हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
अल्लाह की प्रशंसा और गुणगान के बाद :
कुफ्र की यथार्थता और उसके भेदों के विषय में बात लम्बी है, किन्तु हम यहाँ पर निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से उन के बारे में सार रूप से बात करें गे :
प्रथम : कुफ्र और उसकी क़िस्मों के बारे में जानकारी का महत्व :
क़ुर्आन व हदीस के नुसूस (मूल शब्द) इस बात पर दलालत करते हैं कि दो बातों के बिना ईमान शुद्ध और स्वीकृत नहीं हो सकता - वही दोनों ला-इलाहा-इल्लल्लाह की गवाही का अर्थ भी हैं- और वह दोनों बातें हैं एकेश्वरवाद (तौहीद) को मानते हुए अपने आप को अल्लाह के प्रति समर्पित कर देना, और हर प्रकार के कुफ्र और शिर्क से लाताल्लुक़ी और बराअत (अलगाव) का प्रदर्शन करना।
और मनुष्य के लिए किसी चीज़ से बराअत और अलगाव का प्रदर्शन करना और उस से बचाव करना उस वक्त तक संभव नहीं है जब तक कि उसे उस के बारे में अच्छी तरह जानकारी और पुख्ता ज्ञान न हो। इस से पता चला कि तौहीद का ज्ञान प्राप्त करना कितना ज़रूरी है ताकि आदमी उस पर अमल कर सके और उसके अनुसार अपने आप को ढाल सके, तथा शिर्क के बारे में भी जानकारी हासिल करना आवश्यक है ताकि आदमी उस से बचाव कर सके और दूर रहे।
द्वितीय : कुफ्र की परिभाषा :
कुफ्र का शाब्दिक अर्थ : किसी चीज़े को छुपाने और ढांकने के हैं।
शरीअत की शब्दावली में कुफ्र की परिभाषा : "अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान न रखना, चाहे ईमान न रखने के साथ झुठलाना भी पाया जाता हो या उसके साथ झुठलाना न पाया जाता हो बल्कि संदेह और शंका हो, या हसद या घमण्ड या रिसालत (ईश्दूतत्व) के अनुसरण से रोकने वाली इच्छाओं के पीछे चलने के कारण ईमान से मुँह मोड़ना हो। अत: कुफ्र हर उस व्यक्ति का गुण (विशेषण) है जिस ने जानकारी रखने के बाद भी उन में से किसी एक चीज़ को भी नकार दिया जिस पर अल्लाह तआला ने ईमान लाना अनिवार्य किया है, चाहे उसने केवल अपने दिल से इंकार किया हो, या केवल ज़ुबान से नकारा हो, या दिल और ज़ुबान दोनों से एक साथ नकारा हो, या उस ने कोई ऐसा काम किया जिस के बारे में कोई स्पष्ट प्रमाण (नस) आया है कि उसका करने वाला ईमान की संज्ञा से बाहर निकल जाता है।" देखिये : मज्मूउल फतावा, लेखक :शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्यह 12/335 तथा अल-एहकाम फी उसूलिल-अहकाम, लेखक :इब्ने हज्म 1/45
इब्ने हज्म अपनी किताब 'अल-फिसल' में कहते हैं :"जिस चीज़ के बारे में विशुद्ध रूप से प्रमाणित है कि उसकी पुष्टि किये बिना ईमान नहीं है तो उस में से किसी भी चीज़ को नकारना कुफ्र है, जिस चीज़ के बारे में विशुद्ध रूप से प्रमाणित है कि उस का बोलना कुफ्र है तो उसका बोलना कुफ्र है और जिस चीज़ के बारे में विशुद्ध रूप से प्रमाणित है कि वह कुफ्र है तो उस पर अमल करना कुफ्र है।"
तीसरा : धर्म से निष्कासित कर देने वाले कुफ्र अक्बर की क़िस्में (भेद) :
उलमा (धर्म-ज्ञानियों) ने कुफ्र को कई भेदों में विभाजित किये हैं जिन के अन्तरगत कुफ्र की बहुत सारी शकलें और क़िस्में आती हैं और वो निम्नलिखित हैं :
1- इंकार और झुठलाने का कुफ्र : यह कुफ्र कभी दिल से झुठलाने के द्वारा होता है -इब्नुल क़ैयिम रहिमहुल्लाह के कथनानुसार कुफ्फार के अंदर यह कुफ्र कम पाया जाता है- और कभी ज़ुबान या अंगों के द्वारा झुठलाने के द्वारा होता है, और वह इस प्रकार कि हक़ (सत्य) का ज्ञान रखते हुये और बातिनी (आंतरिक) तौर पर उसकी जानकारी रखते हुए भी हक़ को छुपाना और ज़ाहरी तौर पर उसकी ताबेदारी न करना, जैसेकि यहूदियों ने मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ कुफ्र किया, अल्लाह तआला ने उनके बारे में फरमाया है : "जब उनके पास वह आ गया जिसे वो जानते थे तो उन्हों ने उस के साथ कुफ्र किया।" (सूरतुल बक़रा : 89) तथा अल्लाह तआला ने फरमाया :"उन में का एक दल जानते हुए भी हक़ को छुपाता है।" (सूरतुल बक़रा : 146) इसका कारण यह है कि झुठलाना उसी आदमी की तरफ से संभव है जो हक़ को जानता हो फिर उसे नकार दे। इसी लिए अल्लाह तआला ने इस बात का खण्डन किया है कि कुफ्फार (मक्का के नास्तिकों) का रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को झुठलाना सच्चाई पर आधारित और बातिनी तौर पर (दिल की गहराई से ) था, बल्कि उनका झुठलाना मात्र ज़ुबान से था, चुनाँचि अल्लाह तआला ने फरमाया :"नि:सन्देह यह लोग आप को झूठा नहीं कहते हैं, परन्तु ये ज़ालिम लोग अल्लाह की आयतों को नकारते हैं।" (सूरतुल अंआम :33) तथा फिर्औन और उसकी क़ौम के बारे में फरमाया :"उन्हों ने उसका इनकार कर दिया हालाँकि उनके दिल विश्वास कर चुके थे, अत्याचार और घमण्ड के कारण।" (सूरतुन्नम्ल :14)
इसी कुफ्र से संबंधित किसी हराम चीज़ को हलाल समझने का कुफ्र भी है, चुनाँचि जिस ने किसी ऐसी चीज़ को हलाल ठहरा लिया जिसका शरीअत में हराम होना ज्ञात (निश्चित) है, तो उसने रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की लाई हुई शरीअत को झुठला दिया, और यही हुक्म उस आदमी का भी है जिस ने शरीअत में किसी हलाल चीज़ को हराम क़रार दिया।
2- मुँह फेरने और घमण्ड करने का कुफ्र : जैसे कि इबलीस का कुफ्र था जिस के बारे में अल्लाह तआला फरमाता है :"सिवाय इबलीस के कि उस ने इनकार किया और धमण्ड किया और काफिरों में से हो गया।" (सूरतुल बक़रा :34)
और जैसा कि अल्लाह तआला का फरमान है :"और वो लोग कहते हैं कि हम अल्लाह तआला पर और रसूल पर ईमान लाये और हम ने आज्ञा पालन किया, फिर इसके बाद भी उन में का एक दल मुँह फेर लेता है, वो लोग ईमान वाले (विश्वासी) नहीं हैं।" (सूरतुन्नूर :47) इस आयत में अल्लाह तआला ने उस आदमी के ईमान का इनकार किया है जो अमल करने से उपेक्षा करे, यद्यपि उस ने कथन से ईमान का इक़रार किया हो। इस से स्पष्ट हो गया कि मुँह फेरने का कुफ्र यह है कि : इंसान हक़ को छोड़ दे, न तो उस को सीखे और न ही उस पर अमल करे, चाहे वह कथन के द्वारा हो या कर्म के द्वारा हो, या आस्था (दिल के विश्वास) के द्वारा हो। अल्लाह तआला फरमाता है :"काफिर लोग जिस चीज़ से डराये जाते हैं, मुँह फेर लेते हैं।" (सूरतुल अह्क़ाफ :3) अत: जिस आदमी ने रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की लाई हुई बातों से अपने कथन के द्वारा मुँह फेर लिया जैसे कि किसी ने कह दिया कि मैं उस का पालन नहीं करता, या कर्म के द्वारा उपेक्षा किया जैसे कि कोई आदमी आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के द्वारा लाये हुए हक़ को सुनने से भागे और मुँह फेर ले, या अपनी दोनों अंगुलियों को दोनों कानों में डाल ले ताकि हक़ को न सुन सके, या उसे सुने तो, परन्तु उस पर दिल से विश्वास करने से उपेक्षा करे, और अपने अंगों से उस पर अमल करने से मुँह फेर ले, तो उसने एराज़ (उपेक्षा करने और मुँह फेर लेने ) का कुफ्र किया।
3- निफाक़ (पाखंड ) का कुफ्र : लोगों को दिखाने के लिए प्रत्यक्ष रूप से आज्ञा पालन करना, लेकिन दिल से उसे सच्चा न मानना और न ही दिल से अमल करना जैसे कि इब्ने सलूल और अन्य शेष मुनाफिक़ों (पाखंडियों) का कुफ्र था जिन के बारे में अल्लाह तआला ने फरमाया है : "कुछ लोग ऐसे हैं जो कहते हैं कि हम अल्लाह पर और परलोक (आखिरत के दिन) पर ईमान रखते हैं, हालांकि वे ईमान वाले नहीं हैं, वे अल्लाह तआला और मोमिनों को धोखा देते हैं, हालांकि वास्तव में वे केवल अपने आप को धोखा दे रहे हैं, लेकिन वे समझते नहीं।" (सूरतुल बक़रा :8-20)
4- सन्देह और शंका का कुफ्र : इस से अभिप्राय यह है कि हक़ का अनुपालन करने में सन्देह करना या उसके हक़ होने में सन्देह करना, क्योंकि आवश्यक तो यह है कि इस बात पर यक़ीन और विश्वास हो कि रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जो कुछ लेकर आये हैं वह हक़ है, उस में कोई सन्देह नहीं है, अत: जिस ने इस बात को वैध ठहराया कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सललम जो कुछ लेकर आये हैं वह हक़ नहीं है तो उसने शक या गुमान का कुफ्र किया, जैसाकि अल्लाह तआला का फरमान है : "और वह अपने बाग में गया और था अपनी जान पर ज़ुल्म करने वाला, कहने लगा कि मैं गुमान नहीं कर सकता कि कभी भी यह बरबाद हो जाये। और मैं तो यह भी गुमान नहीं करता कि क़ियामत क़ायम होगी, और अगर मान भी लूँ कि मैं अपने रब की तरफ लौटाया भी गया तो यक़ीनन मैं (उस लौटने की जगह को) इस से भी अच्छी जगह पाऊँगा। उसके साथी ने उससे बातें करते हुये कहा कि क्या तू उस परवरदिगार का मुन्किर है जिसने तुझे (पहले) मिट्टी से पैदा किया, फिर नुत्फे (वीर्य) से फिर तुझे पूरा आदमी (इंसान) बना दिया। लेकिन मैं (तो विश्वास रखता हूँ कि) वही अल्लाह मेरा परवरदिगार है और मैं अपने परवरदिगार के साथ किसी को भी साझीदार नहीं बनाऊँगा।" (सूरतुल कह्फ :35-38)
ऊपर विर्णत बातों का सारांश यह निकला कि कुफ्र -जो कि ईमान का विलोम शब्द है- कभी दिल से झुठलाने का नाम होता है, इस प्रकार वह दिल के कथन अथाZत् उसकी पुष्टि (तस्दीक़) के विपरीत है, तथा कभी-कभार कुफ्र दिल का एक कार्य (अमल) होता है जैसे कि अल्लाह तआला या उसकी आयतों, या उसके पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से बुग्ज़ (द्वेष ) रखना, और यह ईमानी महब्बत (विश्वास पूर्ण या विश्वसनीय महब्बत) के विपरीत और विरूद्ध है जो कि हृदय का सबसे महत्वपूर्ण और पक्का कार्य है। इसी तरह कुफ्र कभी प्रत्यक्ष कथन होता है जैसे अल्लाह को गाली देना (बुरा-भला कहना), और कभी प्रत्यक्ष कार्य होता है जैसे कि मूर्ति को सज्दा करना और अल्लाह के अलावा किसी दूसरे के लिए पशु की बलि देना। चुनाँचि जिस प्रकार कि ईमान दिल, ज़ुबान और शारीरिक अंगों के द्वारा होता है, उसी तरह कुफ्र भी दिल, ज़ुबान और शरीर के अंगों द्वारा होता है।
अल्लाह तआला से हमारी प्रार्थना है कि वह हमें कुफ्र और उसकी शाखाओं से अपने शरण में रखे, हमें ईमान के श्रृंगार से सुसज्जित कर दे, और हमें निर्देशित (मार्गदर्शन-प्राप्त) मार्गदर्शक बना दे ... आमीन। और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ जानने वाला है।
देखिये : (आलामुस्सुन्नह अल-मन्शूरह पृ0 177) तथा (नवाकिज़ुल-ईमान अल-क़ौलिय्यह वल-अम-लिय्यह, लेखक : अब्दुल अज़ीज़ आल अब्दुल्लतीफ पृ0 36-46) तथा (ज़वाबितुत्तक्फीर, लेखक : अब्दुल्लाह अल-क़र्नी पृ0 183-196)