हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
विवाह में यदि उसकी शर्तें और उसके स्तंभ (अरकान), जैसे कि ईजाब व क़बूल (प्रस्ताव और स्वीकृति) और पति-पत्नी की सहमति पाई जाती है, और यह दो गवाहों की उपस्थिति में अभिभावक या उसके वकील द्वारा अनुबंधित किया गया है, तो यह एक सही (वैध) विवाह है, भले ही उसे प्रमाणित (पंजीकृत) न किया गया हो, और यह प्रथागत विवाह का एक रूप है।
हमारे समय में शादी का दस्तावेजीकरण (पंजीकरण) करना अनिवार्य है। ताकि पति, पत्नी और बच्चे सभी के अधिकारों को संरक्षित किया जा सके। यदि उसने उसे पंजीकृत नहीं किया है, तो इस कर्तव्य को छोड़ने के कारण वह हराम (निषिद्ध) होगा। अतः वह निकाह सही है, लेकिन वह व्यक्ति गुनाहगार होगा जिसने बिना दस्तावेजीकरण के विवाह किया है।
तो यह किसी चीज़ के वैध और निषिद्ध होने का मतलब है, जबकि बिना अभिभावक के शादी करने का मामला इसके विपरीत है, क्योंकि वह निषिद्ध है और वैध नहीं है।
अगर पत्नी को अपने अधिकारों की परवाह नहीं है और वह बच्चे पैदा करना नहीं चाहती है, तो यह दस्तावेज़ीकरण की अनिवार्यता को समाप्त नहीं करता है। क्योंकि वह कभी शादी का इनकार कर सकती है, तो इस तरह पति का अधिकार खो जाएगा। तथा उसकी मृत्यु हो सकती है, तो उसका पति उसकी विरासत पाने में सक्षम नहीं होगा और उसका हक़ बर्बाद हो जाएगा। तथा वह बच्चे जनने की अनिच्छा के बावजूद जन्म दे सकती है और उस समय पति उसका पंजीकरण करने में असमर्थ होगा। इस तरह बच्चे का अधिकार खो जाएगा। ऐसा भी हो सकता है कि वह एक अवधि के लिए उससे शादी करके अपने पास रखे और फिर उसे छोड़ दे, और उसको तलाक़ देने से इनकार कर दे। फिर वह बीच में लंबित रहेगी, न तो वह किसी और से शादी कर सकेगी और न उसपर मुक़दमा कर सकेगी।
अतः दस्तावेज़ीकरण के अनिवार्य होने का कथन स्पष्ट है और उसमें पाया जाने वाला हित बहुत बड़ा और स्पष्ट है, तथा उसे छोड़ने और नज़रअंदाज़ करने में पाई जाने वाली ख़राबियाँ व बुराइयाँ सर्वज्ञात और प्रसिद्ध हैं, विशेष रूप से इन समयों में जब इनकार, नकार और अधिकारों को बर्बाद करने का बाहुल्य है, खासकर जब कुछ व्यक्तिगत स्थिति कानूनों (पर्सनल ला) ने “न्यायिक अदालतों को वैवाहिक मुकदमे की तब तक सुनवाई न करने या स्वीकार न करने के लिए बाध्य किया है जब तक कि आधिकारिक दस्तावेज़ प्रस्तुत नहीं किया जाता है। और इसी पर मिस्र की न्यायपालिका 1931 से चली आ रही है, जैसा कि 1951 के कानून संख्या (78) द्वारा संशोधित शरई न्यायालयों की व्यवस्था रेगुलेशन के अनुच्छेद (99) में निर्धारित किया गया है... और इन्हीं कानूनों में से कुवैती व्यक्तिगत स्थिति कानून भी है। चुनाँचे उसके अनुच्छेद (92), पैरा : (ए) में आया है : “इनकार करनी की स्थिति में वैवाहिक मुक़दमा नहीं सुना जाएगा, सिवाय इसके कि वह आधिकारिक विवाह प्रमाण-पत्र से साबित हो, या इनकार से पहले आधिकारिक दस्तावेजों में विवाह की स्वीकृति मौजूद हो।” उसामा उमर अल-अश्क़र की पुस्तक “मुस्तजिद्दात अल-फ़िक़्हिय्यह फी क़ज़ाया अज़-ज़वाज व अत्तलाक़” (पृष्ठ 145) से उद्धरण समाप्त हुआ।
पहले समय में, भ्रष्टाचार की कमी के कारण लोगों को इस दस्तावेज़ की आवश्यकता नहीं होती थी।
शैखुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्यह रहिमहुल्लाह ने कहा : सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम महर की राशियों को नहीं लिखते थे, क्योंकि वे विलंबित महर पर शादी नहीं करते थे, बल्कि वे त्वरित महर अदा करते थे। और अगर उन्होंने उसे विलंब कर दिया, तो वह अच्छी तरह से ज्ञात होता था। लेकिन जब लोग विलंबित महर पर शादी करने लगे, और उसकी अवधि लंबी होने लगी और उसे भुला दिया जाने लगा; तो वे विलंबित महर को लिखने लगे और वह महर को साबित करने के लिए तथा इस बात के लिए एक सबूत (प्रमाण) बन गया कि वह उसकी पत्नी है।” “मजमूओ फतावा शैखुल-इस्लाम” (32/131) से उद्धरण समाप्त हुआ।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।