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सलातुस्साबीह के बारे में कोई भी हदीस सहीह नहीं है

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प्रकाशन की तिथि : 16-03-2014

दृश्य : 12011

प्रश्न

मैं सलातुत्तस्साबीह के बारे जानना चाहता हूँ, जिसके बार में वर्णन किया गया है कि वह अति महत्वपूर्ण है। उसका प्रमाण अबू दाऊद और तिर्मिज़ी से है, लेकिन हदीस संख्या मालूम नहीं, उस हदीस में है कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने चाचा अब्बास रयिल्लाहु अन्हु व अरज़ाहो से फरमाया : ‘‘ऐ चाचा! क्या मैं आपको न दूँ? क्या मैं आपको न प्रदान करूँ? क्या मैं आपको न अता करूँ? क्या मैं आपके साथ भलाई न करूँ? यह दस चीज़ें हैं, अगर आप इन्हें कर लें तो अल्लाह तआला आपके अगले और पिछले, नये और पुराने, गलती से किए गए और जान बूझकर किए गए, छोटे और बड़े, तथा गुप्त और प्रत्यक्ष सभी पापों को क्षमा कर देगा। यह दस गुण हुए, आप चार रकअतें नमाज़ पढ़ें, हर रकअत में सूरतुल फातिहा और कोई एक सूरत पढ़ें, क़ुरआन से फारिग होने के बाद पंद्रह बार यह दुआ पढ़ें : सुब्हानल्लाह, वल-हम्दुलिल्लाह, व ला इलाहा इल्लल्लाह, वल्लाहु अक्बर''। फिर रूकूअ करें और रूकूअ की हालत में वही दुआ दस बार पढ़ें, फिर रुकूअ से अपना सिर उठाएं, तो वही दुआ दस बार पढ़ें। फिर सज्दे में जाएं और सज्दे की हालत में दस बार वही दुआ पढ़ें। फिर सज्दे से अपना सिर उठाएं और दस बार वही दुआ पढ़ें। फिर आप सज्दा करें और दस बार वही दुआ पढ़ें। फिर सज्दे से अपना सिर उठाएं और दस बार वही दुआ पढ़ें। यह हर रकअत में पचहत्तर बार होगए। इसी तरह आप चारों रकअतों में करें। यदि आप हर दिन एक बार यह नमाज़ पढ़ सकते हैं तो पढ़ें, यदि ऐसा नहीं कर सकते तो हर जुमा को एक बार, यदि यह भी नहीं कर सकते तो हर महीने में एक बार, अगर यह नहीं कर सकते तो हर साल एक बार और यदि यह भी नहीं कर सकते तो अपने जीवन में एक बार पढ़ें।

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

सबसे पहले :

अबू दाऊद ने अपनी सुनन (हदीस संख्या : 1297) इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत किया है कि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब से कहा : ऐ अब्बास ऐ मेरे चाचा! क्या मैं आपको न दूँ? क्या मैं आपको न प्रदान करूँ? क्या मैं आपको न अता करूँ? क्या मैं आपके साथ भलाई न करूँ? यह दस चीज़ें हैं, अगर आप इन्हें कर लें तो अल्लाह तआला आपके अगले और पिछले, नये और पुराने, गलती से किए गए और जान बूझकर किए गए, छोटे और बड़े, तथा गुप्त और प्रत्यक्ष सभी पापों को क्षमा कर देगा, वे दस चीज़ें यह हैं कि आप चार रकअत नमाज़ पढ़ें, हर रकअत में सूरतुल फातिहा और कोई एक सूरत पढ़ें, पहली रकअत में क़ुरआन पढ़ने से फारिग होने के बाद खड़े होने की हालत में पंद्रह बार ''सुब्हानल्लाह, वल-हम्दुलिल्लाह, व ला इलाहा इल्लल्लाह, वल्लाहु अक्बर'' पढ़ें। फिर रुकूअ करें और रुकूअ की हालत में यह दुआ दस बार पढ़ें, फिर रुकूअ से अपना सिर उठाएं और यही दुआ दस बार पढ़ें। फिर सज्दे में जाएं और सज्दे की हालत में दस बार यही दुआ पढ़ें। फिर सज्दे से अपना सिर उठाएं और दस बार यही दुआ पढ़ें। फिर आप सज्दा करें और दस बार यही दुआ पढ़ें। फिर सज्दे से अपना सिर उठाएं और दस बार यही दुआ पढ़ें। तो यह हर रकअत में पचहत्तर बार होगए। इसी तरह आप चारों रकअतों में करें। यदि आप हर दिन एक बार यह नमाज़ पढ़ सकते हैं तो पढ़ें, यदि ऐसा नहीं कर सकते तो हर जुमा को एक बार, यदि यह भी न कर सकें तो हर महीने में एक बार, अगर यह भी न हो सके तो हर साल एक बार और यदि यह भी नहीं कर सकें तो अपने जीवन में एक बार पढ़ें।''

तिर्मिज़ी ने इसी हदीस के समान अबू राफे की रिवायत से वर्णन किया है। (किताब: अस्सलात, बाब: मा जाआ फी सलातित्-तस्बीह, हदीस संख्या : 482).

तो इस हदीस में सलातुत्-तसाबीह के तरीक़ा का वर्णन किया गया है।

दूसरा :

विद्वानों ने सलातुत-तसाबीह की वैद्धता के बारे में मतभेद किया है, उनके मतभेद का कारण उनके इस विषय में वर्णित हदीस की प्रामाणिकता (सबूत) के बारे में उनका मतभेद है, उनमें से गवेषक विद्वान उस हदीस को ज़ईफ़ समझते हैं।

1.इब्ने क़ुदामा रहिमहुल्लाह ''अल-मुग़नी'' (1/438) में कहते हैं: ''जहाँ तक सलातुत-तस्बीह का सबंध है, तो इमाम अहमद का कहना है: यह मुझे पसंद नहीं है। उनसे से पूछा गया कि : क्यों? तो फरमाया : उसके बारे में कोई सही चीज़ वर्णित नहीं है। और नकारने वाले की तरह उससे अपना हाथ झाड़ लिया।'' अंत हुआ।

2.नववी रहिमहुल्लाह ने ''अल-मजमूअ शरहुल मुहज़्ज़ब'' (3/547-548) में फरमाया : ''क़ाज़ी हुसैन, तथा 'अत-तहज़ीब' और 'अत-ततिम्मा' के लेखकों का कहना है: सलातुत-तस्बीह, उसकी बाबत वर्णित हदीस की वजह से, मुसतहब है। हालांकि इसके मुसतहब होने का मामला विचार योग्य है, क्योंकि उसकी हदीस ज़ईफ़ (कमज़ोर) है, और उसमें नमाज़ की नियमित प्रारूप में परिवर्तन है। अतः उचित यह है कि किसी हदीस के आधार के बिना उसे न किया जाए, और उसकी हदीस प्रमाणित (साबित) नहीं है। और वह इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा की हदीस है कि उन्हों ने कहा : (अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु से कहा: ऐ अब्बास ऐ मेरे चाचा! क्या मैं आपको न दूँ? क्या मैं आपको न प्रदान करूँ? क्या मैं आपको न अता करूँ? क्या मैं आपके साथ भलाई न करूँ?यह दस चीज़ें . . . हदीस के अंत तक) इसे अबू दाऊद और इब्ने माजा ने रिवायत किया है, तथा तिर्मिज़ी ने इसे अबू राफे की रिवायत से इसी के अर्थ में रिवायत किया है। तिर्मिज़ी ने फरमाया : नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से सलातुत तस्बीह के बारे में कई हदीसें वर्णित हैं, और उसमें से कोई बड़ी चीज़ सही नहीं है। उक़ैली ने कहा है: सलातुत तस्बीह के बारे में कोई हदीस साबित नहीं है।'' कुछ संशोधन के साथ समाप्त हुआ।

3.शैखुल इस्लाम रहिमहुल्लाह ''मजमूओ फ़तावा'' (11/579) में फरमाते हैं : ''इन नमाज़ों से संबंधित वर्णित हदीसों में सबसे अच्छी सलातुत तस्बीह की हदीस है। इस हदीस को अबू दाऊद और तिर्मिज़ी ने रिवायत किया है। इसके बावजूद, चारों इमामों में से कोई एक भी इसका क़ायल नहीं है, बल्कि इमाम अहमद ने इसकी हदीस को ज़ईफ ठहराया है और इन नमाज़ों को मुसतहब नहीं समझा है। जहाँ तक इब्नुल मुबारक का संबंध है, तो उनसे यह बात उल्लिखित है कि वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से मरफूअन साबित नमाज़ की तरह नहीं है। क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से मरफूअन वर्णित हदीस में दूसरे सज्दा के बाद लंबा क़ादा (बैठक) नहीं है, यह सिद्धांतों के विरूद्ध है, इसलिए इस तरह की हदीस के द्वारा उसे साबित करना जायज़ नहीं है।

जो व्यक्ति सिद्धांतों में मननचिंतन करेगा उसे पता चल जायेगा कि यह और इसके समान चीज़ें मनगढ़ंत हैं, क्योंकि ये सब की सब, ज्ञानियों की सर्वसहमति के साथ, मनगढ़ंत झूठी हदीसें हैं।'' शैखुल इस्लाम की बात समाप्त हुई।

4.शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने ''मजमूओ फतावा इब्ने उसैमीन'' (14/327) में फरमाया : ‘‘मेरे निकट राजेह बात यह है कि सलातुत तस्बीह सुन्नत नहीं है, और उसकी हदीस ज़ईफ़ है, और इसके कुछ कारण हैं :

पहला कारण : इबादतों (उपासना के कार्यों) में मूल सिद्धांत निषेध और प्रतिबंध है यहाँ तक कि कोई प्रमाण स्थापित हो जाए जो उसकी वैधता को साबित करता हो।

दूसरा : उसकी हदीस मुज़तरिब है, उसके अंदर कई रूपों से मतभेद पाया जाता है।

तीसरा : इसे इमामों में से किसी एक ने भी मुसतहब नहीं समझा है। शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिया रहिमहुल्लाह ने फरमाया : ''अहमद और उनके अनुयायियों के इमामों ने उसके अनेच्छिक होने को स्पष्ट किया है और किसी इमाम ने उसे मुसतहब नहीं समझा है।'' तथा वह कहते हैं : ''रही बात अबू हनीफा, मालिक और शाफेइ की, तो इन्हों ने सिरे से इसे सुना ही नहीं है।''

चौथा : यदि यह नमाज़ धर्मसंगत होती तो इसे उम्मत के लिए इस तरह उल्लेख किया जाता कि उसमें कोई संदेह नहीं रह जाता, तथा वह उनके बीच सुपरिचित होती क्योंकि उसका लाभ महान है और वह नियमित इबादतों के वर्ग से अलग-थलग है। हम कोई ऐसी इबादत नहीं जानते जिसमें इस प्रकार चुनाव का विकल्प दिया जाता है कि उसे प्रति दिन, या सप्ताह में एक बार, या महीने में एक बार, या साल में एक बार, या जीवन में एक बार किया जाए। जब उसका लाभ महान है, वह नमाज़ों के वर्ग से अलग-थलग है, फिर भी वह सुपरिचित नहीं है और उसका उल्लेख नहीं किया गया, तो इससे पता चला कि : उसका कोई आधार नहीं है। यह इसलिए कि जो चीज़ अपने समान चीज़ों से अलग होती है और उसका लाभ महान होता है, तो लोग उस पर ध्यान केंद्रित करते हैं और उसका संचार करते हैं और वह चीज़ उनके बीच प्रत्यक्ष रूप से सुपरिचित होती है। अतः जब यह चीज़ इस नमाज़ के अंदर नहीं पाई गई, तो पता चला कि यह वैद्ध नहीं है। इसीलिए किसी इमाम ने इसे मुसतहब नहीं समझा है, जैसाकि शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिया रहिमहुल्लाह ने कहा है। तथा जिन नफ्ल नमाज़ों की वैधता प्रमाणित है, उसमें उस व्यक्ति के लिए बड़ी खैर व बरकत है जो अधिक भलाई का इच्छुक है। वह साबित और प्रमाणित चीज़ों के द्वारा उन चीजों से निस्पृह और बेनियाज़ है जिनमें मतभेद और संदेह पाया जाता है।'' अंत हुआ।

तथा अतिरिक्त लाभ के लिए प्रश्न संख्या (14320) देखें।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर