है और इसमें कुछ कार्बन और अशुद्धियाँ (अशुद्ध तत्व) होती हैं।

निर्माता, रंगों का अधिशोषण करने (उन्हें गाढ़ा करने और उन्हें उनके आंतरिक सतहों पर चिपकाने) के लिए, हड्डी के कोयले का उपयोग पाउडर के रूप में करते हैं। तथा इस सोखने की प्रक्रिया का पालन सफेद चीनी उद्योग में भी किया जाता है।”  उद्धरण समाप्त हुआ।

दूसरा :

हड्डी की राख, जिसका चीनी को रिफाइन करने में उपयोग किया जाता है, दो स्थितियों से बाहर नहीं होती है :

पहली स्थिति : यह है कि यह हड्डी शुद्ध (पाक) है, इस प्रकार कि वह एक ऐसे जानवर की हड्डी है जिसका मांस खाना जायज़ है और उसे शरई तरीक़े से ज़बह किया गया है। तो इसमें कोई समस्या नहीं है, क्योंकि यह ताहिर (शुद्ध) और हलाल है।

दूसरी स्थिति : यह है कि यह हड्डी अशुद्ध (नापाक) है, जैसे कि वह एक मृत जानवर (जिसे शरई तरीक़े से ज़बह नहीं किया गया है) की हड्डी है।

इस तरह के मामलों के बारे में सही दृष्टिकोण यह है कि : वह जल जाने और राख में बदल जाने से : शुद्ध (पाक) हो जाता है। क्योंकि, सही दृष्टिकोण के अनुसार, अशुद्धियाँ परिवर्तन के माध्यम से (अर्थात उसके एक अन्य पदार्थ में बदल जाने से) शुद्ध हो जाती हैं, जैसा कि हनफिय्यह और मालिकिय्यह का मत है।

“अल-मौसूअह अल-फिक़्हिय्यह अल-कुवैतिय्यह” (10/278) में आया है :

“हनफ़िय्यह और मालिकिय्यह, तथा एक रिवायत के अनुसार अहमद, इस मत की ओर गए हैं कि : जो चीज़ “नजसुल-ऐन” (अपने आप में अशुद्ध) है, वह रूपांतरित होने के बाद शुद्ध (पाक) हो जाती है। अतः अशुद्ध चीज़ की राख अपवित्र नहीं होगी, तथा वह “नमक” अशुद्ध नहीं माना जाएगा, जो कि (रूपांतरित होने से पहले) गधा या सुअर या अन्य था। कोई भी अशुद्ध पदार्थ जो एक कुएं में गिर गया और विघटित होकर कीचड़ में बदल गया, उसे भी अशुद्ध नहीं माना जाएगा। यही बात शराब पर लागू होती है अगर वह सिरका में बदल जाती है, चाहे वह स्वयं या किसी मानव की कार्रवाई के माध्यम से हुआ हो। क्योंकि उसका अस्तित्व बदल गया। तथा इसलिए कि शरीयत ने उस विशेष पदार्थ पर अशुद्धता के गुण को उस वास्तविकता पर आधारित किया है। अतः उस वास्तविकता के ना पाए जाने के कारण, उस पर आधारित अशुद्धता का गुण भी समाप्त हो जाएगा। (अर्थात अब उसको अशुद्ध नहीं माना जाएगा)।

इसलिए अगर हड्डी और मांस “नमक” में बदल गए हैं : तो वे नमक का हुक्म ग्रहण कर लेंगे; क्योंकि नमक, हड्डी और मांस के अलावा कुछ और चीज़ है।

इस्लामी शरीयत में इसके बहुत से उदाहरण हैं। उन्हीं में से एक उदाहरण : रक्त का लोथड़ा है, जो कि अशुद्ध होता है, लेकिन जब वह मांस के लोथड़े में बदल जाता है : तो वह शुद्ध (पाक) हो जाता है। तथा रस शुद्ध (पाक) है, लेकिन जब वह शराब में बदल जाता है, तो अशुद्ध हो जाता है।

इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि : किसी चीज़ के वास्तविक रूप के बदल जाने से, उसपर आधारित विशेषता (हुक्म) समाप्त हो जाती है।” उद्धरण समाप्त हुआ।

इस कथन को शैखुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्यह और उनके शिष्य इब्नुल क़ैयिम ने चुना है।

शैख़ुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्यह रहिमहुल्लाह ने कहा :

“कहने वाले का यह कहना कि : एक अशुद्ध चीज़ रूपांतरित होने से शुद्ध हो जाती है, अधिक सही है। क्योंकि जब एक अशुद्ध पदार्थ ‘नमक’ या ‘राख’ में बदल गया, तो उसकी वास्तविकता बदल गई और उसके नाम और विशेषता में भी बदलाव आ गया। अतः मृत जानवर (जो शरई तरीक़े से ज़बह न किया गया हो), रक्त और सूअर के मांस को निषिद्ध ठहराने वाले नुसूस (मूलपाठ) : नमक, राख और मिट्टी को शामिल नहीं हैं, न तो शब्द के एतिबार से और न ही अर्थ के एतिबार से। जिस कारण के पाए जाने की वजह से ये चीज़ें अशुद्ध थीं : वह कारण इन (रूपांतरित) पदार्थों में मौजूद नहीं है, इसलिए यह कहने का कोई औचित्य नहीं है कि वे अशुद्ध और अपवित्र हैं।”

“मजमूउल-फतावा” (20/522) से उद्धरण समाप्त हुआ।

इब्नुल-क़ैयिम रहिमहुल्लाह कहते हैं :

“शराब का किसी अन्य पदार्थ में परिवर्तित होने से शुद्ध हो जाना क़यास के अनुरूप है। क्योंकि वह उसमें अशुद्धि के गुण के कारण अपवित्र है। लेकिन जब वह कारण अब मौजूद नहीं है, तो उस पर आधारित नतीजा (हुक्म) भी समाप्त हो जाएगा। यह इस्लामी शऱीयत का, उसके स्रोतों और संसाधनों में, मूल सिद्धांत है, बल्कि वास्तव में यही सवाब और सज़ा का आधार है।

इसके आधार पर : सही क़यास यह है कि : इसे सभी प्रकार की अशुद्धियों पर लागू होना चाहिए, जब वे रूपांतरित हो जाएँ (अर्थात उनकी वास्तविकता किसी अन्य पदार्थ में बदल जाए) ... उसके असल (मूल स्थिति) को देखने की कोई आवश्यकता नहीं है; बल्कि इस बात को देखा जाएगा कि अपने आप में उस चीज़ का गुण क्या है।

यह असंभव है कि किसी अशुद्ध चीज़ का हुक्म बाक़ी रहे, जबकि उसका नाम और विशेषता समाप्त हो चुकी है, हालांकि हुक्म नाम और विशेषता के अधीन होता है, जिसके साथ वह घूमता रहता है; उनके पाए जाने पर वह पाया जाता है और न पाए जाने पर नहीं पाया जाता है (अर्थात नाम और विशेषता के पाए जाने पर हुक्म पाया जाएगा तथा नाम और विशेषता के न पाए जाने पर हुक्म भी पाया जाएगा।)

अतः मृत जानवर (जो शरई तरीक़े से ज़बह न किया गया हो), रक्त, सूअर के मांस और शराब को निषिद्ध ठहराने वाले नुसूस (मूलपाठ) : फसलों, फलों, राख, नमक, मिट्टी और सिरका को शामिल नहीं हैं, न तो शब्द के एतिबार से और न ही अर्थ के एतिबार से, न तो मूलपाठ की दृष्टि से और न ही क़यास के आधार पर।

जो लोग शराब और अन्य चीजों के (किसी दूसरे पदार्थ में) रूपांतरित होने के बीच अंतर करने वाले हैं, उनका कहना है कि : शराब परिवर्तन के माध्यम से अशुद्ध हुई थी, इसलिए वह परिवर्तन के माध्यम से (फिर से) शुद्ध हो गई।

तो उनसे कहा जाएगा : इसी प्रकार रक्त, मूत्र और मल भी  परिवर्तन के माध्यम से अशुद्ध हुए थे,  और (फिर) परिवर्तन के माध्यम से शुद्ध हो गए।”

“एलामुल मुवक़्क़ेईन” (3/183-184) से उद्धरण समाप्त हुआ।

इस कथन को कई समकालीन विद्वानों ने पसंद किया है, जिनमें “इफ़्ता और एकेडमिक रिसर्च की स्थायी समिति” के विद्वान शामिल हैं, जैसाकि “फतावा अल-लजनह अद् दाइमह” (22/299) में है।

और अल्लाह ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर