रविवार 21 जुमादा-2 1446 - 22 दिसंबर 2024
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उसने दो साल रोज़े नहीं रखे और अब वह क़ज़ा करने में असक्षम है, तो उसे क्या करना चाहिए?

प्रश्न

मेरे पिता ने सत्तर की दहाई में एक शैक्षिक प्रशिक्षण कोर्स के लिए पश्चिम का सफर किया था। उनको इस बात का पता नहीं था कि इस्लामी देशों में रमज़ान शुरू हो चुका है, क्योंकि उस समय आजकल की तरह विकसित संपर्क के संसाधन नहीं थे। कई महीने बीतने के बाद उन्हें परिवार की ओर से ईद की बधाई का टेलीग्राम पहुँचता था। तब उन्हें पता चलता था कि रमज़ान समाप्त हो चुका। ज्ञात रहे कि वह शहर से अलग-थलग फैक्ट्री में ठहरे थे और काम बहुत तेज़ी से चल रहा था। इसलिए उन्हों ने दो साल के रोज़े नहीं रखे।

इस समय वह इस क़र्ज़ को रोज़े के द्वारा नहीं लौटा सकते, ज्ञात रहे कि उन्हों ने जानबूझकर रोज़ा नहीं तोड़ा था, तो क्या इसका कोई समाधान है

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

सर्व प्रथम :

जिस व्यक्ति के ऊपर महीने संदिग्ध हो जाएँ, उससे रमज़ान का रोज़ा साक़ित (समाप्त) नहीं होता है, उसके ऊपर अनिवार्य है कि महीने की जानकारी करने के लिए खोजबीन और प्रयास करे।

‘‘अल-मौसूअतुल फिक़्हिय्या’’ (10/192)में आया है :

''जो व्यक्ति बंदी है, या कुछ ऐसे थानों पर है जो शहरों से दूर हैं, या दारूल हर्ब में है इस तौर पर कि उसके लिए सूचना के द्वारा महीनों की जानकारी प्राप्त करना संभव नही है, और उसके ऊपर रमज़ान का महीना संदिग्ध हो गया : तो फुक़हा का इस बात पर इत्तिफाक़ (सर्वसम्मति) है कि उसके ऊपर रमज़ान के महीने को जानने के लिए खोजबीन और भरपूर प्रयास करना ज़रूरी है। क्योंकि उसके लिए लिए खोज-पड़ात और इज्तिहाद के द्वारा फर्ज़ को अदा करना संभव है, अतः उसके लिए ऐसा करना अनिवार्य है जैसाकि क़िब्ला की ओर मुँह करने के लिए किया जाता है।’’ अंत हुआ।

यदि उसने भरपूर प्रयास किया और रोज़े के सही समय का खोज किया : तो उसकी इबादत सही और पर्याप्त होगी, क्योंकि अल्लाह तआला का फरमान है:

لا يُكَلِّفُ اللَّهُ نَفْساً إِلاَّ وُسْعَهَا

البقرة: 286

''अल्लाह तआला किसी प्राणी पर उसकी शक्ति से अधिक भार नहीं डालता।'' (सूरतुल बक़रा : 286)

तथा अल्लाह का कथन हैः

لَا يُكَلِّفُ اللَّهُ نَفْساً إِلَّا مَا آتَاهَا

الطلاق :7

''अल्लाह तआला किसी प्राणी पर केवल उतना ही भार डालता है जितनी शक्ति उसे दे रखी है।'' (सूरतुत-तलाक़ः 7)

तथा प्रश्न संख्या (81421) देखिए।

अतः आपके पिता के ऊपर अनिवार्य यह था कि वह रमज़ान के महीने की खोज-पड़ताल करते, और अपने इज्तिहाद के हिसाब से रोज़ा रखते।

और यदि उनके लिए प्रश्न करना संभव था, तो उनके ऊपर प्रश्न करना अनिवार्य था।

तथा जब उन्हें ज्ञात हो गया कि रमज़ान दाखिल हो गया है, या बीत चुका है : तो उनके ऊपर अनिवार्य होगया कि वह रोज़ा रखते, या तो अदायगी के तौर पर यदि वह समय के अंदर था, या क़ज़ा के तौर पर यदि महीना निकल गया था।

जहाँ तक इस बात का संबंध है कि वह दो साल बाक़ी रहते हैं रोज़ा नहीं रखते हैं और महीने के दाखिल होने से अनभिगता और अज्ञानता को कारण बनाते हैं : तो ऐसा करना जायज़ नहीं है।

दूसरा :

आपके पिता के ऊपर, रमज़ान के उन दोनों महीनों के बदले जिनका रोज़ा उन्होंने नहीं रखा था, दो महीने का रोज़ा रखना अनिवार्य है। साथ ही साथ उन्हें तौबा व इस्तिगफार करना, अधिक से अधिक नफ्ली (स्वेच्छिक) नेक कार्य करना विशेषकर रोज़े रखना चाहिए।

बल्कि विद्वानों की बहुमत इस ओर गर्ह है कि : उसके ऊपर उन दिनों की क़ज़ा के साथ जिनके रोज़े उसने नहीं रखे थे : हर दिन के बदले जिसका रोज़ा उसने तोड़ दिया है एक मिसकीन को खाना खिलाना अनिवार्य है।

शैख इब्ने जिब्रीन रहिमहुल्लाह से प्रश्न किया गया :

जिस व्यक्ति ने रमज़ान के रोज़ों की क़ज़ा को दूसरे रमज़ान तक विलंब कर दिया उसके ऊपर क्या अनिवार्य है?

तो उन्हों ने उत्तर दिया :

''यदि उसने ऐसा किसी कारण से किया है जैसे कि वह ग्यारह महीने बीमार था और अपने बिस्तर पर पड़ा था, और इस अवधि में वह रोज़ा नहीं रख सका ; तो उसके ऊपर क़ज़ा के अलावा और कुछ अनिवार्य नहीं है। लेकिन अगर उसने ऐसा अपनी कोताही व लापरवाही की वजह से किया है, हालांकि वह सक्षम था ; तो उसके ऊपर कोताही व लापरवाही के परायश्चित के तौर पर क़ज़ा करने के साथ-साथ हर दिन के बदले एक मिसकीन को खाना खिलाना भी अनिवार्य है।''

‘‘फतावा अस-सियाम’’ से समाप्त हुआ।

तथा प्रश्न संख्या (26865) का उत्तर देखें।

दूसरा :

जो व्यक्ति अपनी बीमारी या बुढ़ापे की वजह से रोज़े की क़ज़ा करने में असमर्थ हो : उसके ऊपर तौबा के साथ-साथ हर दिन के बदले एक मिसकीन को खाना खिलाना अनिवार्य है, तथा जमहूर के कथन के क़यास पर : उसके ऊपर एक अन्य खाना भी खिलाना अनिवार्य है, और वह विलंब के परायश्चित के तौर पर हर दिन के बदले एक मिसकीन को खाना खिलाना है।

जलालुद्दीन महल्ली रहिमहुल्लाह ''मिनहाजुत्तालिबीन'' (2/88) पर अपनी व्याख्या में कहते हैं :

‘‘(और) सबसे सही यह है कि (यदि उसने संभावना के बावजूद क़ज़ा को विलंब कर दिया, और मर गया : तो उसके मीरास से हर दिन के लिए दो मुद्द निकाला जायेगा: एक मुदद क़ज़ा के छूट जाने के लिए) नये कथन के अनुसार (और एक मुद्द विलंब के लिए).

दूसरा कथन : एक मुद्द काफी है, और वह क़ज़ा छूट जाने के लिए है, जबकि देरी करने का मुद्द समाप्त हो जायेगा।'' अंत हुआ। (मुद्दः लगभग 510 ग्राम)

अतः यदि वह हर दिन के बदले एक गरीब को खाना खिलाने पर सक्षम है तो यह अधिक सावधानी का पक्ष है, और उसे ज़िम्मदेारी से अधिक मुक्त करनेवाला है, अन्यथा वह हर दिन के बदले एक गरीब को खाना खिलायेगा, और उसके ऊपर इसके अलावा कुछ और अनिवार्य नहीं है।

और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर