हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
प्रश्नकर्ता द्वारा उल्लेख किए गए इस आयत में जो आदेश दिया गया हैः वह सहाबा (नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के साथियों) तथा ईमान लाने वालों के लिए एक आदेश है कि वे अपने ऊपर अल्लाह की नेमत और उसकी कृपा तथा अपने प्रति उसके इस उपकार को याद करें कि उसने उनके दुश्मनों को पराजित कर दिया और उनकी चाल को विफल कर दिया।
इमाम इब्ने कस़ीर रहिमहुल्लाह कहते हैं:
अल्लाह तआला अपने मोमिन बंदों पर अपनी नेमत, अनुकम्पा और उपकार के बारे में सूचना दे रहा है कि खंदक़ की जंग के साल जब दुश्मन जत्थों के रूप में उनके खिलाफ इकट्ठे होगए और उनपर टूट पड़े, तो अल्लाह ने उन्हें पराजित करके वापस कर दिया।
(तफ्सीर इब्ने कस़ीर 6/383)
क़ुरआन में जहाँ भी नेमत के जिक्र करने का हुक्म आया है तो उसका मतलब है दिल में नेमत को याद करना, और वह इस प्रकार कि अल्लाह ने अपने बंदों पर इन नेमतों द्वारा जो कृपा किया है उसे ध्यान में रखा जाए। तथा ज़ुबान से नेमतों को याद करना और वह इस प्रकार कि जुबान से उसकी चर्चा की जाए, तथा शरीर के अंगों द्वारा उसको याद करना और वह इस प्रकार कि वह उनको ऐसे कार्यों में इस्तेमाल न करे जिनसे अल्लाह नाराज़ होता है।
अतः नेमत का जिक्र करने से अभिप्राय उसका धन्यवाद करना है। और वह दिल, ज़ुबान तथा शारीरिक अंगों (कार्यों) द्वारा होता है। और उनमें से प्रत्येक दूसरों की पुष्टि करता है। अगर ऐसा न हो तो कृतज्ञता झूठी होगी।
इसीलिए एक अरबी कवि ने कहा है (जिसका आशय यह है) :
अर्थात तुम अपनी नेमतों की वजह से मेरे हाथ, ज़ुबान तथा छुपे हुए दिल के मालिक हो गए हो।
शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने अल्लाह के फरमान :
واذْكُرُوا نِعْمَةَ اللَّهِ عَلَيْكُمْ
البقرة: 231
"और तुम अपने ऊपर अल्लाह की नेमतों को याद करो।"
की व्याख्या करते हुए कहते हैं किः नेमतों का जिक्र ज़ुबान, दिल (हृदय) तथा जवारिह (शरीर के अंगों) द्वारा होता है।
ज़ुबान से नेमत को याद करना यह है कि आप कहें : अल्लाह ने मुझे यह नेमत प्रदान किया है, जैसा कि अल्लाह ने फरमाया :
وأما بنعمة ربك فحدث
الضحى: 11
“और तुम अपने रब की नेमतों को बयान (वर्णन) करते रहो।”
तो आप अल्लाह तआला की उस नेमत पर प्रशंसा करते हुए कहें :
“ऐ अल्लाह! तूने जो मुझे धन, पत्नी, या बच्चे दिए हैं उसपर हर प्रकार की प्रशंसा तेरे ही लिए है।” या इसी जैसे दूसरे शब्द।
हृदय में उसको याद करनाः यह है कि आप उस नेमत को दिल में उपस्थित रखें यह स्वीकार करते हुए कि यह अल्लाह की एक नेमत है।
शारीरिक अंगों से नेमतों को याद करना यह है किः आप अल्लाह की आज्ञाकारिता करें, और यह कि आप पर उसकी नेमत का असर (प्रभाव) दिखाई दे।”
“तफ्सीर सूरतुल बक़रा” (3/132) से समाप्त हुआ।
इमाम हरवी ने कहा : शुक्र का तात्पर्य तीन चीजें हैं : नेमत को जानना, फिर नेमत को स्वीकार करना, फिर उसके कारण प्रशंसा करना।
अल्लामा इब्ने क़ैयिम रहिमहुल्लाह इमाम हरवी के कथन की व्याख्या करते हुए कहते हैं : नेमतों को जानने का मतलबः उनको दिमाग में उपस्थित रखना, उनका अवलोकन करना तथा पहचानना है।
अतः उसको जानने का मतलबः उसको दिमाग में लाना है।
उसको स्वीकारने (कबूल करने) का मतलब है कि उसे नेमत प्रदाने करनेवाले से प्राप्त करते समय उसके प्रति अपनी आवश्यकता और निर्धनता व्यक्त करना। और यह स्वीकार करना कि वह उसके पास उसकी योग्यता के बिना, और बिना कोई कीमत चुकाए हुए आई है। बल्कि वह खुद को पूरी तरह से अल्लाह पर निर्भर होनेवाले के रूप में देखे। तो यह उसकी वास्तविक स्वीकृति का साक्ष्य है।
उनका कथनः “फिर उसके लिए प्रशंसा करना”: नेमत से संबंधित नेमत प्रदाता की प्रशंसा के दो प्रकार है: सामान्य और विशिष्ट।
सामान्य प्रशंसा : यह है कि उसे उदारता, दानशीलता, दया, उपकार और इसी तरह के गुणों से वर्णित करना।
विशिष्ट प्रशंसा: उसकी नेमत का वर्णन करना और यह कहना कि वह उसी की तरफ से उसे प्राप्त हुई है। जैसा कि अल्लाह ने फरमाया :
وأما بنعمة ربك فحدث
الضحى: 11
“और तुम अपने रब की नेमतों को बयान (वर्णन) करते रहो।”
नेमतों के बयान करने का जो यह आदेश हुआ है उसके विषय में दो राय हैं :
पहली रायः यह है कि इसका मतलब नेमतों की चर्चा करना और उनके बारे में बताना है। और यह कहना कि अल्लाह ने मुझे यह और यह नेमत दी है।
इमाम मुक़ातिल ने कहा: इसका मतलब यह है कि इस सूरत में आपके ऊपर की गई जिन नेमतों का उल्लेख किया गया है उन पर धन्यवाद करें, जैसे- यतीमी (अनाथावस्था) की भरपाई करना, गुमराही के बाद मार्गदर्शन देना तथा गरीबी के बाद मालदार बनाना।
अल्लाह की नेमत को बयान करना शुक्र (कृतज्ञता) है जैसा कि जाबिर रजियल्लाहु अन्हु की हदीस में है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः “जिसके साथ कोई भलाई की जाए तो वह भलाई का बदला दे। और अगर बदले में देने के लिए कुछ न पाए तो वह उस व्यक्ति की प्रशंसा करे। क्योंकि यदि वह उसकी प्रशंसा करता है तो उसने उसका धन्यवाद कर दिया। लेकिन यदि वह उसे छिपा लेता है, तो वह उसके प्रति कृतध्न हो गया। और जो उस चीज़ का दिखावा करता है जो उसे नहीं दी गयी है, वह उस व्यक्ति की तरह है जो झूठ के दो वस्त्र पहने हुए है।”
इस हदीस़ को इमाम बुखारी ने अल-अदबुल मुफ्रद (हदीस संख्या : 215) में उल्लेख किया है, और अल्लामा अल्बानी ने इसे सहीह क़रार दिया है।
इस हदीस़ में नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने मनुष्यों के तीन प्रकार का उल्लेख किया है :
1- नेमत का शुक्र अदा करने वाला तथा उसके लिए प्रशंसा करने वाला।
2- नेमत का इनकार करने वाला तथा उसे छिपाने वाला।
3- यह दिखावा करने वाला कि वह नेमत वाला है, जबकि वह वास्तव में ऐसा नहीं होता है, तो वह उस चीज़ का ढोंग करने वाला है जो उसे नहीं दी गयी है।
तथा एक अन्य हदीस में अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः “जो थोड़ी चीज़ के लिए आभार प्रकट नहीं करता है, वह अधिक चीज़ के लिए भी आभार प्रकट नहीं करेगा। और जो लोगों का आभारी नहीं होता है, वह अल्लाह का भी आभारी नहीं होगा। अल्लाह की नेमत को बयान करना कृतज्ञता है, और ऐसा करने से उपेक्षा करना कृतध्नता है। एकता एक दया है और विभाजन एक दंड है।” [अब्दुल्लाह बिन अहमद ने इसे “ज़वाइदुल मुस्नद” (हदीस संख्या : 18449) में रिवायत किया है तथा अल्लामा अल्बानी ने इस हदीस़ को हसन करार दिया है।].
दूसरी रायः यह है कि अल्लाह की नेमत को बयान करने का जो हुक्म इस आयत में [अर्थात सूरतुज़्ज़ुहा के अंत में, जो ऊपर उद्धृत किया गया है] दिया गया है उसका मतलबः अल्लाह की तरफ लोगों को बुलाना, उसके संदेश को लोगों तक पहुँचाना तथा उम्मत को शिक्षा देना है।
इमाम मुजाहिद ने कहाः इससे अभिप्राय नुबुव्वत (ईश्दूतत्व) है।
इमाम ज़ज्जाज ने कहा : इसका मतलब यह है कि (ऐ पैगंबर) आप जिस चीज़ के साथ भेजे गये हैं उसे लोगों तक पहुँचाएं तथा उस नुबुव्वत (ईश्दूतत्व) के विषय में लोगों को बताएं जो अल्लाह ने आप को प्रदान किया है।
इमाम कलबी ने कहाः इससे अभिप्राय क़ुरआन है, अल्लाह ने आपको उस क़ुरआन को पढ़ने का हुक्म दिया है।
सही दृष्टिकोण यह है कि इसमें दोनों प्रकार शामिल हैं। क्योंकि उन दोनों में से प्रत्येक एक नेमत है जिसके लिए धन्यवाद करने और उसे बयान करने का आदेश दिया गया है। और उसका प्रदर्शन करना उसके लिए आभारी होने का हिस्सा है।” इब्नुल क़ैयिम की बात संक्षेप के साथ “मदारिजुस-सालिकीन” (2/237) से समाप्त हुई।
अल्लामा इब्नुल क़ैयिम रहिमहुल्लाह शुक्र (कृतज्ञता) के बारे में कहते हैं :
यह तीन स्तंभों पर आधारित है : प्रोक्ष रूप (दिल) से नेमत को स्वीकार करना, प्रत्यक्ष रूप से उसे बयान करना तथा उसका उपयोग उसके मालिक और उसे प्रदान करने वाले की खुशी में करना।”
“अल-वाबिलुस सैयिब” (पृष्ठ : 5) से समाप्त हुआ।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।