शुक्रवार 10 शव्वाल 1445 - 19 अप्रैल 2024
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क्या क़ज़ा व क़दर के बीच कोई अंतर पाया जाता है?

प्रश्न

क़ज़ा व क़दर के अध्याय में और दोनों के बीच अंतर करने के बारे में, विद्वानों का कहना है कि : उन दोनों के बारे में मतभेद पाया जाता है। चुनाँचे कुछ विद्वानों ने क़ज़ा की व्याख़्या क़दर से की है, जबकि कुछ अन्य विद्वानों का कहना है कि : क़ज़ा, क़दर के अलावा दूसरी चीज़ है। अतः यहाँ मेरा प्रश्न यह है कि : क्या कोई कथन ऐसा है जिसके आधार पर दोनों में से एक को दूसरे पर प्राथमिकता दी जा सकती है? यदि दोनों में से किसी एक को प्राथमिकता दी जाती है तो उस का प्रमाण क्या हैॽ और दोनों में से पहले कौन है क़ज़ा अथवा क़दरॽ

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

कुछ उलमा (विद्वान) इस बात की ओर गए हैं कि क़ज़ा और क़दर दोनों पर्यायवाची (समान अर्थ व्यक्त करने वाले) शब्द हैं।

यह कथन “भाषा” के कुछ उन विशेषज्ञों के कथन के अनुकूल है जिन्हों ने क़दर की व्याख्या क़ज़ा से की है।

अरबी भाषा के शब्दकोश के विशेषज्ञ फिरोज़ाबादी की “अल-क़ामूसुल मुह़ीत़” (पृष्ठ संख्या : 591) में आया है :

“क़दर : क़ज़ा और फैसला।” समाप्त हुआ।

तथा शैख़ इब्ने बाज़ रहिमहुल्लाह से सवाल किया गया कि : क़ज़ा और क़दर के बीच क्या अंतर हैॽ

तो शैख़ ने जवाब दिया : ‘‘क़ज़ा और क़दर एक ही चीज़ हैं। वह चीज़ जिस का फैसला अल्लाह ने पहले ही कर दिया है तथा जिसे उसने पहले ही अनुमानित कर दिया है, उसे क़ज़ा कहा जाता है और उसे क़दर भी कहा जाता है।’’

शैख़ की वेबसाइट से समाप्त हुआ।

तथा कुछ दूसरे उलमा इस तरफ गये हैं कि इन दोनों के बीच अंतर पाया जाता है। चुनाँचे कुछ उलमा इस ओर गए हैं कि क़ज़ा, क़द्र से पहले है। क़ज़ा वह है जिसका अल्लाह को अनादिकाल ही से ज्ञान है और उसका अल्लाह ने फैसला कर दिया है। तथा क़दर उसी ज्ञान और फैसले के मुताबिक़ मख़लूक़ात का अस्तित्व में आना है।

ह़ाफिज़ इब्ने हजर रहिमहुल्लाह ‘‘फत्हुल बारी’’ (11/477) में लिखते हैं : “विद्वानों का कहना है : अनादिकाल में कुल सकल (सार रूप से सार्विक) फैसले को क़ज़ा कहा जाता है, तथा उस फैसले के विवरण और उस के विस्तार को क़दर कहते हैं।” समाप्त हुआ।

तथा एक और स्थान (11/149) पर कहते हैं : ‘‘अनादिकाल में सार (संक्षेप) रूप से समग्र व सार्विक फैसला क़ज़ा कहलाता है, और उन्हीं समग्रता के अंशों का विस्तार रूप से घटित होने का फ़ैसला क़दर कहलाता है।’’ समाप्त हुआ।

शैख़ जुरजानी रहिमहुल्लाह “अत-तारीफात” (पृष्ठ संख्या :174) में लिखते हैं : “क़ज़ा (ईश्वरीय निर्णय) के अनुकूल सम्भावित चीज़ों के, एक के बाद एक, अनस्तित्व से अस्तित्व में आने को क़दर कहते हैं। क़ज़ा का संबंध अनादिकाल से है और क़दर का संबंध उससे है जो निरंतर (अभी भी) जारी है।

तथा क़दर और क़ज़ा के बीच यह अंतर है कि : लौहे मह़्फूज़ (सुरक्षित पट्टिका) में समस्त सृष्टि के एक साथ अस्तित्व को क़ज़ा कहते हैं, तथा व्यक्तिगत रूप से उनके, उन की शर्तों की पूर्ति के पश्चात, अलग अलग अस्तित्व को क़दर कहते हैं।’’ समाप्त हुआ।

क़ज़ा और क़दर के बीच अंतर करने वाले विद्वानों में से एक समूह का विचार उपर्युक्त विचार के विपरीत है। चुनाँचे उन्हों ने क़दर को क़ज़ा से पूर्व ठहराया है, इस प्रकार उन के निकट पूर्व अनादिकालिक निर्णय को क़दर तथा सृष्टि व रचना को क़ज़ा कहेंगे।

इमाम राग़िब अस्फहानी रहिमहुल्लाह “अल-मुफ्रदात” (पृष्ठ संख्या : 675) में कहते हैं : ‘‘अल्लाह तआला की क़ज़ा, क़द्र से अधिक विशेष है, क्योंकि क़ज़ा तक़्दीर (भाग्यों) के बीच निर्णय करने वाली है। अतः तक़्दीर (भाग्य) ही क़दर है और निर्णय व फैसला करना क़ज़ा है।

तथा कुछ विद्वानों ने उल्लेख किया है कि क़दर उस चीज़ की तरह है जो माप के लिए तैयार की गई है, और क़ज़ा मापने की तरह है। और इसकी पुष्टि अल्लाह तआला के इस कथन से होती है :

( وَكَانَ أَمْرًا مَقْضِيًّا )

“यह तो ऐसी बात है जिस का निर्णय हो चुका है।’’ (मर्यम : 21)

और अल्लाह तआला का फरमान है :

( كَانَ عَلَى رَبِّكَ حَتْمًا مَقْضِيًّا )

“यह एक निश्चय पाई हुई बात है जिसे पूरा करना तेरे पालनहार पर अनिवार्य है।’’ (मर्यम :71)

और अल्लाह का फरमान है :

( وَقُضِيَ الأَمْرُ).

“हालाँकि बात तय कर दी गई है।’’ (सूरतुल-बक़रा : 210) अर्थात निर्णय हो चुका है, यह इस बात पर चेतावनी है कि वह इस तरह हो चुका है कि उसे टाला नहीं जा सकता।” समाप्त हुआ।

तथा कुछ विद्वानों ने इस विचार को चयन किया है कि अगर वे दोनों अलग अलग आएँ तो दोनों का एक ही अर्थ होगा। तथा यदि वे दोनों किसी एक वाक्य में इकट्ठे हो जाएँ तो दोनों में से प्रत्येक का अपना अपना अर्थ होगा।

शैख़ इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह कहते हैं : “क़दर का शाब्दिक अर्थः तक़्दीर (अनुमान लगाना, अंदाज़ा करना) के हैं, अल्लाह तआला ने फरमायाः

إِنَّا كُلَّ شَيْءٍ خَلَقْنَاهُ بِقَدَرٍ    [القمر: 49]

‘‘निश्चय ही हम ने प्रत्येक वस्तु को एक अनुमान के साथ उत्पन्न किया है।’’ (अल-क़मर : 49)

और अल्लाह तआला ने फरमाया :

فَقَدَرْنَا فَنِعْمَ الْقَادِرُونَ    [المرسلات: 23].

‘‘फिर हम ने अंदाज़ा लगाया तो हम क्या अच्छा अंदाज़ा लगाने वाले हैं।’’ (सूरतुल-मुर्सलात : 23)

रही बात क़ज़ा की तो इस का शाब्दिक अर्थ है : निर्णय और फैसला।

इसीलिए हम कहते हैं कि क़ज़ा और क़दर एक दूसरे के विपरीत हैं यदि वे दोनों एक साथ आएं, तथा वे दोनों पर्याय हैं अगर वे दोनों अलग अलग आएं; विद्वानों के इस कथन के अनुसार : वे दोनों दो शब्द हैं : य़दि वे दोनों एकत्र होते हैं तो दोनों का अर्थ विभिन्न होता है, और यदि वे दोनों अलग अलग आते हैं तो दोनों का अर्थ समान होता है।

अतः जब कहा जाए : यह अल्लाह का क़दर है, तो यह क़ज़ा को भी शामिल है। परंतु जब वाक्य में दोनों का एक साथ उल्लेख हो, तो दोनों में से प्रत्येक का अर्थ अलग अलग होगा।

चुनाँचे तक़्दीरः वह है जिस को अल्लाह तआला ने अनादिकाल में अपनी मख़्लूक़ के बारे में अनुमानित किया है।

और क़ज़ाः वह है जिस का अल्लाह सुब्हानहु व तआला ने अपनी मख़्लूक़ के बारे में निर्णय और फैसला किया है, जैसे- किसी चीज़ को अस्तित्व में लाना, या किसी चीज़ को अस्तित्वहीन करना या परिवर्तित करना। इस आधार पर तक़्दीर पहले होगी।

यदि कोई कहने वाला यह कहे किः जब हम यह कहें किः बेशक क़ज़ा यह है जिस का अल्लाह सुब्हानहु व तआला अपनी मख़्लूक़ के बारे में फैसला करता है, जैसे- किसी चीज़ को अस्तित्व में लाना, या अस्तित्वहीन करना या परिवर्तित करना, और जब दोनों शब्द एक साथ प्रयोग हों तो क़दर उससे पहले होता है; तो यह बात अल्लाह तआला के इस फरमान :

وَخَلَقَ كُلَّ شَيْءٍ فَقَدَّرَهُ تَقْدِيرًا     [الفرقان: 2]

‘‘और उस ने प्रत्येक वस्तु को पैदा किया फिर उसे ठीक अंदाज़े पर रखा।’’ (अल-फुरक़ान :02) के विरूद्ध है। क्योंकि इस आयत से स्पष्ट होता है कि तक़्दीर पैदा करने के बाद है।

तो इसका जवाब निम्नलिखित दो तरीक़ों में से किसी एक से दे सकते हैं :

- या तो हम कहेंगे कि : इस तर्तीब (क्रम) का संबंध उल्लेख और वर्णन के क्रम से है, इसका संबंध अर्थ के क्रम से नहीं है। और यहाँ पैदा करने का उल्लेख तक़्दीर से पहले आयतों के सिरों में पारस्परिक मिलान (समानता) के लिए किया गया है।

क्या आप नहीं देखते कि मूसा अलैहिस्सलाम हारून अलैहिस्सलाम से अफज़ल (श्रेष्ठतर) हैं, लेकिन इसके बावजूद सूरत ता-हा में, आयतों के सिरों में पारस्परिक मिलान करने के लिए, जादूगरों के बारे में अल्लाह तआला के इस फरमान में हारून अलैहिस्सलाम को मूसा अलैहिस्सलाम से पहले उल्लेख किया गया है :

فَأُلْقِيَ السَّحَرَةُ سُجَّدًا قَالُوا آمَنَّا بِرَبِّ هَارُونَ وَمُوسَى           [طه: 70]

‘‘अन्ततः जादूगर सज्दे में गिर पड़े, उन्हों ने कहा कि हम हारून और मूसा के रब पर ईमान ले आये।) (ता-हा : 70)

इसका मतलब यह नहीं है कि जो शब्द में बाद में आने वाला है वह पद में भी पीछे है।

- या हम यह कहेंगे कि : यहाँ तक़्दीर ठीक-ठाक करने के अर्थ में है, यानी उसे एक निर्धारित अंदाज़े पर पैदा किया। जैसा कि अल्लाह तआला का फरमान है :

الَّذِي خَلَقَ فَسَوَّى        [الأعلى: 2]

‘‘जिसने पैदा किया और ठीक-ठाक किया।’’ (अल-आला :02) इस प्रकार तक़्दीर ठीक-ठाक करने के अर्थ में है।

यह अर्थ पहले के मुक़ाबले में अधिक निकट है, क्योंकि यह अल्लाह तआला के फरमान : الَّذِي خَلَقَ فَسَوَّى ‘‘जिस ने पैदा किया और ठीक-ठीक किया।’’ से पूरी तरह से मेल खाता है। इस तरह इसमें कोई समस्या नहीं है।”“शर्हुल अक़ीदतिल वास्त़िय्या” (2/189) से समाप्त हुआ।

इस मस्अला में समस्या बहुत साधारण है, और इस के पीछे कोई बड़ा लाभ भी नहीं है, तथा यह न किसी अमल से संबंधित और न ही अक़ीदा (आस्था) से। इसमें सबसे अधिक जो चीज़ है वह परिभाषा में मतभेद है, तथा क़ुरआन और हदीस में कोई ऐसा सबूत (प्रमाण) नहीं हैं जो इनके बीच अंतर करता हो। महत्वपूर्ण बात ईमान के स्तंभों में से इस महान स्तंभ पर ईमान लाना और उसकी पुष्टि करना है।

इमाम ख़त्ताबी रहिमहुल्लाह ने “मआलिमुस्सुनन” (2/323) में यह उल्लेख करने के बाद कि क़दर पूर्व तक़्दीर को कहते हैं तथा क़ज़ा रचना को कहते हैं, फरमाया :“क़ज़ा व क़दर के अध्याय में मूल बात यह है कि ये दोनों ऐसी चीज़ें हैं जो एक-दूसरे से अलग नहीं होती हैं; क्योंकि उन दोनों में से एक नींव की तरह है, और दूसरा निर्माण की तरह है। अतः जिस ने भी दोनों के बीच अंतर करने का इरादा किया तो वास्तव में उसने इमारत को गिराने और उसे ध्वस्त करने का इरादा किया।” समाप्त हुआ।

शैख़ अब्दुल अज़ीज़ आलुश्शैख़ से सवाल किया गया कि : क़ज़ा व क़दर के बीच क्या अंतर है?

तो शैख़ ने जवाब दिया :“कुछ विद्वान क़ज़ा व क़दर को बराबर क़रार देते हैं, वे कहते हैं क़ज़ा ही क़द्र है और क़द्र ही क़ज़ा है। तथा कुछ विद्वान इन दोनों के बीच अंतर करते हैं, उनका कहना है : क़दर आम (सामान्य) है और क़ज़ा ख़ास (विशेष) है, इस तरह क़दर आम है और क़ज़ा क़दर का एक हिस्सा है।

तथा सभी पर ईमान लाना अनिवार्य है, अल्लाह ने जो कुछ अनुमानित (मुक़द्दर) किया है और अल्लाह ने जो कुछ फैसला फरमाया है कि उस पर ईमान लाना और उस की पुष्टि करना ज़रूरी है।” इंटरनेट पर शैख़ की वेबसाइट (http://mufti.af.org.sa/node/3687) से समाप्त हुआ।

शैख़ अब्दुर्रहमान अल-महमूद कहते हैं :“इस विवाद का कोई लाभ नहीं है, क्योंकि इस बात पर सर्वसहमति है कि दोनों में से एक को दूसरे पर बोला जाता है... अतः उनमें से एक की परिभाषा उस चीज़ से करने में कोई बात नहीं है जिसपर दूसरा दलालत करता है।’’

“अल-क़ज़ा वल क़दर फी ज़ौइल किताब वस सुन्नह” (पृष्ठ संख्याः 44) से समाप्त हुआ।

और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर