हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
सर्व प्रथम :
विद्वानों के कथनों में से राजेह (सही) कथन यह है कि गायबाना जनाज़ा की नमाज़ केवल उसी मृत व्यक्ति की धर्मसंगत है, जिसके जनाज़ा की नमाज़ उसके देश में नहीं पढ़ी गई है।
इब्नुल-क़ैयिम रहिमहुल्लाह ने फरमाया :
“प्रत्येक अनुपस्थित मृत व्यक्ति के जनाज़ा की नमाज़ पढ़ना नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का तरीक़ा और आपकी सुन्नत नहीं थी।
चुनाँचे बहुत से मुसलमानों की मृत्यु हुई, जबकि वे अनुपस्थित (अर्थात मदीना से बाहर दूसरे देश में) थे। लेकिन आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनकी (गायबाना) जनाज़ा की नमाज़ नहीं पढ़ी। तथा यह प्रमाणित है कि : “आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने नजाशी (इथियोपिया के शासक) की गायबाना जनाज़ा की नमाज़ पढ़ी।” इसलिए लोगों (विद्वानों) ने इसके विषय में तीन विचारों में मतभेद किया है...
शैखुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्यह रहिमहुल्लाह ने फरमाया : सही विचार यह है कि : यदि कोई अनुपस्थित व्यक्ति ऐसे देश में मर जाता है जहाँ उसके जनाज़ा की नमाज़ नहीं पढ़ी गई है, तो उसकी गायबाना जनाज़ा की नमाज़ पढ़ी जाएगी। जैसा कि बनी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने नजाशी के जनाज़ा की नमाज़ पढ़ी; क्योंकि उसकी मृत्यु काफ़िरों के बीच हुई थी और उसके जनाज़ा की नमाज़ नहीं पढ़ी गई थी। यदि मृतक की उस जगह जनाज़ा की नमाज़ पढ़ी गई है जहाँ उसकी मृत्यु हुई है, तो उसकी गायबाना जनाज़ा की नमाज़ नहीं पढ़ी जाएगी। क्योंकि जब मुसलमानों ने उसके जनाज़ा की नमाज़ा पढ़ ली, तो उसका दायित्व (अनिवार्यता) समाप्त हो गया। जबकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कभी-कभी गायबाना जनाज़ा की नमाज़ पढ़ी है और कभी-कभी आपने ऐसा नहीं किया है। इसलिए आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का (कभी) उसे पढ़ना और (कभी) उसे त्याग कर देना दोनों सुन्नत है, और दोनों का अलग-अलग स्थान है। और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है। इमाम अहमद के मत में तीन विचार हैं और उनमें से सबसे सही : यह विस्तृत विचार है।”
“ज़ादुल-मआद” (1 / 500-501) से उद्धरण समाप्त हुआ।
इसका उल्लेख प्रश्न संख्या : (35853) के उत्तर में किया जा चुका है।
यदि आपको इस बात की अधिक संभावना है कि एक विशिष्ट मुस्लिम व्यक्ति की इस बीमारी (कोविद -19) के कारण मृत्यु हो गई है और उसे उसके जनाज़ा की नमाज़ पढ़े बिना ही दफना दिया गया है, तो इस स्थिति में उसकी गायबाना जनाज़ा की नमाज़ पढ़ना धर्मसंगत है।
लेकिन यदि आप उस दिन मरने वाले लोगों की नीयत से जनाज़ा की नमाज़ पढ़ती हैं, भले ही आप उन्हें नहीं जानती हैं, तो यह धर्मसंगत (वैध) नहीं है। और इबादत के कृत्यों के संबंध में मूल सिद्धांत यह है कि इबादत का कोई भी कार्य निषिद्ध है (उसकी अनुमति नहीं है) जब तक कि उसका कोई प्रमाण (सबूत) न हो।
शैख़ुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्यह रहिमहुल्लाह ने कहा :
“हर दिन गायबाना जनाज़ा की नमाज़ नहीं पढ़ी जाएगी, क्योंकि यह शरीयत में वर्णित नहीं है। इसका समर्थन इमाम अहमद के इस कथन से होता है : यदि किसी सदाचारी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, तो उसके जनाज़ा की नमाज़ पढ़ी जाएगी और उन्होंने नजाशी की कहानी को प्रमाण बनाया है।
लेकिन जो कुछ लोग यह करते हैं कि हर रात को उस दिन मरने वाले सभी मुसलमानों की गायबाना (अनुपस्थिति में) जनाज़ा की नमाज़ पढ़ते हैं, तो निःसंदेह वह एक नवाचार (बिदअत) है।”
“अल-फतावा अल-कुबरा” (5/360) से उद्धरण समाप्त हुआ।
दूसरी बात :
मूल सिद्धांत यह है कि जनाज़ा की नमाज़ मृतक के शरीर के मौजूद होने पर धर्मसंगत है; केवल अनुपस्थित व्यक्ति के जनाज़ा की नमाज़ को इससे इसलिए अलग रखा गया है; क्योंकि उस स्थान पर जाना बहुत कठिन है जहाँ मृतक का जनाज़ा है, क्योंकि उसका देश बहुत दूर है। यदि जनाज़ा उसी शहर में है जिसमें नमाज़ पढ़ने वाला मौजूद है, तो उसके जनाज़ा की नमाज़ पढ़ने के लिए उस जगह पर जाना सुन्नत है जहाँ मृतक का शरीर है।
नववी रहिमहुल्लाह ने कहा :
“हमारा मत यह है कि उस मृत व्यक्ति के जनाज़ा की नमाज़ पढ़ना जायज़ है जो शहर से अनुपस्थिति है...
लेकिन अगर मृतक उसी शहर में है, तो इसके बारे में दो विचार हैं और हमारा मत और यही निश्चित रूप से लेखक और विद्वानों की बहुमत का विचार है कि उसके लिए उसके जनाज़ा की नमाज़ पढ़ना जायज़ नहीं है यहाँ तक कि वह उसके पास उपस्थित हो; क्योंकि “नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने शहर में मौजूद किसी व्यक्ति के जनाज़ा की नमाज़ केवल उसकी उपस्थिति में पढ़ी है।” तथा इसलिए भी कि ऐसा करने में कोई कठिनाई नहीं है, जबकि शहर में अनुपस्थित व्यक्ति का मामल इसके विपरीत है।”
“अल-मजमू” (5 / 252-253) से उद्धरण समाप्त हुआ।
शैख़ इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने फरमाया :
“लेखक के शब्द “ग़ायिब” (अनुपस्थित) का मतलब है : वह व्यक्ति जो शहर से अनुपस्थित हो, भले ही वह उससे कम दूरी पर हो (जिसमें किसी यात्री के लिए नमाज़ को क़स्र करना जायज़ होता है)। लेकिन जो व्यक्ति शहर में है, तो उसके जनाज़ा की गायबाना नमाज़ पढ़ना धर्मसंगत नहीं है, बल्कि धर्मसंगत यह है कि उसकी क़ब्र पर जाकर उसके जनाज़ा की नमाज़ पढ़ी जाए।
इसलिए, कुछ अज्ञानी लोग गलती करते हैं, जो देश के बाहरी इलाके में मृतक के जनाज़ा की नमाज़ (उसकी अनुपस्थिति में) पढ़ते हैं, जबकि वह मृतक उसके शहर ही में होता है। यह सुन्नत के विपरीत है। सुन्नत का तरीक़ा यह है कि क़ब्र पर जाकर उसके जनाज़ा की नमाज़ पढ़ी जाए।”
“अश-शर्हुल-मुम्ते” (5/345) से उद्धरण समाप्त हुआ।
अतः जिस कारण से शहर से बाहर मृत व्यक्ति के जनाज़ा की गायबाना नमाज़ धर्मसंगत की गई है; वह उसके जनाज़ा में उपस्थित होने की कठिनाई और उसका दुर्लभ होना है, जैसा कि नववी के शब्दों में गुज़र चुका है।
तथा “मुग़्नी अल-मुहताज इला मारिफति मआनी अल्फ़ाज़िल-मिन्हाज” (2/27) में उल्लेख किया गया है :
“यदि किसी नज़रबंदी (कारावास) या बीमारी के कारण शहर में रहने वालों के लिए जनाज़ा में शामिल होना दुर्लभ (असंभव) हो जाए, तो उनके लिए गायबाना जनाज़ा की नमाज़ पढ़ने की अनुमति दूर की बात नहीं है।”
तथा अल-अबादी “तुहफ़तुल-मुहताज” (3/150) पर अपने हाशिया (टिप्पणी) में कहते हैं :
“उचित बात यह है कि कष्ट एवं कठिनाई के होने या न होने का एतिबार किया जाएगा। अतः यदि किसी जगह उपस्थित होना बहुत मुश्किल है, भले ही वह उसी शहर में हो, क्योंकि शहर बहुत बड़ा है, तो (गायबाना जनाज़ा की नमाज़) सही (मान्य) है। तथा जिस जगह ऐसा नहीं है, भले ही वह शहर की सीमा के बाहर हो, तो यह (यानी गायबाना जनाज़ा की नमाज़) सही (मान्य) नहीं है।”
यह कारण इस महामारी से मरने वाले व्यक्ति में पाया जाता है, भले ही वह उसी शहर में हो, क्योंकि अधिकारियों के लोगों को घरों से बाहर निकलने से रोक देने के कारण उसके जनाज़ा (अंतिम संस्कार) में शामिल होना संभव नहीं है।
लेकिन इस स्थिति में, राजेह (सही) दृष्टिकोण के अनुसार, गायबाना जनाज़ा की नमाज़ केवल तभी पढ़ी जाएगी, जब किसी ने भी उसके जनाज़ा की नमाज़ न पढ़ी हो, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है।
अगर उसके परिवार के कुछ लोगों ने या अस्पताल की मेडिकल टीम के कुछ लोगों ने उसके जनाज़ा की नमाज़ पढ़ी है, तो ऐसी स्थिति में उसके गायबाना जनाज़ा की नमाज़ पढ़ना धर्मसंगत नहीं है।
लेकिन ... जो व्यक्ति उसके जनाज़ा की नमाज़ नहीं पढ़ सका है, वह कर्फ्यू के समय के अलावा में, या इस संकट के समाप्त होने के बाद, उसकी क़ब्र पर जाकर उसके जनाज़ा की नमाज़ पढ़ सकता है।
हम अल्लाह से प्रार्थना करते हैं कि वह मुसलमानों से इस महामारी को जल्दी से टाल दे।
तीसरा :
जनाज़ा की नमाज़ अकेले एक व्यक्ति का पढ़ना सही और मान्य है, तथा सही दृष्टिकोण के अनुसार उसके लिए जमाअत का होना शर्त नहीं है, जैसा कि प्रश्न संख्या : (152888) के उत्तर में इसका उल्लेख किया जा चुका है।
चौथा :
धर्मसंगत यह है कि मृतक को स्नान कराने बाद ही उसके जनाज़ा की नमाज़ पढ़ी जाए। लेकिन अगर नुकसान के डर से उसको स्नान कराना संभव नहीं है, तो उसके जनाज़ा (अंतिम संस्कार) की नमाज़ पढ़ने की वैधता समाप्त नहीं हो जाएगी, भले ही उसे बिना स्नान दिए ही दफना दिया गया हो।
अल्लाह तआला का फरमान है :
فَاتَّقُوا اللَّهَ مَا اسْتَطَعْتُمْالتغابن : 16
“तुम अपनी ताक़त भर अल्लाह से डरो।” (सूरतुत तगाबुन : 16).
इज़-ज़ुद्दीन बिन अब्दुस्सलाम रहिमहुल्लाह ने कहा :
“नियम : जिस व्यक्ति को आज्ञाकारिता के कार्यों में से किसी चीज़ के लिए मुकल्लफ (बाध्य) किया गया, तो वह उस कार्य का कुछ हिस्सा करने में सक्षम और कुछ को करने में असमर्थ है। तो वह उस चीज़ को अंजाम देगा जिसे करने में वह सक्षम है, और वह चीज़ उससे समाप्त हो जाएगी जिसे करने में वह असमर्थ है ...” ‘‘क़वाइदुल अहकाम’’ (2/7) से उद्धरण समाप्त हुआ।
शैख़ुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्यह रहिमहुल्लाह ने कहा :
“जो व्यक्ति भी क़ुरआन और सुन्नत में जो कुछ आया है उसका गहन अध्धयन करता है, उसे स्पष्ट रूप से इस बात का पता चलता है कि शरीयत के अहकाम की बाध्यता के लिए उसका ज्ञान होना और उसे करने की क्षमता होना शर्त है। अतः जो व्यक्ति उन दोनों में से किसी एक से भी असमर्थ है, तो वह जिसको करने में असमर्थ है, उसकी बाध्यता उससे समाप्त हो जाएगी। क्योंकि अल्लाह किसी भी प्राणी पर उसकी क्षमता से बढ़कर बोझ नहीं डालता है ...”
“मजमूउल-फतावा” (21/634) से उद्धरण समाप्त हुआ।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।