शुक्रवार 21 जुमादा-1 1446 - 22 नवंबर 2024
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स्वयं वांछित रोज़े और ग़ैर स्वयं वांछित रोज़े के बीच नीयत साझा करने से अभिप्राय

प्रश्न

हम स्वयं वांछित वांछित रोज़े के बीच अंतर कैसे करें, ताकि रोज़े में नीयत साझा करना सही हो सकेॽ

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

पहला :

इबादतों के बीच नीयत साझा करने का नियम यह है कि : दो इबादतों में से एक स्वयं वांछित न हो, तो वह दूसरी के साथ नीयत के द्वारा दाखिल (शामिल) हो जाएगी।

 यह नियम रोज़ा और अन्य इबादतों को शामिल है।

रोज़ा के अध्याय में : स्वयं वांछित रोज़े का उदाहरण, जैसे कि रमज़ान का रोज़ा, रमज़ान की क़ज़ा का रोज़ा, नज़्र का रोज़ा, और विशेष दिनों के रोज़े, जैसे कि अरफह का दिन, आशूरा का दिन, और सोमवार का रोज़ा - हालाँकि इनमें से कुछ दिनों के बारे में मतभेद है कि वे स्वंय वांछित है या नहींॽ

जहाँ तक उस रोज़े का संबंध है जो स्वयं वांछित नहीं है : तो इससे अभिप्राय वह रोज़ा है जिसमें मुसतहब रोज़े को रखना होता है, उस दिन की विशिष्टता को नहीं देखा जाता है, जैसे कि प्रत्येक महीने में तीन दिन के रोज़े।

चुनाँचे इन तीन दिनों में से किसी एक दिन के रोज़े के साथ, अरफा के रोज़े या सोमवार के रोज़े को नीयत में शरीक करना जायज़ है।

“अल-मौसूअतुल फ़िक़्हिय्यह” (12/24) में आया है : “यदि वह दो इबादतों को नीयत में साझा कर लेता है। तो यदि उन दोनों का आधार एक-दूसरे में प्रवेश करने (गुंथने) पर है, जैसे कि जुमा (शुक्रवार) और जनाबत का स्नान रोज़े और ग़ैर स्वयं, या जनाबत और मासिक धर्म का स्नान, या जुमा और ईद का स्नान। या उन दोनों इबादतों में से कोई एक स्वयं वांछित नहीं है, जैसे कि किसी फ़र्ज़ नमाज़ या किसी दूसरी सुन्नत के साथ तह़िय्यतुल-मस्जिद (मस्जिद का अभिवादन) पढ़ना, तो यह इबादत में कोई दोष नहीं पैदा करता है। क्योंकि पवित्रता का आधार एक-दूसरे में प्रवेश करने पर है, तथा तह़िय्यतुल-मस्जिद और इसी जैसी इबादतें स्वयं वांछित नहीं हैं। बल्कि इसका उद्देश्य उस स्थान को नमाज़ में व्यस्त रखना है, इसलिए वह दूसरे में शामिल हो जाएगा।

जहाँ तक दो स्वतः वांछित इबादतों को साझा करने का संबंध है, जैसे कि ज़ुहर की फ़र्ज और उसकी सुन्नतें, तो उन्हें एक नीयत में साझा करना सही (मान्य) नहीं है। क्योंकि वे दोनों स्वतंत्र रूप से अलग-अलग इबादतें हैं, जो एक-दूसरे के अंतर्गत नहीं आती हैं।

डॉ. उमर सुलैमान अल-अश्क़र रहिमहुल्लाह ने फरमाया : “जो व्यक्ति कहता है कि इस तरह के रूपों में एक ही कार्य से दो इबादतें संपन्न हो जाती हैं : तो यह इसलिए है क्योंकि शरीयत का उद्देश्य उस कार्य के घटित होने से प्राप्त हो जाता है। चुनाँचे तह़िय्यतुल मस्जिद फ़र्ज़ नमाज़ की अदायगी से संपन्न हो जाती है, चाहे उसने तह़िय्यतुल मस्जिद की नीयत की हो या उसकी नीयत न की हो। क्योंकि उसका अभिप्राय उस जगह को इबादत में व्यस्त करना है।” “मक़ासिदुल-मुकल्लफ़ीन” (पृष्ठ : 255) से उद्धरण समाप्त हुआ।

शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह से पूछा गया : क्या हमारे लिए एक ही इबादत में एक से अधिक इबादत की नीयत करना जायज़ हैॽ उदाहरण के तौर पर यदि उसने ज़ुहर की नमाज़ के अज़ान के समय मस्जिद में प्रवेश किया, तो उसने दो रकअत नमाज़ पढ़ी, जिससे उसने तह़िय्यतुल-मस्जिद, वुज़ू की सुन्नत और ज़ुहर की नियमित सुन्नत (मुअक्कदह सुन्नत) की नीयत की, तो क्य यह सही हैॽ

तो उन्होंने इस तरह उत्तर दिया :

‘‘यह नियम महत्वपूर्ण है और वह यह कि : “क्या इबादतें एक दूसरे में दाखिल होती हैंॽ तो हम कहते हैं : यदि वह इबादत दूसरी इबादत के अधीन है, तो वे दोनों एक-दूसरे में प्रवेश नहीं करेंगी। यह एक नियम है।

इसका उदाहरण यह है कि : फज्र की (फ़र्ज़) नमाज़ दो रकअत है, और उसकी सुन्नत दो रकअत है। यह सुन्नत एक स्थायी (अलग) नमाज़ है, लेकिन यह अधीनस्थ है। जिसका अर्थ यह है कि यह फ़ज्र के लिए एक नियमित सुन्नत और उसके लिए पूरक है। इसलिए वह सुन्नत फ़ज्र की (फ़र्ज़) नमाज की जगह नहीं ले सकती, और न ही फज्र की (फ़र्ज़) नमाज़ सुन्नत की जगह ले सकती है। क्योंकि सुन्नत, फ़र्ज़ के अधीन है। अतः यदि इबादत दूसरे के अधीन है, तो वह उसका स्थान नहीं ले सकती है, न अधीनस्थ और न ही मूल।

एक दूसरा उदाहरण : जुमा (शुक्रवार) की नमाज़ की उसके बाद एक नियमित सुन्नत है। तो क्या कोई व्यक्ति केवल जुमा की नमाज़ पर सीमित रह सकता है और वह उसके बाद वाली नियमित सुन्नत से बेनियाज़ कर देगीॽ

इसका उत्तर है कि : नहीं, क्योंॽ क्योंकि जुमा की सुन्नत उसके अधीन है।

दूसरा : यदि दोनों इबादतें स्थायी (अलग-अलग) हैं। प्रत्येक इबादत, दूसरी इबादत से अलग (स्वतंत्र) है और वह स्वतः वांछित है। तो वे दोनों इबादतें एक-दूसरे में प्रवेश नहीं करेंगी।

इसका उदाहरण यह है कि : अगर कोई कहे : मैं ज़ुहर से पहले दो रकअत नमाज़ पढ़ूँगा, जिनसे मैं चार (फ़र्ज़) रकअतों की नीयत करूँगा। क्योंकि ज़ुहर की पहले की नियमित (मुअक्कदह) सुन्नत दो सलाम के साथ चार रकअतें हैं। इसलिए यदि वह कहे : मैं दो रकअत नमाज़ पढ़ूँगा और उनसे चार रकअतों की नीयत करूँगा, तो यह जायज़ (स्वीकार्य) नहीं है। क्योंकि यहाँ दोनों इबादतें स्थायी हैं, प्रत्येक दूसरी से अलग है, और प्रत्येक स्वयं अभिप्रेत (उद्दिष्ट) है। इसलिए दोनों में से कोई भी, दूसरी से बेनियाज़ नहीं कर सकती।

एक अन्य उदाहरण : इशा के बाद एक नियमित सुन्नत है, और सुन्नत के बाद वित्र है। और तीन रकअत वित्र को दो सलाम के साथ पढ़ना जायज़ है। चुनाँचे वह दो रकअत नमाज़ पढ़ेगा, फिर वित्र पढ़ेगा। इसलिए यदि वह कहे : मैं चाहता हूँ कि इशा की सुन्नत को वित्र की दो रकअतें और इशा की सुन्नत बना दूँ। तो यह जायज़ नहीं है। क्योंकि प्रत्येक इबादत दूसरी से अलग (स्थायी) है और स्वयं उद्दिष्ट है, इसलिए यह मान्य नहीं है।

तीसरा : यदि दो इबादतों में से कोई एक स्वयं उद्दिष्ट नहीं है। बल्कि इस प्रकार की इबादत को करना ही मूल उद्देश्य है, तो यहाँ उनमें से एक को करना दूसरे की तरफ़ से पर्याप्त होगा, लेकिन उन दोनों में से केवल मूल इबादत को करना ही अधीन की ओर से पर्याप्त होगा।

इसका उदाहरण यह है : एक व्यक्ति ने फ़ज्र की नमाज़ पढ़ने से पहले और अज़ान के बाद मस्जिद में प्रवेश किया। यहाँ उससे दो चीज़ें अपेक्षित हैं : तह़िय्यतुल-मस्जिद, चूँकि तह़िय्यतुल-मस्जिद स्वयं उद्दिष्ट नहीं है। अतः अभिप्रेत यह है कि जब तक आप दो रकअत नमाज़ अदा न कर लें, तब तक आप न बैठें। यदि आपने फ़ज्र की सुन्नत पढ़ ली, तो आपके बारे में यह बात सच हो गई कि आप तब तक नहीं बैठे जब तक आपने दो रकअत नमाज़ अदा नहीं कर ली, और उद्देश्य प्राप्त हो गया। लेकिन अगर आपने शाखा का इरादा किया है, अर्थात् तह़िय्यतुल मस्जिद का इरादा किया है, फ़ज्र की सुन्नत का इरादा नहीं किया है, तो वह सुन्नत की ओर से काफ़ी नहीं होगी। क्योंकि फ़ज्र की सुन्नत स्वयं उद्दिष्ट है और तह़िय्यतुल मस्जिद दो रकअत उद्दिष्ट नहीं है।

जहाँ तक प्रश्नकर्ता के इस प्रश्न का संबंध है कि : जब वह ज़ुहर की अज़ान के समय मस्जिद में प्रवेश किया, तो उसने दो रकअत नमाज़ पढ़ी, जिनसे उसने तह़िय्यतुल मस्जिद, वुज़ू की सुन्नत और ज़ुहर की नियमित सुन्नत की नीयत कीॽ

यदि उसने तह़िय्युल-मस्जिद और नियमित सुन्नत की नीयत की है, तो यह पर्याप्त होगा।

रही बात वुज़ू की सुन्नत की, तो हम अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का यह कथन देखेंगे : “जिस व्यक्ति ने मेरे इस वुज़ू की तरह वुज़ू किया। फिर दो रकअत नमाज़ पढ़ी, जिनमें वह अपने आपसे बात नहीं करता है, तो उसके पिछले पाप क्षमा कर दिए जाएँगे।” क्या इससे आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अभिप्राय यह है कि वुज़ू के बाद दो रकअतें हैं, या आपका मतलब यह है कि जब तुम वुज़ू करो, तो दो रकअत नमाज़ पढ़ोॽ

हम देखते हैं कि अगर इसका मतलब यह है कि जब आप वुज़ू करें, तो दो रकअत नमाज़ पढ़ें, तो दोनों रकअतें उद्दिष्ट हो जाएँगीं। लेकिन अगर इससे अभिप्राय यह है कि जिसने वुज़ू के बाद दो रकअतें पढ़ीं, चाहे वे दोनों रकअतें किसी भी तरीक़े से हों, तो उस समय दोनों रकअतें वुज़ू की सुन्नत, तह़िय्यतुल मस्जिद और ज़ुहर की सुन्नत की ओर से पर्याप्त होंगी।

जो बात मुझे प्रतीत होती है, और वास्तविक ज्ञान अल्लाह के पास है, वह यह है कि रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के फरमान : (फिर वह दो रकअत नमाज़ पढ़े) : का मतलब स्वयं उसी उद्देश्य के लिए दो रकअत नमाज़ पढ़ना नहीं है, बल्कि उससे अभिप्राय दो रकअत नमाज़ अदा करना है, भले ही वह फ़र्ज़ नमाज़ हो।

इसके आधार पर, हम प्रश्नकर्ता द्वारा उल्लिखित उदाहरण के बारे में कहते हैं : ये दोनों रकअतें तह़िय्यतुल मस्जिद, नियमित सुन्नत और वुज़ू की सुन्नत की ओर से पर्याप्त हैं।

एक अन्य उदाहरण : एक व्यक्ति ने जुमा के दिन जनाबत की अशुद्धता से ग़ुस्ल किया, तो क्या यह उसके लिए जुमा के ग़ुस्ल की ओर से पर्याप्त होगाॽ

यदि उसने अपने जनाबत के ग़ुस्ल के साथ जुमा के ग़ुस्ल की नीयत की है, तो उसे यह हासिल हो सकता है क्योंकि रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : “हर इनसान के लिए वही है जो उसने नीयत की है।” लेकिन अगर वह (केवल) जनाबत के ग़ुस्ल की नीयत करे, तो क्या यह जुमा के गुस्ल की ओर से पर्याप्त होगाॽ

हम देखेंगे कि क्या जुमा का ग़ुस्ल स्वयं उद्दिष्ट है, या कि उसका उद्देश्य यह है कि इनसान उस दिन के लिए शुद्धता हासिल करेॽ

उसका उद्देश्य पवित्रता हासिल करना है। क्योंकि रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : “यदि तुम अपने इस दिन के लिए पाकी (शुद्धता) हासिल करते।” अतः इस ग़ुस्ल का उद्देश्य यह है कि इनसान जुमा के दिन साफ-सुथरा हो, और यह जनाबत का गुस्ल करने से प्राप्त हो जाता है। इसके आधार पर, यदि कोई व्यक्ति जुमा के दिन जनाबत की अशुद्धता से गुस्ल करता है, तो यह उसके लिए जुमा के गुस्ल की ओर से पर्याप्त होगा, अगरचे उसने उसकी नीयत न की हो। लेकिन यदि उसने इसकी नीयत की है, तो मामला बिल्कुल स्पष्ट है।” “मज्मूओ फतावा व रसाइल इब्ने उसैमीन” (14 / 299-302) से उद्धरण समाप्त हुआ।

इससे यह प्रत्यक्ष हुआ कि इस नियम को अच्छी तरह से समझना (नियंत्रित करना) इज्तिहाद के स्रोतों में से है, उसके हिसाब से जो एक विद्वान को शरई नुसूस के संसाधनों (क़ुरआन व ह़दीस), शरीयत के सिद्धांतों और बंदों के कार्य की मौलिकता या उसके दूसरे की अधीनता से संबंधित लिए गए निर्णय की रोशनी में जो बात प्रबल (राजेह) लगती है। यही कारण है कि अह़नाफ़ ने इसे इस तरह नियंत्रित किया है कि इबादतों का एक-दूसरे में शामिल होना केवल “इबादतों के साधनों” अर्थात् इबादतों की शर्तों में सही (मान्य) है, जैसे उदाहरण के तौर पर शुद्धता (पवित्रता)। इसलिए उनके निकट “साधनों” की नीयतों में “तदाखुल” (अर्थात एक कार्य में कई नीयतों का शामिल होना) सही (वैध) है। जैसे कि कोई व्यक्ति एक ही ग़ुस्ल से जनाबत (की अशुद्धता) को दूर करने और जुमा की नीयत करे।

लेकिन जहाँ तक “मक़ासिद” अर्थात स्वयं उन उद्दिष्ट इबादतों का संबंध है, तो उनमें कई इबादतों का एक-दूसरे में प्रवेश करना सही नहीं है। जैसे कि कोई व्यक्ति चार रकअतों के द्वारा उस समय की फ़र्ज़ नमाज़ और एक छूटी हुई नमाज़ की क़ज़ा करने की नीयत करे : तो यह सही (मान्य) नहीं है।

इब्ने रजब हंबली रहिमहुल्लाह कहते हैं :

“यदि एक ही समय में एक ही वर्ग की दो इबादतें इकट्ठी हो जाएँ, जिनमें से कोई एक क़ज़ा के तौर पर न की जा रही हो, और न ही वह उस समय की दूसरी इबादत के अधीनस्थ के तौर पर की जा रही हो; तो उन दोनों के कार्य एक-दूसरे में प्रवेश कर जाएँगे, और उनमें से किसी एक को करना पर्याप्त होगा।

इसके दो प्रकार हैं :

(उनमें से एक प्रकार) : उसे एक ही कृत्य के द्वारा दोनों इबादतें प्राप्त हो जाएँ; तो ऐसी स्थिति में प्रसिद्ध विचार के अनुसार उसके लिए एक साथ दोनों इबादतों की नीयत करना आवश्यक (शर्त) है।

इसके उदाहरणों में से यह है : एक व्यक्ति के ऊपर छोटी और बड़ी दोनों नापाकियाँ (अशुद्धताएँ) हैं; तो (हंबली) मत यह है कि बड़ी पवित्रता के कार्य उसके लिए पर्याप्त होंगे, यदि वह दोनों पवित्रताओं की नीयत एक साथ कर ले” ...

उन्होंने उसकी शाखाओं का विस्तार से उल्लेख किया है और उन्हें अपने मत के सिद्धांत के आधार पर बयान किया है, फिर उन्होंने कहा :

“(और दूसरा प्रकार) : उसे दोनों इबादतों में से एक उसकी नीयत के साथ प्राप्त हो जाए, और दूसरी उससे माफ़ हो जाए, और इसके कई उदाहरण हैं :

(उन्हीं में से) : अगर उसने मस्जिद में प्रवेश किया और नमाज़ खड़ी हो चुकी थी, तो उसने उनके साथ नमाज़ पढ़ी; उससे तह़िय्यतुल मस्जिद समाप्त हो जाएगी ...

(उन्हीं में से) : यदि उम्रा करने वाला मक्का आता है; तो वह उम्रा के तवाफ़ से शुरू करेगा, और क़ुदूम (आगमन) का तवाफ़ उससे समाप्त हो जाएगा ...

देखें : “क़वाइद इब्ने रजब” (1/142) और उसके बाद।

तथा अन्य मतों के फ़ुक़हा (धर्म शास्त्रियों) के उस चीज़ को नियंत्रित करने में, जिसमें कई इबादतों का एक-दूसरे में प्रवेश करना सही है और जिसमें सही नहीं है, कई विवरण हैं।

और अधिक लाभ (जानकारी) के लिए देखें : “अत्-तदाख़ुल व असरुहू फ़िल अह़काम अश-शरईय्यह”, लेखक : डॉ. मुहम्मद खालिद मनसूर (जो कि ऑनलाइन उपलब्ध है), पृष्ठ (63) और उसके बाद।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है। 

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर