रविवार 21 जुमादा-2 1446 - 22 दिसंबर 2024
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महिलाओं के लिए क़ब्रों की ज़ियारत करने का हुक्म

प्रश्न

मेरी ख़ाला (मौसी) के पिता की मृत्यु हो चुकी है, मेरी ख़ाला एक बार उनके क़ब्र की ज़ियारत कर चुकी हैं और वह अब दोबारा ज़ियारत करना चाहती हैं। मैंने एक हदीस सुनी है जिसका मतलब यह है कि महिला के लिए क़ब्र की ज़ियारत करना हराम (निषिद्ध) है। तो क्या यह हदीस सही हैॽ और यदि यह हदीस सही है, तो क्या उनके ऊपर कोई पाप है कि जिसका कफ्फारा देने (प्रायश्चित करने) की आवश्यकता हैॽ

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

ऊपर उल्लेख की गई हदीस के आधार पर सही बात यही है कि महिलाओं के लिए क़ब्रों की ज़ियारत करना जायज़ नहीं है। तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से साबित है कि आप ने क़ब्रों की ज़ियारत करने वाली महिलाओं को शापित किया है। इसलिए महिलाओं पर अनिवार्य है कि वे क़ब्रों की ज़ियारत करना छोड़ दें। तथा जिस महिला ने आज्ञानता की बिना पर क़ब्र की ज़ियारत कर ली है तो उसपर कोई हर्ज (गुनाह) नहीं है और उस महिला को चाहिए कि वह अब भविष्य में दोबारा ऐसा न करे। यदि उसने ऐसा किया तो उसे तौबा (पश्चाताप) और इस्तिग़फ़ार (क्षमा याचना) करना होगा। और तौबा अपने से पहले गुनाहों को मिटा देती है। अतः क़ब्र की ज़ियारत पुरूषों के साथ ख़ास (विशिष्ट) है। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :

“क़ब्रों की ज़ियारत करो, इसलिए कि यह तुम्हें आख़िरत (परलोक) की याद दिलाती है।”

पहले पहल (शुरू इस्लाम में) पुरूषों और महिलाओं दोनों को क़ब्रों की ज़ियारत करने से मना किया गया था। क्योंकि मुसलमानों का समयकाल मृतकों की पूजा और मृतकों से आशा रखने से अभी नया नया था। इसलिए बुराई के स्रोत को बन्द करने तथा शिर्क की जड़ को काटने के लिए उन्हें क़ब्रों की ज़ियारत करने से रोक दिया गया था। फिर जब इस्लाम को स्थिरता प्राप्त हो गया और लोगों ने इस्लाम को जान-पहचान लिया, तो अल्लाह ने उनके लिए क़ब्रों की ज़ियारत को धर्मसंगत क़रार दिया, क्योंकि ज़ियारत करने से मौत और आख़िरत को याद करके नसीहत, सीख और उपदेश मिलता है, तथा मृतक के लिए दुआ और उसपर दया की प्रार्थना की जाती है।

फिर, विद्वानों के दो कथनों में से सबसे सही कथन के अनुसार, अल्लाह ने महिलाओं को ज़ियारत करने से मना कर दिया, क्योंकि वह पुरूषों को फित्ने में डालती हैं और कभी कभार ख़ुद भी फित्ने में पड़ती हैं, और इसलिए भी कि उनके अन्दर धैर्य कम होता है और वे बहुत व्याकुल और विकल हो जाती हैं। इस प्रकार यह उनपर अल्लाह की दया और उपकार है कि अल्लाह ने उनपर क़ब्रों की ज़ियारत को हराम (निषिद्ध) क़रार दिया। और इसमें पुरूषों पर भी उपकार है क्योंकि क़ब्रों के पास सभी लोगों का एकत्रित होना फित्ने का कारण बन सकता है, तो यह अल्लाह की दया है कि महिलाओं को क़ब्रों की ज़ियारत से मना कर दिया।

रही बात जनाज़ा की नमाज़ पढ़ने की तो इसमें कोई आपत्ति की बात नहीं है। इसलिए महिलाएँ मृतक के जनाज़ा की नमाज़ पढ़ सकती हैं। उन्हें केवल क़ब्रों की ज़ियारत से रोका गया है। अतः विद्वानों के दो कथनों में से सबसे सही कथन के अनुसार ज़ियारत के निषेध को दर्शाने वाली हदीसों के कारण महिलाओं के लिए क़ब्रों की ज़ियारत करना जायज़ नहीं है। और उस महिला पर कोई कफ्फारा नहीं है बल्कि उसपर केवल तौबा करना अनिवार्य है।

स्रोत: देखिए : समाहतुश् शैख़ अल्लामा अब्दुल अज़ीज़ बिन अब्दुल्लाह बिन बाज़ रहिमहुल्लाह की पुस्तक : “मजमूओ फतावा व मक़ालात मुतनौविआ” (9/28)