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मैं उम्रा करने मक्का जा रही हूँ, लेकिन मैं दुआएँ नहीं जानती हूँ। क्या आप मेरी मदद कर सकते हैंॽ
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
प्रामाणिक सुन्नत (सही हदीसों) में कुछ दुआएँ और अज़कार वर्णित हैं, जो उम्रा के अनुष्ठान के दौरान पढ़े जाते हैं। एक मुसलमान उन्हें याद करके, उन्हें समझकर और उनपर अमल करके उनसे फायदा उठा सकता है। जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं :
क – तलबियह पुकारते समय मीक़ात में :
उम्रा और हज्ज के लिए एहराम में प्रवेश करने से पहले, एक मुसलमान के लिए तस्बीह (सुबहानल्लाह कहना), तहलील (ला इलाहा इल्लल्लाह कहना) और तकबीर (अल्लाहु अकबर कहना) सुन्नत है।
अनस रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा : “अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मदीना में, जबकि हम आपके साथ थे, चार रकअत ज़ुहर की नमाज़ अदा की, और ज़ुल-हुलैफ़ा में अस्र की नमाज़ दो रकअत अदा की। फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम रात भर वहीं रहे। जब सुबह हुई तो अपनी सवारी पर बैठे यहाँ तक कि जब वह आपको लेकर ‘बैदा’ (मक्का की दिशा में ज़ुल-हुलैफ़ा के पास एक स्थान) पर पहुँची, तो आपने अल्हमदुलिल्लाह, सुबहानल्लाह और अल्लाहु अकबर’ कहा। फिर आपने हज्ज एवं उम्रा का तलबियह पुकारा और लोगों ने भी उन दोनों का तलबियह पुकारा।” इसे बुखारी (हदीस संख्या : 1551) ने रिवायत किया है।
हाफ़िज़ इब्ने हजर ने कहा :
यह हुक्म – यानी एहराम से पहले तस्बीह और उसके साथ उल्लिखित अन्य अज़कार का मुस्तहब होना - सुन्नत से साबित होने के बावजूद, बहुत कम लोग हैं, जिन्होंने इसका वर्णन किया है। “फत्हुल-बारी” (3/412)।
ख - मक्का के रास्ते में (मीक़ात और का’बा तक पहुँचने के बीच) :
अधिक से अधिक तल्बियह पढ़ना और पुरुषों के लिए उसे ऊँची आवाज़ से पढ़ना सुन्नत है। परंतु महिला उसे धीमी आवाज में पढ़ेगी ताकि वे पुरुष जो उसके लिए अजनबी (गैर-महरम) हैं, उसे न सुन सकें।
अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है कि जब ज़ुल-हुलैफ़ा की मस्जिद के पास अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की ऊँटनी आपको लेकर सीधी खड़ी होगई, तो आपने तल्बियह पुकारा और कहा : “लब्बैका, अल्लाहुम्मा लब्बैक, लब्बैका ला शरीका लका लब्बैक, इन्नल हम्दा वन्नेमता लका वल मुल्क, ला शरीका लक” (मैं उपस्थित हूँ, ऐ अल्लाह! मैं उपस्थित हूँ, मैं उपस्थित हूँ, तेरा कोई साझी नहीं, मैं उपस्थित हूँ, हर प्रकार की स्तुति और सभी नेमतें तथा राज्य तेरा ही है, तेरा कोई साझी नहीं)।’’ इसे बुख़ारी (हदीस संख्या : 5571) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 1184) ने रिवायत किया है।
ग - तवाफ़ के दौरान :
हर चक्कर में जब वह हज्रे-अस्वद के बराबर में आए, तो “अल्लाहु अकबर” कहे। बुखारी (हदीस संख्या : 1613) ने इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत किया है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने काबा का तवाफ़ किया। जब भी आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम (हज्रे-अस्वद के) कोने पर आते, तो अपने पास मौजूद किसी चीज़ से उसकी ओर इशारा करते और तकबीर कहते।”
तथा वह यमनी कोने और हज्रे-अस्वद के बीच उस दुआ को पढ़े, जो अब्दुल्लाह बिन साइब की हदीस में वर्णित है। वह कहते हैं : मैंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को दोनो कोनों के बीच यह पढ़ते हुए सुना : “रब्बना आतिना फिद्दुन्या हसनतन, व फिल-आख़िरति हसनतन, व-क़िना अज़ाबन्नार” (ऐ हमारे पालनहार! हमें दुनिया में भलाई प्रदान कर और आख़िरत में भी भलाई प्रदान करे और हमें नरक की यातना से सुरक्षित रख)।” इसे अबू दाऊद (हदीस संख्या : 1892) ने रिवायत किया है और अलबानी ने “सहीह अबी दाऊद” में इसे हसन कहा है।
घ- सफ़ा पर चढ़ने से पहले और उसके ऊपर :
जाबिर बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है कि उन्होंने कहा : ... फिर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम सफा के द्वार से बाहर निकले और जब सफ़ा के पास पहुँचे तो यह आयत पढ़ी : إِنَّ الصَّفَا وَالْمَرْوَةَ مِنْ شَعَائِرِ اللَّهِ “निःसंदेह सफा और मरवा अल्लाह के प्रतीकों में से हैं।" (सूरतुल बक़रह : 158), (और आपने फरमाया :) मैं उसी से शुरू करता हूँ जिससे अल्लाह ने शुरू किया। चुनाँचे आपने सफा से शुरू किया और उसपर चढ़ गए यहाँ तक कि काबा को देखा। फिर आपने क़िबला की ओर मुख किया और अल्लाह की एकता का वर्णन किया और उसकी बड़ाई बयान की और कहा :
لاَ إِلَهَ إِلاَّ اللهُ وَحْدَهُ لاَ شَرِيْكَ لَهُ، لَهُ الْمُلْكُ وَلَهُ الْحَمْدُ، وَهُوَ عَلَى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٍ. لاَ إِلَهَ إِلاَّ اللهُ وَحْدَهُ، أَنْجَزَ وَعْدَهُ، وَنَصَرَ عَبْدَهُ، وَهَزَمَ الأَحْزَابَ وَحْدَهُ
“ला इलाहा इल्लल्लाह, वह़्दहू ला शरीका लह, लहुल-मुल्को व लहुल-ह़म्द, व हुआ अला कुल्लि शैइन क़दीर। ला इलाहा इल्लल्लाहु वह़्दहू, अन्जज़ा वअ्दहू, व न-स-रा अब्दहू , व ह-ज़-मल अह्ज़ाबा वह्दहू” (अल्लाह के सिवा कोई सच्चा पूज्य नहीं। वह अकेला है, उसका कोई साझी नहीं। उसी के लिए प्रभुत्व है, और उसी के लिए हर प्रकार की प्रशंसा है। और वह हर चीज़ पर सर्वशक्तिमान है। अल्लाह के अतिरिक्त कोई उपासना के योग्य नहीं, वह अकेला है, उसने अपना वचन पूरा किया और अपने बंदे की सहायता की और अकेले ही सारे जत्थों को पराजित किया।) फिर आपने उसके बीच दुआ की और इस दुआ को आपने तीन बार दोहराया।” इसे मुस्लिम (हदीस संख्या : 1218) ने रिवायत किया है।
ङ - मरवा पर चढ़ते समय :
उसे वैसा ही करना चाहिए जैसे सफा पर किया था, लेकिन उसपर चढ़ने से पहले आयत को नहीं पढ़ेगा।
जाबिर बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने कहा : फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उतरकर मरवा की ओर चले, यहाँ तक कि जब आपके पैर घाटी के निचले स्थान में पड़े, तो आप दौड़े यहाँ तक कि जब ऊपर चढ़ने लगे, तो सामान्य चाल से चले यहाँ तक कि मरवा पर पहुँच गए। फिर आपने मरव पर भी वैसा ही किया जैसे कि सफा पर किया था।” इसे मुस्लिम (हदीस संख्या : 1218) ने रिवायत किया है।
इसी तरह, ज़मज़म का पानी पीते समय वह जो भी चाहे दुनिया एवं आख़िरत की भलाई के लिए दुआ कर सकता है; क्योंकि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : “ज़मज़म का पानी उस उद्देश्य के लिए है जिसके लिए उसे पिया जाए।” इसे इब्ने माजा (हदीस संख्या : 3062) ने रिवायत किया है और शैख अलबानी ने (हदीस संख्या : 5502 के तहत) सहीह कहा है।
इसी तरह, तवाफ़ और सई के दौरान अधिकाधिक अल्लाह का ज़िक्र करना – जिसमें दुआ भी शामिल है – धर्मसंगत है। इसलिए मुसलमान को उन दोनों के दौरान वह दुआ करना चाहिए जिसके लिए भी अल्लाह उसे प्रेरित करे। तथा तवाफ़ और सई के दौरान क़ुरआन पढ़ने में भी कोई हर्ज नहीं है। परंतु जो कुछ लोग तवाफ़ और सई में प्रत्येक चक्कर के लिए विशिष्ट दुआ का उल्लेख करते हैं, उसका शरीयत में कोई आधार नहीं है।
शैखुल-इस्लाम इब्ने तैमिय्यह रहिमहुल्लाह ने कहा :
“तवाफ़ के दौरान उसके लिए शरीयत में बताए गए तरीक़े के अनुसार सर्वशक्तिमान अल्लाह को याद करना और उससे दुआ करना मुस्तहब है। यदि वह गुप्त रूप से क़ुरआन का पाठ करता है, तो इसमें कोई हर्ज नहीं है। दरअसल, इसमें कोई विशिष्ट ज़िक्र (दुआ) नहीं है, जिसका नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने आदेश दिया हो, या आपने स्वयं पढ़ा हो, या आपने दूसरों को उसकी शिक्षा दी हो। बल्कि (तवाफ़ करने वाला) शरीयत में निर्धारित दुआओं में से कोई भी दुआ पढ़ सकता है। बहुत से लोग मीज़ाब (काबा के परनाले) के नीचे..., जो एक विशिष्ट दुआ का उल्लेख करते हैं : उसका कोई आधार नहीं है।
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम दोनों कोनों [अर्थात यमनी कोने और हज्रे-अस्वद के कोने] के बीच अपने तवाफ़ का अंत यह कहकर करते थे :
رَبَّنَا آتِنَا فِي الدُّنْيَا حَسَنَةً وَفِي الْآخِرَةِ حَسَنَةً وَقِنَا عَذَابَ النَّارِ “रब्बना आतिना फिद्दुन्या हसनतन, व फिल-आख़िरति हसनतन, व-क़िना अज़ाबन्नार” (सूरतुल बक़रा : 201) (ऐ हमारे पालनहार! हमें दुनिया में भलाई प्रदान कर और आख़िरत में भी भलाई प्रदान कर और हमें नरक की यातना से सुरक्षित रख।)
इसी तरह, आप अपनी सभी दुआओं का समापन इन्हीं शब्दों के साथ करते थे। तथा इमामों (प्रमुख विद्वानों) की सहमति के अनुसार, तवाफ़ में कोई विशिष्ट ज़िक्र (दुआ) अनिवार्य नहीं है।” उद्धरण समाप्त हुआ।
“मजमूउल-फ़तावा” (26/122, 123)
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।