रविवार 21 जुमादा-2 1446 - 22 दिसंबर 2024
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उसकी मृत्यु हो गई और उसने कोताही की वजह से हज्ज नहीं किया तो क्या उसकी ओर से हज्ज किया जायेगा?

प्रश्न

नमाज़ों की पाबंदी करनेवाला थ। वह हर साल कहता था कि : इस साल मैं हज्ज करूँगा। उसकी मृत्यु हो गयी और उसके वारिस हैं, तो क्या उसकी तरफ से हज्ज किया जायेगा? और क्या उसके ऊपर कोई चीज़ अनिवार्य है?

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है।

''विद्वानों ने इसके बारे में मतभेद किया है। चुनाँचे उनमें से कुछ का कहना है: उसकी ओर से हज्ज किया जाएगा, और उसे इसका लाभ पहुँचेगा, और यह ऐसे ही होगा जैसे कि किसी ने अपनी ओर से हज्ज किया हो। जबकि कुछ लोगों ने कहा है : उसकी ओर से हज्ज नहीं किया जायेगा, और यह कि यदि उसकी ओर से हज़ार बार भी हज्ज किया जाए, वह क़बूल नहीं होगा। अर्थात उसकी ज़िम्मेदारी समाप्त नहीं होगी। और यही कथन सत्य है। क्योंकि इस आदमी ने बिना किसी उज़्र के एक ऐसी इबादत को छोड़ दिया जो उसके ऊपर अनिवार्य और तुरंत फर्ज़ थी। तो यह कैसे हो सकता है कि वह (स्वयं) तो इस कर्तव्य को छोड़ देता है, फिर मृत्यु के बाद हम उसे इसका प्रतिबद्ध बनाते हैं। रही बात विरासत की तो अब इससे वारिसों का अधिकार संबंधित हो गया है, सो हम उन्हें इस हज्ज की क़ीमत से कैसे वंचित कर सकते हैं जबकि वह उसके मालिक की ओर से पर्याप्त भी नहीं होगा। इसी चीज़ को इब्नुल क़ैयिम रहिमहुल्लाह ने ''तहज़ीबुस्सुनन'' में उल्लेख किया है, और मैं भी यही कहता हूँ कि : जिस व्यक्ति ने हज्ज को लापरवाही करते हुए उस पर सक्षम होने के बावजूद छोड़ दिया, तो उसकी ओर से हज्ज कभी भी र्प्याप्त नहीं होगा, भले ही लोग उसकी ओर से हज़ार बार हज्ज करें। रही बात ज़कात की, तो कुछ विद्वानों ने कहा है : यदि वह मर गया और उसकी तरफ से ज़कात अदा कर दी गई तो उसकी ज़िम्मेदारी समाप्त हो जायेगी। लेकिन मैंने जो नियम वर्णन किया है उसकी अपेक्षा यह है कि ज़कात से भी उसकी ज़िम्मेदारी समाप्त न हो। लेकिन मेरा विचार है कि मैयित की छोड़ी हुई संपत्ति से ज़कात को निकालना चाहिए, क्योंकि उसके साथ गरीबों और ज़कात के अधिकारी लोगों का हक़ संबंधित है। जबकि हज्ज का मामला इसके विपरीत है, अतः उसे उसके तर्का (मृत की छोड़ी हुई संपत्ति) से नहीं निकाला जायेगा क्योंकि उससे किसी मनुष्य का हक़ संबंधित नहीं होता है। जबकि ज़कात के साथ इन्सान का हक़ संबंधित होता है, इसलिए ज़कात को उसके अधिकारी लोगों के लिए निकाला जायेगा, लेकिन उसके मालिक की ओर से काफी नहीं होगा, और उसे उस व्यक्ति के समान सज़ा दी जायेगी जिसने ज़कात अदा नहीं किया, अल्लाह तआला से दुआ है कि वह हमें इससे सुरक्षित रखे। इसी तरह रोज़े का भी मामला है, यदि पता चल जाए कि इस आदमी ने रोज़ा छोड़ दिया है और उसकी क़ज़ा करने में लापरवाही की है, तो उसकी तरफ से क़ज़ा नहीं किया जायेगा क्योंकि उसने लापरवाही से काम लिया है और इस इबादत को जो कि इस्लाम के स्तंभों में से एक स्तंभ है बिना किसी उज़्र (शरई कारण) के छोड़ दिया है, इसलिए यदि उसकी ओर से कज़ा किया जाए तो उसे लाभ नहीं पहुँचेगा। जहाँ तक आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का यह फरमान है कि : ''जो व्यक्ति मर गया और उसके ऊपर रोज़े हैं तो उसका वली (अभिभावक) उसकी ओर से रोज़ा रखे।'' तो यह उस आदमी के बारे में हैं जिसने कोताही व लापरवाही से काम नहीं लिया है, लेकिन जिस आदमी ने खुल्लम खुल्ला बिना किसी शरई उज़्र के क़ज़ा को छोड़ दिया तो उसकी तरफ से क़ज़ा करने का क्या फायदा है।'' अंत

स्रोत: ''फतावा इब्ने उसैमीन'' (21/226)