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क्या मैं अपने मृत्यु प्राप्त माता पिता की ओर से क़ुर्बानी कर सकता हूँ ?
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
शैख मुहम्मद इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने फरमाया:
''क़ुर्बानी के बारे में मूल सिद्धांत यह है कि वह जीवित लोगों के हक़ में धर्मसंगत है, जैसाकि अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आपके सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम अपने और अपने परिवार (घर) वालों की ओर से क़ुर्बानी किया करते थे। जहाँ तक कुछ जनसाधारण (अवाम) का यह भ्रम है कि क़ुर्बानी मृतकों के लिए विशिष्ट है तो इसका कोई आधार नहीं है।
मृतकों की ओर से क़ुर्बानी के तीन प्रकार हैं :
पहला :
वह उनकी ओर से जीवित लोगों के अधीन क़ुर्बानी करे, उदाहरण के तौर पर आदमी अपनी तरफ से और अपने घर वालों की तरफ से क़ुर्बानी करे और उनसे जीवित और मृत दोनों की नीयत करे। (और ऐसा करना जायज़ है।) इसका आधार नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अपनी तरफ से और अपने घर वालों की तरफ से क़ुर्बानी करना है, जिनमें कुछ ऐसे भी थे जो पहले मर चुके थे।
दूसरा :
यह कि मृतकों की ओर से उनकी वसीयतों के अनुसार उन्हें लागू करते हुए क़ुर्बानी करे, (और ऐसा करना अनिवार्य है सिवाय इसके कि वह इसमें असक्ष हो जाए।), इसका आधार (वसीयत के बदलने के बारे में) अल्लाह तआला का यह कथन है :
فَمَن بَدَّلَهُ بَعْدَ مَا سَمِعَهُ فَإِنَّمَآ إِثْمُهُ عَلَى الَّذِينَ يُبَدِّلُونَهُ إِنَّ اللَّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٌ [البقرة : 181].
''फिर जिसने उसे सुनने के बाद बदल दिया तो उसका पाप उन पर है जो उसे बदल देते हैं, निःसंदेह अल्लाह तआला सब कुछ सुनने वाला जानने वाला है।'' (सूरतुल बक़रा : 181).
तीसरा :
वह मृतकों की ओर से अनुदान के तौर पर जीवित लोगों से अलग क़ुर्बानी करे, (इस प्रकार कि वह अपने पिता के लिए एक अलग क़ुर्बानी दे, या अपनी माँ के लिए एक अलग क़ुर्बानी दे), तो ऐसा करना जायज़ है। तथा इस बात पर हंबली मत के धर्म शास्त्रियों का स्पष्ट कथन है कि उसका सवाब (पुण्य) मृतक को पहुँचता है और वह इससे लाभ उठाता है, उन्हों ने इस मुद्दे को मृतक की ओर से सद्क़ा करने के मुद्दे पर क़ियास किया है।
लेकिन हम विशिष्ट रूप से मृत के लिए क़ुर्बानी करने को सुन्नत से नहीं समझते हैं; क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने विशिष्टता के साथ अपने मृतकों में से किसी एक की तरफ से भी क़ुर्बानी नहीं की। चुनाँचे आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने चाचा हमज़ा रज़ियल्लाहु अन्हु की ओर से क़ुर्बानी नहीं की जबकि वह आप के सबसे प्यारे रिश्तेदारों में से थे, न तो अपने उन बच्चों की ओर से क़ुर्बानी की जो आपके जीवन में मृत्यु पा चुके थे, और वे तीन विवाहिता बेटियाँ और तीन छोटे बेटे हैं, और न ही आप ने अपनी पत्नी खदीजा रज़ियल्लाहु अन्हा की ओर से क़ुर्बानी की जबकि वह आपके निकट आपकी सबसे प्रिय पत्नियों में से थीं। इसी तरह आपके समय काल में आपके सहाबा से भी वर्णित नहीं है कि उन में से किसी ने अपने मृतकों में से किसी की ओर से क़ुर्बानी की है।
इसी तरह हम इस बात को भी गलत समझते हैं जो कुछ लोग मृतक की ओर से उसकी मृत्यु के पहले साल क़़ुर्बानी करते हैं, जिसे ''गढ़े की क़ुर्बानी'' का नाम देते हैं और यह मान्यता रखते हैं कि उस क़ुर्बानी के सवाब में उसके साथ किसी अन्य को साझीदार बनान जायज़ नहीं है। या जो लोग अपने मृतकों की तरफ से अनुदान करते हुए या उनकी वसीयतों के अनुसार क़ुर्बानी करते हैं और स्वयं अपनी तरफ से और अपने परिवार की तरफ से क़ुर्बानी नहीं करते हैं। यदि उन्हें पता होता कि जब आदमी अपने माल से अपनी और अपने घरवालों की तरफ से क़ुर्बानी करेगा तो वह उसके जीवित और मृत सभी घर वालों को शामिल होगा, तो वे उसे छोड़कर अपने इस अमल को ने अपनाते।''