हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
इस्लाम की शरीअत एक परिपूर्ण और व्यापक शरीअत है, अल्लाह तआला का फरमान है :
الْيَوْمَ أَكْمَلْتُ لَكُمْ دِينَكُمْ وَأَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِي وَرَضِيتُ لَكُمُ الإِسْلاَمَ دِيناً [سورة المائدة : 3]
“आज मैं ने तुम्हारे लिए तुम्हारे धर्म को मुकम्मल कर दिया और तुम पर अपनी नेमतें सम्पूर्ण कर दीं और तुम्हारे लिए इस्लाम धर्म को पसन्द कर लिया।” (सूरतुल माईदाः 3)
तथा अल्लाह तआला ने फरमाया :
قل أي شيء أكبر شهادة قل الله شهيد بيني وبينكم وأوحي إلي هذا القرآن لأنذركم به ومن بلغ [سورة الانعام : 19]
“आप कहिए कि सबसे बड़ी गवाही किसकी है ॽ कह दीजिए कि हमारे और तुम्हारे बीच अल्लाह गवाह है, और यह क़ुर्आन मेरी तरफ वह्य किया गया है ताकि उसके द्वारा मैं तुम्हें और जिस तक यह पहुँचे उन सब को डराऊँ (सावधान करूँ)।” (सूरतुल अंआम : 19).
तथा अल्लाह तआला ने फरमाया :
وما أرسلناك إلا كافة للناس بشيراً ونذيراً [سورة سبأ : 28]
“हम ने आप को समस्त मानव जाति के लिए शुभ सूचना देने वाला तथा डराने वाला बनाकर भेजा है।” (सुरत सबा : 28)
तथा अल्लाह तआला ने मोमिनों को रोज़े की अनिवार्यता के साथ संबोधित करते हुए फरमाया :
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا كُتِبَ عَلَيْكُمُ الصِّيَامُ كَمَا كُتِبَ عَلَى الَّذِينَ مِنْ قَبْلِكُمْ [البقرة : 183]
“ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! तुम पर रोज़े रखना अनिवार्य किया गया है जिस प्रकार तुम से पूर्व के लोगों पर अनिवार्य किया गया था।” (सूरतुल बक़रा : 183)
तथा रोज़े का आरंभ और उसके अंत को स्पंष्ट करते हुए फरमाया :
وَكُلُوا وَاشْرَبُوا حَتَّى يَتَبَيَّنَ لَكُمُ الْخَيْطُ الأبْيَضُ مِنَ الْخَيْطِ الأَسْوَدِ مِنَ الْفَجْرِ ثُمَّ أَتِمُّوا الصِّيَامَ إِلَى اللَّيْلِ [البقرة : 187]
“तुम खाते पीते रहो यहाँ तक कि प्रभात का सफेद धागा रात के काले धागे से प्रत्यक्ष हो जाए। फिर रात तक रोज़े को पूरे करो।” (सूरतुल बक़रा : 187)
और यह हुक्म किसी देश या किसी एक प्रकार के लोगों के साथ विशिष्ट नहीं है, बल्कि अल्लाह ने उसे एक सामान्य नियम के रूप में निर्धारित किया है, और ये लोग जिनके बारे में प्रश्न किया गया है इस सामान्य नियम में दाखिल हैं, जबकि अल्लाह तआला अपने बंदों पर मेहरबान है उनके लिए आसानी और नर्मी के ऐसे रास्ते निर्धारित किए हैं जो उस चीज़ के करने पर उनके सहायक हैं जिसे उसने उनके ऊपर अनिवार्य किया है। चुनाँचे उसने - उदाहरण के तौर पर - यात्री और बीमार के लिए रमज़ान में उनसे कष्ट को दूर करने के लिए रोज़ा तोड़ना वैध कर दिया है, अल्लाह तआला ने फरमाया :
شَهْرُ رَمَضَانَ الَّذِي أُنْزِلَ فِيهِ الْقُرْآنُ هُدىً لِلنَّاسِ وَبَيِّنَاتٍ مِنَ الْهُدَى وَالْفُرْقَانِ فَمَنْ شَهِدَ مِنْكُمُ الشَّهْرَ فَلْيَصُمْهُ وَمَنْ كَانَ مَرِيضاً أَوْ عَلَى سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِنْ أَيَّامٍ أُخَرَ يُرِيدُ اللَّهُ بِكُمُ الْيُسْرَ وَلا يُرِيدُ بِكُمُ الْعُسْرَ [البقرة : 185]
“रमज़ान का महीना वह है जिसमें क़ुर्आन उतारा गया जो लोगों के लिए मार्गदर्शक है और जिसमें मार्गदर्शन की और सत्य तथा असत्य के बीच अन्तर की निशानियाँ हैं, अतः तुम में से जो व्यक्ति इस महीना को पाए उसे रोज़ा रखना चाहिए। और जो बीमार हो या यात्रा पर हो तो वह दूसरे दिनों में उसकी गिन्ती पूरी करे, अल्लाह तआला तुम्हारे साथ आसानी चाहता है, तुम्हारे साथ सख्ती नहीं चाहता है।” (सूरतुल बक़रा : 185)
अतः मुकल्लफ में से जो भी व्यक्ति रमज़ान के महीने को पाता है उसके ऊपर रोज़ा रखना अनिवार्य है, चाहे दिन लंबा हो या छोटा हो, यदि वह किसी दिन के रोज़ा को पूरा करने में सक्षम न हो और उसे अपने नफ्स पर मृत्यु या बीमारी का डर हो तो उसके लिए ऐसी चीज़ के द्वारा रोज़ा तोड़ देना जाइज़ है जिस से उसकी जान बच जाए और उसकी हानि को दूर करदे, फिर अपने दिन के शेष हिस्से में खाने पीने से रूक जाए, और उसके ऊपर उस दिन की दूसरे उन दिनों में क़ज़ा अनिवार्य है जिनमें वह रोज़ा रखने में सक्षम हो। और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।