हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
सर्व प्रथम :
अल्लाह तआला के प्रति हुस्ने-ज़न्न एक महान हार्दिक उपासना है, जिसे बहुत से लोगों ने सही मायने में नहीं समझा है। हम इस उपासना के बारे में अह्ले सुन्नत व जमाअत के अक़ीदा (विश्वास) का उल्लेख कर रहे हैं, और यह स्पष्ट कर रहें हैं कि सलफ (पूर्वजों) ने इसे किस तरह समझा है, चुनाँचे हम कहते हैं:
अल्लाह सर्वशक्तिमान के प्रति हुस्ने-ज़न्न (अच्छी सोच या अच्छे गुमान) का अर्थ यह है कि उन नामों, गुणों और कार्यों पर विश्वास रखा जाए जो सर्वशक्तिमान अल्लाह के लिए योग्य हैं, तथा उन महान प्रभावों पर विश्वास रखा जाए जिनकी ये अपेक्षा करते हैं। जैसे कि यह विश्वास रखना कि अल्लाह अपने हक़दार बंदों पर दया करता है, और यदि वे तौबा करते और अल्लाह की ओर आकृष्ट होते हैं तो उन्हें क्षमा कर देता है तथा उनकी आज्ञाकारिता और इबादत को स्वीकार करता हैं, और यह विश्वास रखना कि अल्लाह सर्वशक्तिमान ने जो कुछ निर्णय और फैसला किया है उसमें उसकी व्यापक हिकमतें हैं।
जिसने यह समझा कि अल्लाह तआला के प्रति अच्छा गुमान रखने के साथ अमल की ज़रूरत नहीं हैः वह गलत है और उसने इस इबादत को ठीक से नहीं समझा है। तथा कर्तव्यों के छोड़ने और पापों के करने के साथ अच्छा गुमान नहीं पाया जा सकता, और जो भी ऐसा सोचता है वह धोखे, निंदनीय आशा और अल्लाह की पकड़ से निश्चिंता में पड़ा हुआ है और ये सभी आपदा और तबाही हैं।
इब्नुल क़ैयिम रहिमहुल्लाह ने फरमाया :
अच्छा गुमान और धोखा के बीच अंतर स्पष्ट है, और यह कि अच्छा गुमान यदि कार्य करने पर उभारता, प्रोत्साहित करता और उसकी मदद करता और उसकी ओर खींचकर ले जाता हैः तो वह सही (हुस्ने-ज़न्न) है। और अगर वह निरुद्यम और पाप में लिप्त होने का आह्वान करता है : तो वह धोखा है। और अच्छा गुमान ही आशा है। अतः जिसकी आशा उसे आज्ञाकारिता की ओर आकर्षित करने वाली तथा अवज्ञा से रोकने वाली है : तो वह एक सही (सच्ची) आशा है, और जिसका निरुद्यम ही आशा है और उसकी आशा निरुद्यम और लापरवाही है : तो वह प्रवंचित (धोखा खाया हुआ) है।
"अल-जवाब अल-काफ़ी" (पृष्ठः 24)।
शैख सालेह अल-फ़ौज़ान हफ़िज़हुल्लाह कहते हैं :
“अल्लाह के प्रति अच्छे गुमान के साथ पापों और गुनाहों से बचना ज़रूरी है, नहीं तो यह अल्लाह की पकड़ से निश्चिंता समझा जाएगा। चुनाँचे भलाई लाने वाले कारणों को अपनाने और बुराई लाने वाले कारणों को त्यागने के साथ अल्लाह के प्रति अच्छा गुमान रखनाः सराहनीय व पसंदीदा आशा है।
जहाँ तक कर्तव्यों को छोड़ने और वर्जनाओं को करने के साथ अल्लाह के प्रति अच्छा गुमान रखने का मामला है : तो वह निंदनीय आशा है, जो कि दरअसल अल्लाह की पकड़ से निश्चिंत होना है।
"अल-मुन्तक़ा मिन फतावा अश-शैख अल-फ़ौज़ान (2/269)''.
दूसरा :
मुल रूप से, एक मुसलमान को हमेशा अल्लाह सर्वशक्तिमान के प्रति अच्छा गुमान रखना चाहिए, जबकि एक मुसलमान के लिए दो स्थानों पर अल्लाह के प्रति अच्छा गुमान रखना अनिवार्य हो जाता है :
प्रथमः आज्ञाकारिता करते समय।
अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्होंने कहा : पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः ''अल्लाह तआला फरमाता है : मैं अपने बंदे के मेरे प्रति गुमान के अनुसार होता हूँ। तथा मैं उसेक साथ होता हूँ जब वह मुझे याद करता है। यदि वह मुझे अपने मन में याद करता है, तो मैं उसे अपने मन में याद करता हूँ। और यदि वह मुझे किसी सभा में याद करता है तो मैं उसे उनसे बेहतर सभा में याद करता हूँ। यदि वह मेरे एक बालिश्त क़रीब आता है, तो मैं उसके एक हाथ क़रीब आता हूँ, और जो मेरे एक हाथ क़रीब आता है तो मैं उसके दो हाथ क़रीब आता हूँ। यदि वह मेरे पास चलकर आता है, तो मैं उसके पास दौड़कर आता हूँ।'' इसे बुखारी (हदीस संख्या : 7405) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 2675) ने रिवायत किया है।
इस हदीस में अल्लाह के प्रति अच्छे गुमान का कार्य के साथ संबंध को सबसे स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। चुनाँचे उसके बाद ही सर्वशक्तिमान अल्लाह को याद करने और नेकियों के द्वारा उसकी निकटता प्राप्त करने का उल्लेख किया गया है। इसलिए जिस व्यक्ति का अपने पालनहार के प्रति अच्छा गुमान होगा, तो यह उसे अच्छा कार्य करने के लिए प्रेरित करेगा।
अल-हसन अल-बसरी रहिमहुल्लाह ने कहा : "मोमिन ने अपने पालनहार के प्रति अच्छा गुमान रखा, तो उसने अच्छा काम किया। और फ़ाजिर (पापी) ने अपने पालनहार के प्रति बुरा गुमान रखा, तो उसने बुरा कार्य किया।'' इसे इमाम अहमद ने ''अज़-ज़ुह्द'' (पृष्ठ 402) में रिवायत किया है।
इब्नुल-क़ैयिम रहिमहुल्लाह ने कहा :
जो इस विषय पर सही मायने में चिंतन करेगा, उसे पता चल जाएगा कि अल्लाह के प्रति अच्छा गुमान ही स्वयं अच्छा काम है; क्योंकि बंदे को अच्छा काम करने पर उसका अपने पालनहार के प्रति यह गुमान ही उभारता है कि वह उसे उसके कामों का बदला देगे और उसे उससे स्वीकार करेगा। चुनाँचे जिस चीज़ ने उसे काम करने पर प्रोत्साहित किया है वह अच्छा गुमान ही है। अतः जितना ही उसका गुमान अच्छा होगा, उतना ही उसका काम अच्छा होगा। अन्यथा इच्छा के पालन के साथ अच्छा गुमान रखनाः असमर्थता व विवशता है....।
सारांश यह कि : अच्छा गुमान केवल मोक्ष के कारणों को अपनाने के साथ ही होता है, लेकिन रही बात विनाश के कारणों के साथः तो अच्छा गुमान नहीं हो सकता।”
"अल-जवाबुल काफी” (पृष्ठ 13-15) संक्षेप के साथ।
अबुल अब्बास क़ुर्तुबी ने फरमाया : कहा गया है कि : ''मेरे बंदे के मेरे प्रति गुमान'' का अर्थ दुआ के समय उसके पूरा किए जाने का गुमान, तौबा के समय उसकी स्वीकृति का गुमान, इस्तिग़फार (क्षमा याचना) के समय मग़फिरत (क्षमा की प्राप्ति) का गुमान, और इबादत को उसकी शर्तों के साथ करने के समय, उसके सच्चे वादे और महान कृपा को सामने रखते हुए, कृत्यों के स्वीकार किए जाने का गुमान है।
क़ुर्तुबी ने कहा : इस बात का समर्थन दूसरी हदीस में आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के इस कथन से होता है : ''तुम अल्लाह से दुआ करो इस हाल में कि तुम्हें क़बूलियत का यक़ीन हो।'' (इसे तिर्मिज़ी ने सहीह इसनाद के साथ रिवायत किया है।)
और इसी तरह तौबा और क्षमा याचना करने वाले के लिए, तथा कार्य करने वाले के लिए उचित यह है कि उसके लिए जो अनिवार्य है उसके करने में भरपूर प्रयास करे, यह यक़ीन रखते हुए कि अल्लाह उसके काम को स्वीकार करेगा और उसके पाप को क्षमा कर देगा; क्योंकि अल्लाह सर्वशक्तिमान ने सच्ची तौबा और अच्छे कर्मों को स्वीकार करने का वादा किया है। लेकिन अगर वह इन कामों को करते हुए यह विश्वास रखता या गुमान करता है कि अल्लाह उन्हें स्वीकार नहीं करेगा, और वे उसे लाभ नहीं पहुँचाएंगे : तो वह अल्लाह की दया से निराशा, और अल्लाह की रहमत से मायूसी है, जो कि सबसे प्रमुख पापों में से है, और जो उसपर मर गया : वह वहीं पहुँचेगा जो उसने उसके बारे में सोचा और गुमान किया है।
जहाँ तक पाप पर जमे रहने के साथ, क्षमा और दया का गुमान करने का संबंध है : तो यह शुद्ध अज्ञानता और अपरिपक्वता है, और यह मुरजिया के सिद्धांत को ओर ले जाता है।
"अल-मुफ़हिम शर्ह मुस्लिम'' (7/5,6).
दूसरा : विपत्तियोँ के समय, तथा मृत्यु के उपस्थित होने के समय।
जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्होंने कहा : मैंने पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को आपकी मृत्यु से तीन दिन पहले यह फरमाते हुए सुनाः ''तुममें से किसी की मृत्यु न आए मगर इस स्थिति में कि वह अल्लाह के प्रति अच्छा गुमान रखता हो।'' इसे मुस्लिम (हदीस संख्या : 2877) ने रिवायत किया है।
''अल-मौसूअतुल फिक़्हिय्या (10/2220)” में है कि :
“मोमिन पर अनिवार्य है कि वह अल्लाह सर्वशक्तिमान के प्रति अच्छा गुमान रखे, तथा विपत्तियों के उतरने के समय और मृत्यु के समय उसके लिए अल्लाह के प्रति अच्छा गुमान रखना सबसे अधिक ज़रूरी हो जाता है। हत्ताब ने कहा : जिस व्यक्ति की प्राण निकल रही हो उसके लिए अल्लाह के प्रति हुस्ने-ज़न्न रखना ऐच्छिक है, तथा अल्लाह के प्रति अच्छा गुमान रखना अगरचे मृत्यु के समय और बीमारी में सुनिश्चित हो जाता है, लेकिन मुकल्लफ को चाहिए कि वह हमेशा अल्लाह के प्रति अच्छा गुमान रखने वाला हो।” अंत हुआ।
देखें: नववी की "शर्ह मुस्लिम" (17/10)।
उपर्युक्त बातों से यह स्पष्ट हुआ कि सर्वशक्तिमान अल्लाह के प्रति अच्छे गुमान के साथ कर्तव्य का छोड़ना और पाप करना नहीं पाया जा सकता। और जो व्यक्ति यह मानता है कि यह उसके लिए फायदेमंद है, तो उसने ठीक रूप से अल्लाह के लिए योग्य नामों, गुणों और कार्यों को उसके लिए सिद्ध नहीं किया। और उसने ऐसा करके अपने आपको बर्बादी की खाई में गिरा दिया। लेकिन जहाँ तक अपने पालनहार को जानने वाले विश्वासियों (मोमिनों) का मामला है, तो उन्होंने अच्छा काम किया है और अपने पालनहार के प्रति अच्छा गुमान रखा है कि वह उनके कार्यों को स्वीकार करेगा। तथा वे अपनी मृत्यु के समय अपने पालनहार के बारे में अच्छा गुमान रखते हैं कि वह उन्हें क्षमा कर देगा है और उन पर दया करेगा, भले ही उनके पास कुछ त्रुटिया हों, तो उनके लिए आशा की जाती है उन्हें अल्लाह सर्वशक्तिमान की ओर से वह प्राप्त हो जाएगा जैसा कि उसने उनसे वादा किया है।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है
इस्लाम प्रश्न और उत्तर