हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
पहली बात :
बैंक के माध्यम से कोई वस्तु खरीदने के दो रूप हैं :
पहला : यह कि बैंक सिर्फ एक फाइनेंसर (वित्तपोषक) है, ग्राहक को वस्तु की कीमत उधार देता है या उसकी ओर से भुगतान करता है, ताकि बदले में वह राशि और कुछ अतिरिक्त (राशि) प्राप्त करे। जैसे कि वस्तु की कीमत एक हजार है, और वह इसे क़िस्तों में एक हजार दो सौ वापस लेता है। यह एक हराम तरीक़ा है; क्योंकि यह वास्तव में सूद सहित कर्ज (ब्याज सहित ऋण) है, इसलिए यह सूद है।
दूसरा : यह कि बैंक वस्तु को वास्तविक रूप में खरीदता है, फिर ग्राहक को अधिक आस्थगित मूल्य पर बेचता है।
इसमें कोई आपत्ति की बात नहीं है, और इसे खरीद का आदेश देने वाले को ‘मुराबहा बिक्री’ कहा जाता है। लेकिन बैंक के लिए ग्राहक के साथ बिक्री का अनुबंध करना तब तक जायज़ नहीं है जब तक कि वह वस्तु खरीद नहीं लेता है, क्योंकि इनसान को ऐसी चीज़ बेचने से मना किया गया है जो उसके पास नहीं है, जैसाकि हदीस में प्रमाणित है।
परंतु वह (बैंक) ग्राहक से उस वस्तु का मालिक बनते ही उसे खरीदने का वादा ले सकता है, लेकिन यह वादा बाध्यकारी नहीं है।
इसके आधार पर; अगर बैंक घर खरीदता है फिर आपको क़िस्तों में बेचता है, तो इसमें कोई हर्ज नहीं है। लेकिन अगर वह उसे नहीं खरीदता है, बल्कि वह आपको उसकी कीमत देता है या आपकी तरफ से उसका भुगतान करता है, इस शर्त पर कि वह उसे एक अतिरिक्त राशि के साथ क़िस्तों में वापस लेगा। तो यह रिबा (सूद) है, और सूद के बारे में जो कड़ी चेतावनी आई है वह छिपी नहीं है।
दूसरी बात :
आपने अपने भाइयों को घर की आवश्यकता के बारे में जो उल्लेख किया है, उसे सूद की अनुमति देने वाली ज़रूरत (आवश्यकता) नहीं माना जाता है, क्योंकि किराए पर लेने से उस नुकसान को दूर करना संभव है।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।