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मैंने भेड़ों के व्यापार के लिए अपने एक मित्र के साथ साझेदारी बनाई। शर्तें ये थीं कि : वह पूंजी लगाएगा, और मैं स्थान, उसके उपकरणों और श्रम की आपूर्ति करूँगा, और लाभ और हानि को आधा-आधा (50%) साझा किया जाएगा। अंत में, क्योंकि भेड़ की कीमत गिर गई, परियोजना घाटे में चली गई। आपके फतवे को पढ़ने के बाद मुझे पता चला कि नुकसान को साझा करना जायज़ नहीं है और नुकसान केवल उसी को उठाना होगा जिसने पूँजी की आपूर्ति की थी। तो अब हमें क्या करना चाहिए? क्या मैं उसे घाटे का आधा हिस्सा दे सकता हूँ, ताकि उसे कोई नुकसान न हो? यदि हम परियोजना को जारी रखना चाहें और भेड़ों की एक अन्य मात्रा खरीदना चाहें, तो क्या हम पिछली पूंजी से इसे घटाकर लाभ की गणना कर सकते हैं, जैसे कि मानो परियोजना अभी भी चल रही है?
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
साझेदारी के संबंध में मूल सिद्धांत यह है कि : नुकसान को निवेश किए गए धन की मात्रा के अनुरूप वहन किया जाना चाहिए। जहाँ तक लाभ की बात है, तो उसे साझेदारों की सहमति के अनुसार साझा किया जाना चाहिए।
यदि दो लोग परियोजना में पूंजी का योगदान करते हैं, तो उनमें से प्रत्येक द्वारा लगाए गए हिस्से के अनुरूप नुकसान वहन किया जाएगा।
यदि दो लोग साझेदारी बनाते हैं, उनमें से एक पूंजी का योगदान देता है और दूसरा श्रम का योगदान देता है, तो वित्तीय नुकसान उस व्यक्ति को उठाना पड़ेगा जिसने इसमें पैसा लगाया है, और श्रमिक को अपना श्रम खोना पड़ता है, जब तक कि श्रमिक अत्याचार या लापरवाही नहीं करता है। यदि वह ऐसा करता है, तो इस स्थिति में धन का नुकसान उसपर भी पड़ेगा।
इब्ने कुदामा (अल्लाह उन पर रहम करे) ने “अल-मुग़नी” (5/22) में कहा :
“साझेदारी में घाटा दोनों साझेदारों पर उनके द्वारा निवेश की गई पूंजी के अनुरूप होता है। यदि उनमें से प्रत्येक ने समान मात्रा में पूंजी निवेश की, तो हानि उनके बीच आधा-आधा विभाजित हो जाएगा। यदि साझेदारी में तीन लोग हैं, तो उनमें से प्रत्येक को एक तिहाई हानि का वहन करना पड़ेगा। हमें विद्वानों के बीच इस संबंध में किसी मतभेद की जानकारी नहीं है। यही अबू हनीफा, अश-शाफ़ेई और अन्य लोगों का दृष्टिकोण है ...
''मुज़ारबह'' (लाभ-साझाकरण उद्यम) के मामले में, हानि का प्रभाव विशेष रूप से पूंजी पर पड़ता है, और कार्यकर्ता को इसका कुछ भी वहन नहीं करना पड़ता है; क्योंकि हानि पूंजी में कमी का नाम है, और यह उसके मालिक की संपत्ति के साथ विशिष्ट है, इसमें कार्यकर्ता का कुछ भी नहीं है। इसलिए उसकी कमी उसके पैसे से होगी, किसी और से नहीं। वे केवल उसमें साझा करते हैं जो बढ़ोतरी होती है।'' उद्धरण समाप्त हुआ।
यदि आपके मित्र ने पूंजी निवेश किया, और आपने स्थान, उपकरण और श्रम की आपूर्ति की, और आपने स्थान और उपकरण के लिए कोई किराया नहीं लिया :
तो यदि आप स्थान और उपकरण दान करने वाले थे, तो इसमें कोई हरज नहीं है, और आपपर कुछ भी अनिवार्य नहीं है।
यदि साझेदारी स्थापित करते समय आप दोनों ने इसे ध्यान में रखा है, और आपने स्थान और उपकरण के किराए को पूंजी के रूप में माना है जिसके साथ आपने व्यवसाय में भाग लिया : तो उसके किराए का अनुमान लगाया जाएगा और आप उसके साथ पूंजी में योगदान देने वाले होंगे; इस तरह आपने पैसे और काम दोनों के साथ योगदान दिया, और आप अपने वित्तीय हिस्से के अनुरूप वित्तीय नुकसान वहन करेंगे जिसका हमने उल्लेख किया है।
यदि आपके मित्र ने दस हजार के साथ भाग लिया, और स्थान और उपकरण का किराया दो हज़ार था, तो आपने दो हज़ार और अपने काम का योगदान दिया, और नुकसान की स्थिति में, आप पाँचवाँ हिस्सा वहन करेंगे; क्योंकि आपका हिस्सा आपके मित्र की तुलना में पूंजी का पाँचवाँ हिस्सा है।
उसे इसके अतिरिक्त जो कुछ उसने लिया है वह भी तुम्हें लौटाना होगा।
यदि आप सहानुभूति और दयालुता के नाते, आधी हानि अपनी इच्छा से उठाना चाहते हैं तो इसमें कोई हरज नहीं है।
लेकिन भविष्य में साझेदारी के अनुबंध में इसकी शर्त लगाना जायज़ नहीं है।
दूसरा :
यदि आप परियोजना को जारी रखना चाहते हैं और अन्य मात्रा में भेड़ें खरीदना चाहते हैं, तो सबसे पहले आप पहली परियोजना समाप्त करें, और अपने मित्र को अपनी पूंजी लाने दें, और आप अपनी पूंजी को नियंत्रित करें, फिर आप दोनों इस बात पर सहमत हो जाएँ कि घाटा पूंजी की मात्रा के अनुरूप वहन किया जाएगा।
हम आपको पहली परियोजना समाप्त करने के लिए इसलिए कह रहे हैं क्योंकि यदि आप पर अपने साथी का कुछ क़र्ज़ बकाया है - जो कि घाटे की राशि है, यदि आप, पिछले विवरण के अनुसार, उसमें से कुछ का वहन करना चाहते हैं - तो ऐसा करना जायज़ नहीं है कि इस ऋण को एक नई साझेदारी में पूंजी बना दिया जाए, क्योंकि साझेदारी के लिए यह शर्त है कि पूंजी नकद होनी चाहिए, न कि ऋण।
''कश्शाफ अल-क़िना'' (3/497) में कहा गया है :
“साझेदारी की शर्तों में से एक यह है कि दोनों पक्षों की पूंजी नकद में उपलब्ध होनी चाहिए, जैसा कि मुज़ारबा (लाभ-साझाकरण उद्यम) के मामले में होता है, ताकि इसका उपयोग व्यवसाय में किया जा सके और साझेदारी स्थापित की जा सके। अतः अनुपस्थित धन पर या किसी के ज़िम्मे बक़ाया राशि (ऋण) पर साझेदारी स्थापित करना सही (मान्य) नहीं है; क्योंकि इसका तुरंत उपयोग करना संभव नहीं है, जबकि यही साझेदारी का उद्देश्य है।” उद्धरण समाप्त हुआ।
“अल-मौसूअह अल-फ़िक़्हिय्यह'' (26/48) में कहा गया है :
"पहली शर्त : यह है कि पूंजी नक़द होनी चाहिए, ऋण के रूप में नहीं : क्योंकि जिस व्यापार के माध्यम से साझेदारी का उद्देश्य प्राप्त होता है, और वह लाभ कमाना है : वह ऋण के साथ प्राप्त नहीं हो सकता। अतः इसे कंपनी की पूंजी बनाना उसके उद्देश्य के विपरीत है।" उद्धरण समाप्त हुआ।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।