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ईसाइयों को उनके त्योहारों के अवसर पर इन शब्दों में बधाई देने का क्या हुक्म है कि : ''हर साल आप अच्छे रहें।'' अर्थात हम आशा करते हैं कि वे लोग अच्छे बनकर रहें, यानी हमारे धर्म के विषय में हमें कष्ट न पहुँचाएं। इसका मक़सद उन्हें उनके शिर्क (अनेकेश्वरवाद) पर बधाई देना नहीं है। जैसा कि कुछ मशाइख के यहाँ इसको प्रसारित किया गया हैॽ
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
ईसाइयों को उनके त्योहारों के अवसर पर बधाई देने में निषिद्ध बात उनके लिए खुशी का प्रदर्शन करना, उनसे शिष्टाचार दिखाना और उनके कार्यों पर सहमति जताना है, भले ही यह ज़ाहिरी तौर पर केवल दिखाने के लिए हो, दिल से न हो।
चुनाँचे निषेध उस व्यक्ति के बारे में आया है जो उनके लिए किसी भी प्रकार की भागीदारी और सहमति प्रकट करे, जैसे उपहार (देना), मौखिक बधाई, काम से अवकाश लेना, खाना बनाना, खेल के स्थानों पर जाना और इसी तरह त्योहार की अन्य आदतें। प्रत्यक्ष शब्द के विपरीत कोई अन्य इरादा निषेध के हुक्म को अनुमति में नहीं बदल सकता। क्योंकि इन कार्यों का प्रत्यक्ष रूप ही इसे निषिद्ध ठहराने के लिए पर्याप्त है।
यह बात सर्वज्ञात है कि इन मामलों में उदार दृष्टिकोण रखनेवाले अधिकतर लोगों का मक़सद ईसाइयों के साथ उनके शिर्क में शामिल होना नहीं होता है। बल्कि जो चीज़ उन्हें इसके लिए प्रेरित करती है वह कुछ मामलों में तो शिष्टाचार और शील है, और कुछ अन्य मामलों में शर्म है। लेकिन झूठ पर शिष्टाचार दिखाने की अनुमति नहीं है, बल्कि बुराई की निंदा करना और उसे बदलने के लिए प्रयास करना ज़रूरी है।
शैख़ुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या ''मजमूउल फतावा'' (2/488) में फरमाते हैं :
''मुसलमानों के लिए उन के त्योहारों और पर्वों के साथ विशिष्ट किसी भी चीज़ में उन की नक़ल करना जायज़ नहीं है, न भोजन, न वस्त्र, न स्नान, न आग जलाने, और न ही किसी आदत (आम स्वभाव) की चीज़ जैसे कि पूजा या जीवन चर्या़ को निरस्त करने में। इसी प्रकार दावत करना, या उपहार भेंट करना या इसी उद्देश्य के लिए कोई चीज़ बेचना जिस के द्वारा उस पर मदद होती है, या बच्चों वगैरह को उनके त्योहारों में खेले जाने वाले खेल खेलने की अनुमति देना, या श्रृंगार का प्रदर्शन करना, जायज़ नहीं है।
निष्कर्ष यह कि : मुसलमानों के लिए उन के त्योहारों के अवसरों पर उन के संस्कारों और प्रतीकों में से कोई भी चीज़ नहीं करनी चाहिए, बल्कि उन के त्योहार का दिन मुसलमानों के लिए अन्य दिनों की तरह होना चाहिए, मुसलमानों को उस दिन उन के विशिष्ट प्रतीकों में से कुछ भी नहीं करना चाहिए। रही बात अगर मुसलमान इसे जानबूझकर कर लें, तो पूर्वजों और बाद की पीढ़ियों के कुछ समूहों ने इसे मक्रूह (घृणित) समझा है। जहाँ तक उसे उन चीज़ों के साथ विशिष्ट करने की बात है जिनका उल्लेख हो चुका है तो उसके बारे में विद्वानों के बीच कोई मतभेद नहीं है।बल्कि विद्वानों का एक समूह इन चीज़ों के करने वाले के कुफ्र (अधर्म) की ओर गया है, क्योंकि इसमें कुफ्र के प्रतीकों का सम्मान पाया जाता है। तथा उनमें से एक समूह का कहना है : जिसने उनके ईद के दिन सींग लगकर मरा हुआ जानवर (भी) ज़बह किया तो गोया उसने सूअर ज़बह किया।
तथा अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस रज़ियल्लाहु अन्हुमा कहते हैं : जिसने अजमियों (गैर अरब) के देशों का अनुसरण किया,उनका नीरोज़ और पर्व मनाया,और उनकी समानता अपनायी यहाँ तक कि वह इसी हालत में मर गया : तो वह क़ियामत के दिन उनके साथ ही उठाया जायेगा।
अमीरुल मोमिनीन उमर बिन खत्ताब और सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम, तथा मुसलमानों के सभी इमामों ने उनपर यह शर्त लगाई है कि वे मुसलमानों के देश में अपने त्योहारों का खुला प्रदर्शन नहीं करेंगे, वे केवल उसे अपने घरों में गुप्त रूप से करेंगे।
तथा कई एक पूर्वजों का अल्लाह तआला के फरमानः ( والذين لا يشهدون الزور ) ''जो किसी झूठ और असत्य पर उपस्थित नहीं होते।'' (अल-फुरक़ान, 25:72) के बारे में कहना है कि झूठ से अभिप्राय ''काफिरों के त्योहार'' हैं। जब यह बिना किसी कार्य के मात्र उनमें उपस्थित होने के बारे में है, तो फिर उन कार्यों के करने का क्या हुक्म होगा जो उनके विशिष्ट अनुष्ठानों में से हैं? तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से मुसनद और सुनन में रिवायत किया गया है कि आप ने फरमाया : ''जिसने किसी क़ौम की समानता अपनायी, वह उन्हीं में से है।'' और एक रिवायत के शब्द हैं कि : ''वह व्यक्ति हम में से नहीं है जो हमारे अलावा की समानता (छवि) अपनाए।'' यह एक जैयिद (अच्छी) हदीस है। जब यह उनकी समानता और छवि अपनाने में है, अगरचे वे आदतों में से हो, तो फिर उससे बड़ी चीज़ों में उनकी समानता और छवि अपनाने का क्या हुक्म होगा?....''
इमामों की बहुमत ने – या तो निषिधिकरण के लिए कराहत (घृणा) के तौर पर यापवित्रता के लिए कराहत (घृणा) के तौर पर – उस जानवर को खाना मक्रूह समझा है जिसे उन लोगों ने अपने त्योहारों और बलिदान के लिए ज़ब्ह किया है। उसे उस जानवर में शामिल करते हुए जिसपर अल्लाह के अतिरिक्त किसी और का नाम लिया गया हो और जिसे थान पर (मूर्तियों के लिए) ज़ब्ह किया गया हो।
इसी तरह विद्वानों ने उन्हें उपहार देकर या बेचकर उनके त्योहारों में उनकी मदद करने से मना किया है। और उन्होंने कहा है किः मुसलमानों के लिए ईसाइयों से उनके त्योहार के हित से संबंधित कोई भी चीज बेचना हलाल (जायज़) नहीं है, चाहे वह मांस हो, या सालन, यक कपड़ा। और न ही उन्हें कोई सवारी उधार दी जाएगी, और न ही उनके त्योहारों में उनकी किसी भी प्रकार की कोई सहायता की जाएगी। क्योंकि यह उनके शिर्क का सम्मान करने और उनके कुफ्र पर उनका सहयोग करने में शामिल है। अधिकारियों को मुसलमानों को ऐसा करने से मना करना चाहिए। क्योंकि अल्लाह तआला फरमाता हैः
وَتَعَاوَنُوا عَلَى الْبِرِّ وَالتَّقْوَى وَلا تَعَاوَنُوا عَلَى الإِثْمِ وَالْعُدْوَانِ وَاتَّقُوا اللَّهَ إِنَّ اللَّهَ شَدِيدُ الْعِقَابِ [المائدة : 2]
"नेकी और तक़्वा (परहेज़गारी) के कामों में एक दूसरे का सहयोग किया करो तथा पाप और अत्याचार पर एक दूसरे का सहयोग न करो,और अल्लाह से डरते रहो, नि:संदेह अल्लाह तआला कड़ी यातना देने वाला है।" (सूरतुल मायदा : 2)
तथा एक मुसलमान के लिए शराब निचोड़कर या इसी तरह की चीज़ो के द्वारा शराब पीने पर उनकी मदद करना जायज़ नहीं है, तो फिर जो चीज़ कुफ्र के प्रतीकों में से है उसपर मदद करना कैसे जायज़ होगाॽ! और जब उसके लिए उनकी मदद करने की अनुमति नहीं है, तो फिर उस समय क्या हुक्म होगा जब वह स्वयं उसको करनेवाला होॽ!" समाप्त हुआ।
हमारी इस साइट पर पहले ही कई ऐसे जवाब गुज़र चुके हैं जो इस विषय की व्याख्या करते और इसके निषेध के कारण को स्पष्ट करते हैं, जिन्हें आप प्रश्न संख्या : (90222), (50074 में देख सकते हैं।
और अल्लाह ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।