हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
सबसे पहले :
चारों मतों का इस बात पर मतैक्य है कि मोज़ों पर मसह करने की शर्तों में से यह भी है कि वे उस जगह को ढांके हुए हों जिसका धोना फर्ज़ है – यानी क़दम के साथ दोनों टखने -, यदि वे दोनों टखनों को ढांके हुए न हो तो उन पर मसह करना सही नहीं है। इसे वुज़ू पर क़ियास किया गया है ; तथा इसलिए कि जो अंग खुला हुआ है उसका फर्ज़ धोना है और जो ढंका हुआ है उसपर मसह करना फर्ज़ है। तथा बदल (अर्थात मसह) और जिससे बदला गया है (अर्थात धोना) दोनों को एक अंग में एकत्रित करना संभव नहीं है।
देखिए : खरशी की शरह ''मुख्तसर खलील'' (179), हाशिया क़लयूबी व उमैरह (1/68), ''अल-मौसूअतुल फिक़्हिय्या'' (37/264).
दूसरा :
इस मसअले में इजमाअ (सर्वसहमति) नहीं है, बल्कि विद्वानों के बीच मतभेद मौजूद है। कुछ विद्वानों ने मोज़े पर मसह करना जायज़ ठहराया है, चाहे वह दोनों टखनों से नीचे ही क्यों न हो, यह इब्ने हज़्म का कथन है और औज़ाई से भी उल्लेख किया गया है।
जबकि कुछ विद्वानों ने इससे मना किया है, जैसाकि चारों मतों के विद्वानों का मत है।
''अल-मुग़नी'' (1/80) में आया है : (मोज़ों या उनके क़ायम मक़ाम पर ही मसह किया जायेगा ; जैसे कि मक़तूअ या उसके समान, जबकि वह दोनों टखनों से ऊपर हो।) इसका अर्थ यह है, जबकि सर्वश्रेष्ठ ज्ञान अल्लाह के पास है, कि फर्ज़ की जगह को ढांकने में, उसे पहन कर चलने के संभावित होने, और अपने आप स्थिर रहने में मोज़े के समान और क़ायम मक़ाम हो। 'मक़तूअ' उस मोज़े को कहते हैं जिसकी पिंडली छोटी हो। उसके ऊपर मसह करना जायज़ है जब वह फर्ज़ की जगह को ढांकने वाला हो, उससे दोनों टखने न दिखाई देते हों; क्योंकि वह तंग या कसा हुआ होता है। यही बात इमाम शाफेई और सौर ने कही है। यदि वह दोनों टखनों से नीचे कटा हुआ है, तो उस पर मसह करना जायज़ नहीं है, यही मालिक से वर्णित सहीह कथन है।तथा उनसे और औज़ाई से मसह के जायज़ होने का कथन भी वर्णित है; क्योंकि वह भी मोज़ा है जिसमें चलना संभव है, अतः वह टखनों को ढांकने वाले के समान है।
और हमारा तर्क यह है कि वह फर्ज़ की जगह को नहीं ढांकता है, इसलिए वह जूतों के समान है।'' अंत हुआ।
इब्ने हज़्म रहिमहुल्लाह ने फरमाया : ''यदि दोनों मोज़े टखनों से नीचे कटे हुए हैं तो उन पर मसह करना जायज़ है। यही औज़ाई का भी कथन है। उनसे रिवायत किया गया है कि उन्हों ने कहा : मोहरिम दोनों टखनों से नीचे कटे हुए मोज़ों पर मसह करेगा, जबकि उनके अलावा का कथन है कि वह उस पर मसह नहीं करेगा मगर यह कि वे दोनों टखनों से ऊपर हों। अली (अर्थात इब्ने हज़्म) कहते हैं : अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से सहीह तरीक़ से वर्णित है कि आप ने दोनों मोज़ों पर मसह करने का आदेश दिया, और आप ने जुर्राब पर मसह किया।'' अगर यहाँ पर (मोज़े की) कोई निर्धारित सीमा होती तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उसे ऐसे ही न छोड़ते। इसलिए स्पष्ट हो गया कि जिसे भी मोज़ा या जुर्राब की संज्ञा दी जाती है या उसे दोनों पैरों में पहना जाता है, तो उस पर मसह करना जायज़ है . . ''अल-मुहल्ला'' (1/336).
चारों मतों का किसी कथन पर इत्तिफाक़ कर लेने का अर्थ यह नहीं है कि उसपर सर्वसहमति है। जब खुलफाये राशिदीन रज़ियल्लाहु अन्हुम का किसी चीज़ पर एकमत होना इजमाअ (सर्वसहमति) नहीं समझा जाता है, तो फिर उनके अलावा का इत्तिफाक़ तो और भी इजमाअ (सर्वसहमति) नहीं समझा जायेगा।
शैख मुहम्मद अल-अमीन बिन मुख़्तार अश-शंक़ीती रहिमहुल्लाह के ''मुज़क्करतो उसूलिल फिक़ह'' में आया है : ''जमहूर विद्वानों के मतानुसार किसी ज़माने के अक्सर लोगों के कथन से इजमाअ (सर्वसम्मत) स्थापित नहीं हो सकता। इब्ने जरीर तबरी और अबू बक्र रावी का कहना है : एक या दो आदमियों के विरोध का कोई एतिबार (मान्य) नहीं है। अतः इजमाअ में उनका विरोध आपत्तिजनक नहीं है। इमाम अहमद ने भी इसी का संकेत दिया है। जमहूर की दलील यह है कि उम्मत के समस्त विद्वानों के कथन का एतिबार है, क्योंकि गलती पर एकत्र होने से बचाव उम्मत के योग को प्राप्त है उसके कुछ को यह प्रतिष्ठा हासिल नहीं है। जबकि दूसरे लोगों ने अक्सर का एतिबार किया है, कमतरीन को निरस्त कर दिया है।'' ''मुज़क्करतो उसूलिल फिक़्ह'' (1/156) से अंत हुआ।
तथा उसमें यह भी है कि : ''जमहूर के निकट चारों खलीफाओं का एकमत, इजमाअ (सर्वसम्मत) नही है, सहीह बात यह है कि वह हुज्जत है, इजमाअ नहीं है क्योंकि इजमाअ सब लोगों के मत से होता है।''