शुक्रवार 7 जुमादा-1 1446 - 8 नवंबर 2024
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क़ब्रों के पास नमाज़, तथा शफाअत की शर्तें

प्रश्न

सूफी मत के मानने वाले एक व्यक्ति के साथ मेरी बहस चल रही थी। उसने मुझसे क़ब्रों पर नमाज़ पढ़ने के बारे में, तथा कुछ दीनदार (धर्मनिष्ठ) विद्वानों और परलोक के दिन उनकी शफाअत के बारे में मेरी राय पूछी।
मैं ने उस आदमी से कहा कि क़ब्रों पर नमाज़ पढ़ना शिर्क (अनेकेश्वरवाद) है और यह कि क़ियामत (परलोक) के दिन नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के अलावा कोई भी शफाअत नहीं करेगा। अब मैं इस बारे में विद्वानों की राय जानना चाहता हूँ और मुझे इसका प्रमाण कहाँ मिलेगा?
आप से अनुरोध है कि मेरे सवाल का उत्तर प्रदान करें।

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

सर्व प्रथम : क़ब्रों पर नमाज़ पढ़ने का मुद्दा :

क़ब्रों पर नमाज़ पढ़ने के दो प्रकार हैं :

पहला : क़ब्र वाले के लिए नमाज़ पढ़ना, यह शिर्क अक्बर (बड़ा शिर्क) है, जो आदमी को धर्म से निष्कासित कर देता है। क्योंकि नमाज़ एक इबादत (उपासना) है और इबादत को अल्लाह के अलावा किसी दूसरे के लिए करना जायज़ नहीं है। अल्लाह तआला ने फरमाया है :

واعبدوا الله ولا تشركوا به شيئاً

النساء : 36

‘‘और अल्लाह तआला की पूजा करो और उसके साथ किसी को साझी न करो।’’ (सूरतुन निसा : 36)

तथा अल्लाह ने फरमाया :

إن الله لا يغفر أن يشرك به ويغفر ما دون ذلك لمن يشاء ومن يشرك بالله فقد ضل ضلالاً بعيداً

النساء : 116

‘‘निःसन्देह अल्लाह तआला इस जीज़ को क्षमा न करेगा कि उसके साथ किसी को साझी ठहराया जाए। हाँ, इससे नीचे दर्जे के अपराध को, जिसके लिए चाहेगा, क्षमा कर देगा। और जो अल्लाह के साथ किसी को साझी ठहराता है, तो वह बहुत दूर की गुमराही में जा पड़ा।'' (सूरतुन्निसा : 116)

दूसरा : क़ब्रिस्तान में नमाज़ पढ़ना, और इसके अंतर्गत कई मुद्दे हैं :

1- क़ब्र पर जनाज़ा की नमाज़ पढ़ना, और यह जायज़ है।

मुद्दा का चित्रण : यह है कि कोई व्यक्ति मर जाए और आप मस्जिद में उसकी नमाज़ जनाज़ा न पढ़ सकें, तो आपके लिए उसे दफन करने बाद उसपर जनाज़ा की नमाज़ पढ़ना जायज़ है।

इस मुद्दे की दलील नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का कृत्य (अमल) है : अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि एक काला आदमी या काली औरत मस्जिद की सफाई किया करती थी। तो उसकी मृत्यु हो गई। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उसके बारे में पूछा तो लोगों ने कहा कि उसकी मृत्यु हो गई। आप ने फरमाया : तुमने मुझे इसकी सूचना क्यों नहीं दी। मुझे उस (आदमी) की क़ब्र बताओ, या आप ने कहा उस औरत की क़ब्र। चुनाँचे आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उसकी क़ब्र पर गए और उसपर जनाज़ा की नमाज़ पढ़ी।'' इसे बुखारी (हदीस संख्या : 458) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 956) ने रिवायत किया है, और हदीस के ये शब्द बुखारी के हैं।

2- क़ब्रिस्तान में जनाज़ा की नमाज़ पढ़ना, और यह जायज़ है।

मुद्दा का चित्रण : यह है कि कोई व्यक्ति मर जाए और आप मस्जिद में उसकी जनाज़ा की नमाज़ न पढ़ सकें, और आप क़ब्रिस्तान में आएं और दफन किए जाने से पहले उस पर जनाज़ा की नमाज़ पढ़ें।

शैख अब्दुल अज़ीज़ बिन बाज़ रहिमहुल्लाह ने फरमाया : ''क़ब्रिस्तान के अंदर जनाज़ा की नमाज़ पढ़ना जायज़ है जिस तरह कि दफन करने के बाद उसपर जनाज़ा की नमाज़ पढ़ना जायज़ है। क्योंकि यह प्रमाणित है कि एक लड़की मस्जिद की सफाई किया करती थी, तो उसकी मृत्यु हो गई। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उसके बारे मे पूछा, तो लोगों ने कहा कि वह मर गई। तो आप ने फरमाया : ‘‘तुमने मुझे बताया क्यों नहीं था? मुझे उसकी क़ब्र बताओ।'' तो लोगों ने आपको उसकी क़ब्र बताई और आप ने उस पर जनाज़ा की नमाज़ पढ़ी। फिर फरमाया : ''ये क़ब्रें उनके वासियों पर अंधेरे से भरी हुई थीं, अल्लाह ने उन्हें मेरे उन पर जनाज़ा की नमाज़ पढ़ने कि वजह से उनके लिए प्रकाश से भर देगा।'' इसे मुस्लिम (हदीस संख्या : 956) ने रिवायत किया है। फतावा स्थायी समिति (8/392) से अंत हुआ।

3- क़ब्रिस्तान में - जनाज़ा की नमाज़ के अलावा - कोई अन्य नमाज़ पढ़ना, और यह नमाज़ बातिल है सही नहीं है, चाहे वह फर्ज़ हो या नफल।

इसका प्रमाण : सर्व प्रथम : नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का यह फरमान है : ''पूरी धरती सज्दा करने की जगह है, सिवाय क़ब्रिस्तान और हम्माम के।'' इसे तिर्मिज़ी (हदीस संख्या : 317) और इब्ने माजा (हदीस संख्या : 745) ने रिवायत किया है और अल्बानी ने सहीह इब्ने माजा (हदीस संख्या : 606) में इसे सहीह कहा है।

दूसरा प्रमाण : नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का यह कथन है : ''अल्लाह तआला यहूदियों और ईसाइयों पर शाप करे कि उन्हों ने अपने नबियों की क़ब्रों को मस्जिदें बना लीं।'' इसे बुखारी (हदीस संख्या : 435) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 529) ने रिवायत किया है।

तीसरा प्रमाण : तर्क और वह यह कि क़ब्रिस्तान में नमाज़ पढ़ने को क़ब्रों की पूजा करने, या क़ब्रों की पूजा करने वालों की समानता अपनाने का ज़रिया बनाया जा सकता है। इसीलिए जब नास्तिक लोग सूरज की उसके निकलने और डूबने के समय पूजा करते थे, तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उसके निकलने और डूबने के समय नमाज़ पढ़ने से रोक दिया ताकि उसे इस बात का ज़रीया न बनाया जा सके कि अल्लाह को छोड़कर सूरज की पूजा की जाने लगे, या काफिरों की समानता अपनाया जाने लगे।

4- क़ब्रिस्तान की ओर रूख करके नमाज़ पढ़ना, और सहीह कथन के अनुसार यह हराम (निषिद्ध) है।

मुद्दा का चित्रण : यह है कि आप नमाज़ पढ़ें और आपके क़िबला की तरफ (यानी सामने) कोई क़ब्रिस्तान या कोई क़ब्र हो। लेकिन आप कब्रिस्तान की ज़मीन में नमाज़ न पढ़ रहे हों, बल्कि क़ब्रिस्तान से क़रीब किसी दूसरी ज़मीन में हो, और आपके और क़ब्रिस्तान के बीच कोई चहार दीवारी या रूकावट (बाधा) न हो।

हराम होने (निषेद्ध) का प्रमाण :

1- अबू मर्सद अल-गनवी से वर्णित है कि उन्हों ने कहा कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लमने फरमाया : ''क़ब्रों पर न बैठो और न उसकी ओर (मुँह करके) नमाज़ पढ़ो।'' इसे मुस्लिम (हदीस संख्या : 972) ने रिवायत किया है। यह हदीस कब्रिस्तान, या क़ब्रों, या एक क़ब्र की ओर रूख करके नमाज़ पढ़ने के निषिद्ध होने पर दलालत करती है।

2- तथा क़ब्रिस्तान में नमाज़ पढ़ने से निषेद्ध का जो कारण है, वह कारण क़ब्र की ओर रूख करके नमाज़ पढ़ने में भी मौजूद है। चुनाँचे जब इन्सान क़ब्र की ओर या क़ब्रिस्तान की ओर रूख करके नमाज़ पढ़ेगा, तो यही कहा जायेगा कि वह उसकी ओर नमाज़ पढ़ता है, तो वह इस निषेद्ध में दाखिल है। और जब वह निषेद्ध में दाखिल है, तो वह सहीह नहीं है, क्योंकि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लमका कथन है ‘‘नमाज़ न पढ़ो’’, तो यहाँ पर नमाज़ से रोका गया है। यदि उसने क़ब्र की ओर नमाज़ पढ़ ली, तो उसके इस काम में आज्ञाकारिता और अवज्ञा दोनो एकत्र हो गए। और इसके द्वारा अल्लाह तआला की निकटता प्राप्त करना संभव नहीं है।

चेतावनी : यदि आपके और क़ब्रिस्तान के बीच कोई अलगाव दीवार है तो ऐसी स्थिति में नमाज़ पढ़ने में कोई आपत्ति की बात नही है, और न कोई निषेद्ध है। इसी तरह अगर आपके बीच और उसके बीच कोई रास्ता (रोड) या फासिला (दूरी) है जिसकी वजह से आप क़ब्रिस्तान की ओर नमाज़ पढ़नेवाला नहीं कहे जायेंगे, तो कोई आपत्ति की बात नहीं है। और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

देखिए : अल-मुगनी (1/403), अश-शरहुल मुम्ते लि-इब्ने उसैमीन (2/232) अल्लाह सब पर दया करे।

दूसरा : शफाअत का मुद्दा . . .

आप से अपने इस कथन में गलती हो गई है कि परलोक के दिन नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लमके अलावा कोई और शफाअत नहीं करेगा, बल्कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम शफाअत करेंगे और आप के अलावा मोमिन लोग भी शफाअत करेंगे। प्रश्न संख्या (11931) देखिए।

परंतु हम यहाँ पर एक मुद्दे की वृद्धि कर रहे हैं जिसका आप ने उल्लेख नहीं किया है, और वह यह कि शफाअत की कुछ शर्तें हैं :

पहली शर्त : अल्लाह की ओर से शफाअत करने वाले के लिए शफाअत करने की अनुमति होना।

दूसरी : जिसके लिए शफाअत की जा रही है, अल्लाह का उससे खुश होना।

इन दोनों शर्तों की दलील अल्लाह तआला का यह कथन है :

وكم من ملك في السموات لا تغني شفاعتهم شيئاً إلا من بعد أن يأذن الله لمن يشاء ويرضى

النجم : 26

''और आकाशों में बहुत से फ़रिश्ते हैं जिनकी सिफ़ारिश (शफाअत) कुछ काम नहीं आएगी, सिवाय इसके कि अल्लाह तआला जिसके लिए चाहे और पसंद करे, अनुमति प्रदान कर दे।'' (सूरतुन नज्मः 26)

तथा अल्लाह तआला का कथन है :

ولا يشفعون إلا لمن ارتضى

الأنبياء : 28

''और वे किसी के लिए सिफ़ारिश नहीं करते सिवाय उसके जिसके लिए अल्लाह पसन्द करे।'' (सूरतुल अंबियाः 28)

रही बात उस कल्पित शफाअत की जिसका मूर्तिपूजक अपने पूज्यों से गुमान रखते हैं तो वह एक असत्य शफाअत (अनुशंसा) है ; क्योंकि अल्लाह तआला किसी के लिए शफाअत की अनुमति नहीं देता सिवाय उन शफाअत करने वालों और शफाअत किए गए लोगों के जिनसे अल्लाह खुश हो।

देखिए : शैख मुहम्मद बिन उसैमीन रहिमहुल्लाह की किताब ''अल-क़ौलुल मुफीद शर्ह किताबुत्तौहीद'' (पृष्ठ : 336-337) प्रथम संस्करण।

किंतु नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की शफाअत और मोमिनों की शफाअत का स्वीकरण इस बात को अनुमेय और वैद्ध नहीं ठहराता है कि उनसे शफाअत मांगी जाए, जैसाकि कुछ लोग नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से आपकी मृत्य के बाद शफाअत मांगते हैं।

इस्लाम प्रश्न और उत्तर

स्रोत: शैख मुहम्मद सालेह अल-मुनज्जिद