गुरुवार 9 शव्वाल 1445 - 18 अप्रैल 2024
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चोरी के धन से तौबा केवल उसे उसके मालिक या उसकी मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारियों को वापस करने से हो सकती है।

प्रश्न

उसने कई साल पहले जबकि वह अपनी युवावस्था में था अपने दादा और दादी के पैसे से चुराये थे, फिर उसने तौबा कर लिया और अब तौबा पूरा करने के लिए वह उन हुक़ूक़ को उनके मालिकों को वापस करना शुरू कर रहा है। तो क्या उसके लिए उनकी मृत्यु के बाद चुराए गए धन का मूल्य दान करना जायज़ हैॽ क्योंकि उनके वारिसों (उत्तराधिकारियों) तक पहुँचना कठिन है और उनकी संख्या अधिक है, तथा इस शहर में पैसे की जरूरत वाले लोगों की बड़ी संख्या है। इसलिए वह समझता है कि इसमें उन दोनों (दादा एवं दादी) के लिए इस धन का अनुदान करने के अज्र व सवाब तक पहुँचना है।

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

मनुष्यों के अधिकारों के संबंध में तौबा के सही होने के लिएः छीने हुए हुकूक को उनके मालिकों को लौटाना अथवा उनसे माफ़ करा लेना शर्त है। जैसा कि इमाम बुखारी (हदीस संख्या : 2449) ने अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : “जिस किसी के पास अपने भाई का उसके सतीत्व या किसी अन्य चीज़ से संबंधित कोई अत्याचार (या छीना हुआ हक़) हो तो उसे आज ही उससे छुटकारा हासिल कर लेना चाहिए। इससे पहले कि वह दिन आ जाए जिसमें दिरहम और दिनार नहीं होंगे। यदि उसके पास नेक कार्य है तो उसमें से उसके अत्याचार के बराबर ले लिया जायेगा, और अगर उसके पास नेकियाँ नहीं हैं तो उसके साथी की बुराइयाँ लेकर उसके ऊपर डाल डाल दी जाएँगी।”

यदि किसी व्यक्ति ने किसी अन्य व्यक्ति के धन की चोरी की है और उसके लिए उस आदमी को इसके बारे में बताना कठिन है, या उसे डर है कि उसे बताने से खराबी बढ़ जाएगी, जैसे कि उन दोनों के बीच संबंध टूट जाएंगे। तो उसके लिए उसे बताना ज़रूरी नहीं है। बल्कि वह किसी भी संभव तरीक़े से उसे धन लौटा देगा। जैसे कि उसे उसके खाते में जमा करा दे, या किसी आदमी को दे दे जो उसे उसके पास पहुँचा दे, इत्यादि।

दूसरी बात : 

सवाल करने वाले पर अपने दादा और दादी के उत्तराधिकारियों को पैसा वापस करना वाजिब है, भले ही उसके लिए ऐसा करना कठिन हो, जब तक कि ऐसा करना संभव है। धन लौटाना संभव होने लेकिन कठिन होने के बीच, तथा धन लौटाना दुर्लभ व असंभव होने के बीच अंतर है। चुनाँचे संभव होने की अवस्था में धन को उसके उन मालिकों को लौटाना अनिवार्य है जो उसके हक़दार हैं और उन्हीं लोगों को इस धन के खर्च करने का अधिकार है। तथा किसी और के लिए उनके ज्ञान के बिना उनके धन को दान करना जायज़ नहीं है, भले ही उस शहर में जिसमें आप लोग रहते हैं गरीबों की संख्या बहुत अधिक है। लेकिन यह किसी व्यक्ति के लिए जायज़ नहीं ठहराता है कि वह दूसरे के धन को उनपर दान करे। वह अपने धन में से जितना चाहे दान कर सकता है।

शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह कहते हैं: धन को उनके मालिकों तक पहुँचाना अनिवार्य है जब तक कि वे जाने जाते हैं, या उनके ऐसे वारिस हैं जो ज्ञात हैं तो उसे उन तक पहुँचाना ज़रूरी है। लेकिन अगर आप उन्हें भूल गए हैं या आप उन्हें बिलकुल नहीं जानते हैं, अथवा आप उनके अस्तित्व से और उन्हें खोजने से निराश हो चुके हैं, तो आप उनकी तरफ से उसे दान करदें। लेकिन यदि वे जाने जाते हैं या वे मर गए हैं और उनके उत्तराधिकारियों को जाना जाता है, तो किसी व्यक्ति के लिए उनके पास जाना और यह कहना कठिन हो सकता है किः यह वह धन है जो मैंने आप से बिना अधिकार के लिया था, तो आप मेरे पश्चाताप को स्वीकार करें और इसे ले लें। ऐसा कहना मुश्किल हो सकता है। और शैतान उनके दिल में यह बात डाल सकता है कि आप ने जितना दिया है उससे अधिक लिया था। तो इस तरह की स्थिति में आप किसी धार्मिक, बुद्धिमान और भरोसेमंद व्यक्ति को देखें और उससे कहें : मेरे भाई! ऐसा ऐसा मामला है, फलाँ व्यक्ति का, या उसके वारिसों का यदि वह मर चुका है, मेरे पास इतना धन है। अगर अल्लाह ने चाहा तो वह व्यक्ति आपको भार-मुक्त कराने में आपकी सहायता करेगा। वह हक़ वाले व्यक्ति से बात करेगा और कहेगा : यह व्यक्ति एक नेक आदमी है जिसने अल्लाह से तौबा कर लिया है, इसने आपके साथ इस तरह के धन के साथ अन्याय किया था, तो यह तुम्हारा माल है। इस प्रकार आपके दायित्व का निष्पादन हो जाएगा। क्योंकि विद्वानों का कहना है किः वह धन जिसका मालिक ज्ञात है उसे उसके मालिक तक पहुँचाना आवश्यक है।"

“अल्लिक़ाउश्शह्री” संख्याः 31” से अंत हुआ।

यदि मनुष्य अपनी यथाशक्ति अल्लाह से डरेगा और अधिकारों को उनके मालिकों तक पहुँचाने के लिए उत्सुक होगा, तो अल्लाह उसके लिए यह मामला सरल कर देगा, चाहे उसे कितना भी ऐसा प्रतीत हो कि यह असंभव या कठिन है।

प्रश्न पूछने वाले का यह कहना किः “इसलिए वह समझता है कि इसमें उन दोनों (दादा एवं दादी) के लिए इस धन का अनुदान करने के अज्र व सवाब तक पहुँचना है।”

तो इसका उत्तर यह है कि वह धन अब दादा और दादी की संपत्ति नहीं है, बल्कि वह उनके वारिसों की संपत्ति हो गई।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर