रविवार 10 रबीउस्सानी 1446 - 13 अक्टूबर 2024
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तरावीह़ और रात के अंत में तहज्जुद के बीच विभाजन की वैधता

प्रश्न

मैंने यूट्यूब (YouTube) पर एक क्लिप सुनी, जिसमें कहा गया है कि : तहज्जुद की नमाज़ एक बिद्अत (नवाचार) है, और उन दोनों (तरावीह एवं तहज्जुद) के बीच अंतर करना वर्णित नहीं है। ये सभी एक नमाज़ हैं जो रात की शुरुआत या उसके अंत में होती है। और पहली बार जिसने इसे शुरू किया वह लगभग 50 साल पहले हरम के इमाम अब्दुल्लाह अल-खुलैफ़ी रहिमहुल्लाह थे। और यह विभाजन पहले से मौजूद नहीं था। तो क्या यह बात सही हैॽ उसे अलग-अलग पढ़ने का क्या हुक्म है, जैसा कि लोग आजकल करते हैंॽ

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

पहला :

क़ियामुल-लैल करना (अर्थात् रात में नमाज़ पढ़ना) रमज़ान और उसके अलावा दिनों में मुसतह़ब (वांछित) है। और रमज़ान के महीने में इसकी अधिक ताकीद है। तथा इसे जमाअत के साथ अदा करना धर्मसंगत है। क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इसे जमाअत के साथ अदा किया है और आपके सह़ाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम ने भी ऐसा ही किया है।

क़ियामुल्-लैल का समय इशा की सुन्नत के बाद से फज़्र उदय होने तक है। इसमें रकअतों की संख्या की कोई सीमा नहीं है। क्योंकि बुख़ारी (हदीस संख्या : 472) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 749) ने अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत किया है कि उन्होंने कहा : एक आदमी ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से पूछा, जबकि आप मिंबर पर थे, रात की नमाज़ के बारे में आपका क्या विचार हैॽ तो आपने फरमाया : दो-दो रकअत। फिर जब उसे सुबह होने का डर हो, तो एक रकअत पढ़ ले। जो उसकी पढ़ी हुई नमाज़ को वित्र (ताक़, विषम) बना देगी।

क़ियामुल्-लैल की नमाज़ को तरावीह़ कहा जाता है। क्योंकि वे चार रकअतों के बाद आराम किया करते थे।

तथा तहज्जुद क़ियामुल-लैल (रात की नमाज़) ही है। जबकि एक कथन के अनुसार : तहज्जुद उस नमाज़ को कहते हैं जो विशेष रूप से सोने के बाद हो।

पूरी रात में किसी भी समय क़ियाम किया जा सकता है। इसलिए यदि कोई व्यक्ति पूरी रात क़ियाम करता है, तो वह बहुत अच्छा करने वाला (उत्कृष्ट) है। तथा यदि वह रात की शुरुआत में क़ियाम करे, फिर उसके अंत में क़ियाम करे, तो इसमें कोई भी आपत्ति की बात नहीं है, तथा इससे रोकने का कोई कारण नहीं है। मुसलमान ऐसा ही लंबे समय से करते आ रहे हैं। वे इसे सहजता पैदा करने और सुविधाजनक बनाने के लिए करते हैं।

परंतु समकालीन विद्वानों में से जिसने ऐसा करने से रोका है, तो उसका कारण यह है कि वह ग्यारह रकअतों से अधिक पढ़ने को बिदअत (नवाचार) समझता है!!

हालाँकि यह एक कमज़ोर कथन (विचार) है। क्योंकि यह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पिछले सामान्य उत्तर के विरुद्ध है। तथा यह सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम और उनके बाद के लोगों के कार्य (अमल) के विरुद्ध है। क्योंकि वे लोग बीस रकअत, उन्तालीस रकअत, इत्यादि नमाज़ पढ़ते थे।

इमाम तिर्मिज़ी रहिमहुल्लाह ने अपनी सुनन (3/160) में फरमाया : “विद्वानों ने रमज़ान के क़ियाम के बारे में मतभेद किया है। उनमें से कुछ का यह विचार है कि: वह वित्र के साथ इकतालीस रकअत पढ़ेगा। यह मदीना के लोगों का कथन है, तथा उनके यहाँ मदीना में इसी पर अमल है।

और अधिकांश विद्वानों ने उमर, अली और इनके अलावा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के अन्य साथियों से वर्णित : बीस रकअत के कथन को अपनाया है। यही कथन सौरी, इब्नुल मुबारक और शाफेई का है।

इमाम शाफ़ेई ने कहा : और इसी तरह मैंने अपने शहर मक्का में पाया है; वे बीस रकअत नमाज़ अदा करते हैं।

इमाम अहमद ने कहा : इसके बारे में कई तरह की रिवायतें हैं, और इसमें कुछ भी तय नहीं किया गया है।

तथा इसह़ाक़ ने कहा : बल्कि हम उबैय बिन का'ब से वर्णित रिवायत के आधार पर इकतालीस रक्अत को चुनते हैं।” उद्धरण समाप्त हुआ।

इब्ने अब्दुल-बर्र ने “अल-इस्तिज़कार” (2/69) में कहा : “बीस रकअत अली,  शुतैर बिन शकल, इब्ने अबी मुलैका, अल-हारिस अल-हमदानी और अबुल- बख़्तरी से वर्णित है, और यही जमहूर (अधिकतर) विद्वानों का कथन है, तथा यही बात कूफ़ियों, शाफेई और अधिकांश फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) ने कही है। और यही उबैय बिन का’ब से वर्णित सहीह कथन है, जिसके बारे में सहाबा के बीच कोई मतभेद नहीं है। तथा अता ने कहा : मैंने लोगों को वित्र के साथ तेईस रक्अत नमाज़ अदा करते हुए पाया।” उद्धरण समाप्त हुआ।

तथा “मुसन्न्फ इब्ने अबी शैबह” (2/163) में इसे सनद के साथ देखें।

तथा प्रश्न संख्या : (82152) का उत्तर भी देखें।

फिर इन दोनों में क्या अंतर है कि आदमी लगातार बीस या तेईस रक्अत (तरावीह़ की) नमाज़ पढ़े, या आठ अथवा दस रक्अत रात की शुरुआत में पढ़े और ग्यारह रक्अत नमाज़ रात के अंतिम पहर में पढ़ेॽ!

इस मुद्दे का आधार इस बात पर है कि तरावीह की रक्अतों की कोई निर्धारित संख्या नही है, तथा यह कि पूरी रात क़ियामुल-लैल करने की जगह है और यह कि क़ियामुल-लैल की नमाज़ के बीच विभाजन (अर्थात् दो अलग-अलग समय में विभाजित करके पढ़ना) स्वयं इबादत के तौर पर नहीं किया जाता है। बल्कि, ऐसा आसानी पैदा करने, सुविधाजनक बनाने, अधिक भलाई प्राप्त करने, तथा क़ियाम के कुछ भाग को रात के अंतिम तिहाई हिस्से में अदा करने की चाहत में किया जाता है। इसलिए, जो कोई भी इन भूमिकाओं को स्वीकार करता है, वह क़ियामुल-लैल की नमाज़ को दो भागों (समयों) में पढ़ने पर आपत्ति नहीं जताएगा।

शैख सालेह अल-फ़ौज़ान ने अपनी पुस्तक “इत्तिह़ाफु अह्लिल ईमान बि-मजालिस शह्रि रमज़ान” में फरमाया : जहाँ तक रमज़ान की अंतिम दस रातों का संबंध है, तो इनके दौरान मुसलमान इबादत में अपना परिश्रम बढ़ा देते हैं, नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का पालन करते हुए, तथा लैलतुल-क़द्र को तलाश करते हुए, जो कि एक हज़ार महीनों से बेहतर है। इसलिए जो लोग महीने की शुरुआत में तेईस रक्अत नमाज़ अदा करते हैं, वे इन्हें अंतिम दस रातों में विभाजित कर देते हैं। चुनाँचे वे रात की शुरुआत में दस रक्अत नमाज़ अदा करते हैं, जिन्हें वे तरावीह कहते हैं। तथा दस रक्अत नमाज़ रात के आख़िर में अदा करते हैं, जिन्हें वे तीन रक्अत वित्र के साथ लंबी करते हैं और उन्हें क़ियाम का नाम देते हैं। यह केवल नामकरण में अंतर है, अन्यथा उन सभी को तरावीह कहना, या क़ियाम कहना जायज़ है।

रहा वह व्यक्ति जो महीने की शुरुआत में ग्यारह या तेरह रक्अत नमाज़ पढ़ा करता था, तो वह अंतिम दस रातों के दौरान उनमें दस रक्अत और बढ़ा देता है, जिन्हें वह रात के आखिर में पढ़ता है और उन्हें लंबी करता है। ताकि वह अंतिम दस रातों की फज़ीलत (पुण्य) को प्राप्त कर सके, और भलाई में अपने प्रयासों को बढ़ा दे। तथा इस अध्याय में सहाबा किराम और अन्य लोगों में से उसके कुछ पूर्वज हैं, जो तेईस रक्अत क़ियामुल-लैल की नमाज़ पढ़ते थे, जैसाकि ऊपर गुज़र चुका। इस तरह उन्होंने दोनों कथनों को एकत्र कर दिया : शुरू की बीस रातों में तेरह रक्अत के कथन को, तथा अंतिम दस रातों में तेईस रक्अत के कथन को।” उद्धरण समाप्त हुआ।

इस कड़ी के तहत उनकी पूरी बात देखें :

http://iswy.co/evnq3

दूसरी बात :

यह अलगाव और विभाजन एक पुराना मामला है। ऐसा नहीं है कि यह मात्र पचास साल या उसके लगभग से है, जैसा कि इस सवाल में कहा गया है।

इब्ने रजब रहिमहुल्लाह ने कहा : “अल-मर्रूज़ी ने इमाम अहमद से – उस आदमी के बारे में जो रमज़ान के महीने की नमाज़ पढ़ाता है, वह क़ियाम करता है और उन्हें वित्र की नमाज़ पढ़ाता करता है, जबकि वह कुछ दूसरे लोगों को भी नमाज़ पढ़ाना चाहता है – रिवायत किया है : वह उन दोनों के बीच किसी चीज़ में व्यस्त हो जाए, कुछ खाए, या पिए, या बैठ जाए।

अबू हफ़्स अल-बरमकी ने कहा : यह इसलिए है क्योंकि ऐसा करना मक्रूह (नापसंदीदा) है कि वह अपनी वित्र के साथ कोई दूसरी नमाज़ मिलाए। वह दोनों के बीच किसी काम में व्यस्त होगा; ताकि उसकी वित्र की नमाज़ के बीच और दूसरी नमाज़ के बीच कुछ अंतराल हो जाए।

यह उस स्थिति में है जब वह उसी जगह उन्हें नमाज़ पढ़ाता हो। लेकिन अगर यह किसी अन्य स्थान पर है, तो उसका वहाँ तक जाना एक अलगाव (अंतराल) है। और वह वित्र को दोबारा नहीं पढ़ेगा। क्योंकि एक रात में दो वित्र नहीं हैं।” उद्धरण समाप्त हुआ।

जबकि इमाम अहमद से उल्लिखत कथन इसके विपरीत है :

उन्होंने - सालेह की रिवायत में - उस आदमी के बारे में फरमाया, जिसने इमाम के साथ वित्र की नमाज़ अदा की, फिर अपने घर में प्रवेश किया - : मुझे पसंद है कि यह कुछ सोने (नींद) या लंबी बातचीच के बाद हो।

रमज़ान के महीने में (ता’क़ीब) के बारे में इमाम अहमद से रिवायत भिन्न-भिन्न है, और वह (ता’क़ीब) यह है कि : वे मस्जिद में जमाअत के साथ क़ियामुल-लैल करें, फिर वहाँ से निकल जाएँ। फिर उसमें दोबारा आएँ और रात के अंत में जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ें। हमारे असहाब (साथियों) में से अबू बक्र अब्दुल अज़ीज़ बिन जाफर वग़ैरह ने इसकी यही व्याख्या की है :

तो अल-मर्रूज़ी और अन्य ने उनसे उद्धृत किया है : इसमें कोई हर्ज की बात नहीं है। तथा इसके बारे में अनस रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत कियात गया है।

तथा इब्नुल-ह़कम ने उनसे उल्लेख किया है कि उन्होंने कहा : मैं इसे नापसंद करता हूँ। अनस रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया जाता है कि उन्होंने इसे नापसंद किया है। तथा अबू मिजलज़ और उनके अलावा से रिवायत किया जाता है कि उन्होंने इसे नापसंद किया है। लेकिन वे क़ियामुल-लैल को रात के अंत तक विलंब करते हैं, जैसा कि उमर रज़ियल्लाहु अन्हु का कहना है।

अबू बक्र अब्दुल अज़ीज़ ने कहा : मुहम्मद बिन अल-हकम का कथन उनका एक पुराना कथन है, और जो कथन समूह ने रिवायत किया है, उसके अनुसार अमल जारी है, कि इसमें कोई हर्ज नहीं है।” उद्धरण समाप्त हुआ।

सौरी ने कहा : “ता’क़ीब” एक नवाचार है।

तथा हमारे साथियों में से कुछ ने दृढ़ता के साथ उसे मक्रूह कहा है, सिवाय इसके कि वह कुछ सोने के बाद हो, या वह इसे आधी रात के बाद तक विलंब कर दे। और उन्होंने यह शर्त निर्धारित की है कि : उन्होंने अपने पहले क़ियाम में जमाअत के साथ वित्र पढ़ ली हो। यह इब्ने हामिद, क़ाज़ी और उसके साथियों का कथन है। जबकि इमाम अहमद ने यह शर्त नहीं निर्धारित की है।

तथा अधिकांश फ़ुक़हा (धर्मशास्त्रियों) का मानना ​​है कि यह किसी भी परिस्थिति में मक्रूह नहीं है ...

इब्ने अल-मंसूर ने इसह़ाक़ बिन राहवैह से उल्लेख किया है कि अगर इमाम ने रात की शुरुआत में तरावीह पूरी कर ली है, तो उसके लिए रात के अंतिम हिस्से में एक दूसरी जमाअत में उन्हें नमाज़ पढ़ाना मक्रूह (नापसंदीदा) है। क्योंकि अनस और सईद बिन जुबैर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से इसे नापसंद करना वर्णित है। अगर उसने रात की शुरुआत में उन्हें पूरी तरावीह नहीं पढ़ाई है और उसकी पूर्ति (परिशिष्ट) को रात के अंत तक विलंब कर दिया है, तो यह मक्रूह नहीं है।” इब्ने रजब की फ़त्ह़ुल-बारी (9/174) से उद्धरण समाप्त हुआ।

मक्रूह समझना इस बात पर आधारित है कि अगर इमाम रात की शुरुआत में उन्हें वित्र पढ़ा दे, फिर वह वापस आए और उन्हें क़ियाम की नमाज़ पढ़ाए। आज के समय में कुछ लोग ऐसा ही करते हैं। और अधिकांश फुक़हा इसे मक्रूह नहीं समझते हैं, जैसा कि इब्ने रजब ने कहा।

इसका मक़सद यह है कि यह (तरावीह और क़ियामुल्लैल के बीच) यह अंतराल एक पुराना मामला है, जिसके विषय में पूर्वजों ने चर्चा की है।

शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने कहा : “उनका कथन : न ही जमाअत के साथ ता’क़ीब, अर्थात् वित्र समेत तरावीह़ पढ़ने के बाद ता’क़ीब मक्रूह नहीं है। ताक़ीब का अर्थ यह है कि तरावीह के बाद और वित्र के बाद जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ी जाए।

और उनके शब्दों का प्रत्यक्ष अर्थ यह है कि : भले ही वह मस्जिद में हो।

इसका उदाहरण यह है कि : उन्होंने मस्जिद में तरावीह और वित्र की नमाज़ पढ़ी। फिर कहा : रात के अंत में आओ ताकि हम जमाअत का आयोजन करें। तो लेखक के कथन के अनुसार ऐसा करना मक्रूह नहीं है।

लेकिन यह कथन कमज़ोर है। क्योंकि यह अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित एक असर (बयान) पर आधारित है कि उन्होंने कहा : इसमें कोई हर्ज नहीं है। वे केवल एक भलाई की ओर लौटते हैं जिसकी उन्हें आशा है ... अर्थात् : नमाज़ की ओर न लौटो परंतु किसी भलाई के लिए जिसकी तुम आशा करते हो।

लेकिन यह असर (बयान) यदि अनस रज़ियल्लाहु अन्हु से प्रमाणित है : तो यह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के इस कथन के ख़िलाफ़ है : “तुम रात में अपनी अंतिम नमाज़ वित्र को बनाओ।” क्योंकि इस जमाअत (समूह) ने वित्र की नमाज़ पढ़ ली है। इसलिए यदि वे उसके बाद फिर नमाज़ पढ़ने के लिए लौटते हैं, तो रात में उनकी अंतिम नमाज़ वित्र नहीं होगी।

इसलिए राजेह (प्रबल) कथन यह है कि : उपर्युक्त ता’क़ीब मक्रूह है। और यह कथन इमाम अहमद रहिमहुल्लाह से वर्णित दो आख्यानों में से एक है। तथा “अल-मुक़्ने”, “अल-फ़ुरूअ” और “अल-फ़ाइक़” आदि पुस्तकों में दोनों आख्यानों को सामान्य रूप से उल्लेख किया गया है। अर्थात् इमाम अहमद से वर्णित दोनों कथन समान हैं, उनमें से एक को दूसरे से प्रबल (राजेह) नहीं कहा जा सकता।

लेकिन अगर यह ता’क़ीब तरावीह़ के बाद और वित्र से पहले हो, तो मक्रूह न कहने का कथन सही होगा। और वर्तमान समय में रमज़ान की आखिरी दस रातों में लोग ऐसा ही करते हैं। लोग रात की शुरुआत में तरावीह की नमाज़ अदा करते हैं, फिर रात के अंत में दोबारा आते हैं और क़ियाम करते, तहज्जुद पढ़ते हैं।”

अश-शर्हुल मुम्ते” (4/67) से उद्धरण समाप्त हुआ।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है। 

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर