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सहाबा से द्वेष रखने का हुक्म

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प्रकाशन की तिथि : 27-02-2012

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प्रश्न

मैं एक आदमी के साथ सम्मानित सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम के बारे में बात चीत कर रहा था, उसने मुझसे कहा : हम में से कोई भी व्यक्ति किसी भी सहाबी को नापसंद कर सकता है और यह इस्लाम के विरूद्ध नहीं है, -इस्लाम से नहीं टकराता है, तथा उसने कहा : हो सकता है कि यह -अर्थात् सहाबा से घृणा- उस आदमी को ईमान के दायरे से बाहर कर दे, परंतु वह इस्लाम के दायरे में बाक़ी रहता है। इसलिए हम आप से अनुरोध करते हैं कि इस मामले को स्पष्ट करे।

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

निःसंदेह यह बहुत बड़ी नाकामी और अल्लाह की तरफ से तौफीक़ की कमी है कि बंदा सर्व श्रेष्ठ सृष्टि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम को बुरा भला कहना और उनके बीच जो मतभेद पैदा हुए थे उनके बारे में बहस करना अपना तरीक़ा और व्यवहार बना ले, बजाय इसके कि वह अपनी आयु को ऐसी चीज़ में लगाये जो उसके दीन और दुनिया के लिए लाभदायक हो। तथा किसी भी व्यक्ति के लिए कोई भी कारण नहीं है कि वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को बुरा भला कहे या उनसे द्वेष रखे, क्योंकि उनकी प्रतिष्ठा बहुत महान और अनेक है, वही लोग हैं जिन्हों ने दीन की मदद की और उसको फैलाया, उन्हीं लोगों ने मुशरिकों (अनेकेश्वरादियों) से लड़ाई की, उन्हीं लोगों ने क़ुरआन व सुन्नत और दीन के अहकाम को स्थानांतरित किया, उन्हों ने अपनी जान व माल को अल्लाह के रास्ते में खर्च किया, उन्हें अल्लाह तआला ने अपने पैगंबर की संगत के लिए चुना, अतः कोई मुनाफिक़ (पाखंडी) ही उन्हें बुरा भला कहेगा और उनसे द्वेष रखेगा जो न दीन को पसंद करता है और न उस पर ईमान रखता है।

बरा बिन आज़िब रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्हों ने कहा : मैं ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को फरमाते हुए सुना : अनसार से कोई मोमिन ही महब्बत करेगा, और कोई मुनाफिक़ ही उनसे द्वेष रखेगा, अतः जो उनसे महब्बत करे अल्लाह उस से महब्बत करे, और जो उनसे द्वेष रखे, अल्लाह उस से द्वेष रखे।” इसे बुखारी (हदीस संख्या: 3572) और मुस्लिम (हदीस संख्या: 75) ने रिवायत किया है।

जब उस आदमी से ईमान समाप्त हो जाता है जो अनसार से द्वेष रखता है और उसके लिए निफाक़ साबित हो जाता है: तो फिर उस आदमी का क्या हुक्म होगा जो अनसार व मुहाजिरीन और भलाई के साथ उनकी पैरवी करने वालों से द्वेष रखता है, उन्हें गाली देता है, उन पर लानत करता है, उन्हें काफिर कहता है, तथा जो लोग उनसे दोस्ती रखते हैं और उनपर रज़ियल्लाहु अन्हुम पढ़ते हैं उन्हें भी काफिर कहता है, जैसाकि राफिज़ा लोग करते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि वे लोग कुफ्र, निफाक़ और ईमान की अनुपस्थिति के अधिक योग्य हैं।

तहावी ने -अहले सुन्नत वल जमाअत के एतिक़ाद के वर्णन- में फरमाया :

और हम रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व-अला आलिही व सल्लम के असहाब से महब्बत करते हैं, और उनमें से किसी की महब्बत में अति नहीं करते हैं, और न उनमें से किसी से उपेक्षा करते हैं, और जो उनसे द्वेष रखते है और बिना भलाई के उनका चर्चा करता हैं, हम उस से द्वेष रखते हैं, तथा हम उनकी चर्चा भलाई के साथ ही करते हैं, तथा उनसे महब्बत करना दीन, ईमान और एहसान है, और उनसे द्वेष रखना कुफ्र, निफाक़ और अत्याचार है।

शैख सालेह अल-फौज़ान ने फरमाया :

अहले सुन्नत वल जमाअत का मत: नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के अहले-बैत से दोस्ती और वफादारी है।

और नवासिब : सहाबा से दोस्ती और वफादारी रखते और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के घराने वालों से द्वेष रखते हैं, इसी कारण उन्हें नवासिब कहा जाता है, क्योंकि वे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के घराने वालों से दुश्मनी रखते हैं।

तथा रवाफिज़ : इसके विपरीत हैं, उन्हों ने अपने भ्रमानुसार अहले बैत से दोस्ती और वफादारी की, और सहाबा से द्वेष रखा, तथा उन पर लानत (धिक्कार) करते हैं, उन्हें काफिर ठहराते हैं और उनकी बुराई करते हैं . . .

और जो व्यक्ति सहाबा से द्वेष रखता है, तो वह वास्तव में दीन से द्वेष रखता है, क्योंकि वही लोग इस्लाम के धारक और मुस्तफा सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के अनुयायी हैं, अतः जिसने उनसे द्वेष रख उसने इस्लाम से द्वेष रखा, तो यह इस बात का प्रमाण है कि इन लोगों के दिलों में कुछ भी ईमान नहीं है, तथा इसमें यह प्रमाण है कि वे इसलाम को पसंद नहीं करते हैं . . .

यह एक महान सिद्धांत है जिसकी जानकारी रखना मुसलमान पर अनिवार्य है, और वह सहाबा से महब्बत रखना और उनका सम्मान करना है ; क्योंकि यह ईमान का हिस्सा है, और उनसे द्वेष रखना या उनमें से किसी से द्वेष रखना कुफ्र और निफाक़ में दाखिल है, और इसलिए कि उन से महब्बत करना नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से महब्बत रखन में से है और उनसे द्वेष रखना नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से द्वेष रखने में से है।

“शर्हुल अक़ीदा अत्तहाविय्यह”

कुछ विद्वानों ने “सहाबा से द्वेष रखने” के बारे में विवरण करते हुए कहा है : यदि वह उनमें से कुछ से द्वेष रखने में किसी भौतिक चीज के लिए पड़ा है, तो वह कुफ्र और निफाक़ में नहीं पड़ेगा, और यदि वह किसी धार्मिक कारण से इस हैसियत से कि वे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सहाबा थे उनसे द्वेष रखता है, तो उनके कुफ्र में कोई संदेह नहीं है।

यह एक अच्छा विवरण है जो उस बात के विरूद्ध नहीं है जो हम ने पहले वर्णन किया है, बल्कि यह उसे स्पष्ट करती और उसकी पुष्टि करती है।

अबू ज़ुरअह अर्राज़ी ने फरमाया : जब तुम आदमी को देखो कि वह अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथियों में से किसी की आलोचना करता है, तो जान लो कि वह विधर्मी है।

तथा इमाम अहमद ने फरमाया : जब तुम किसी आदमी को देखो कि वह पैंगबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथियों में से किसी का बुराई के साथ उल्लेख करता है तो उसके इस्लाम पर उसे आरोपित करो।

शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह ने फरमाया :

जहाँ तक उस आदमी का संबंध है जो उन्हें इस तरह बुरा भला कहता है जो उनकी न्यायप्रियता और उनकी धर्मनिष्ठता को दोषित नहीं करता है उदाहरण के तौर पर उनमें से कुछ को कंजूसी या बुज़दिली, या ज्ञान की कमी, या ज़ुह्द की कमी इत्यादि से विशिष्ट करना, तो ऐसा ही व्यक्ति अनुशासन और सज़ा का अधिकृत है, और मात्र इसके कारण हम उसके ऊपर कुफ्र का हुक्म नहीं लगायेंगे, और इसी अर्थ में उन विद्वानों की बात को भी लिया जायेगा जिन्हों ने सहाबा को बुरा भला कहने वालों को काफिर नहीं ठहराया है।

किंतु जिस ने सामान्य रूप से लानत किया और बुरा भला कहा, तो यही उनके बारे में मतभेद का स्थान है, क्योंकि मामला गुस्से के शाप और विश्वास व आस्था के शाप के बीच घूमता है।

परंतु जो व्यक्ति इस से भी आगे बढ़ गया यहाँ तक कि यह गुमान कर लिया कि वे अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के बाद मुर्तद्द -विधर्मी- हो गए, सिवाय कुछ लोगों के जिनकी संख्या एक दर्जन से अधिक नहीं पहुँचती है, या उनमें से आम लोग फासिक़ (पापी) हो गए, तो ऐसे व्यक्ति के बारे में भी कोई संदेह नहीं है, क्योंकि उसने उस चीज़ को झुठला दिया जिसे क़ुरआन ने कई स्थानों पर उनसे प्रसन्न होने और उनकी प्रशंसा करने को स्पष्ट रूप से बयान किया है, बल्कि जो व्यक्ति उनके कुफ्र में शक करता है तो उसका कुफ्र सुनिश्चित है, क्योंकि इस कथन का आशय यह है कि किताब और सुन्नत को स्थानांतरित करने वाले काफिर या फासिक़ हैं, और यह आयत कि “तुम सर्वश्रेष्ठ समुदाय हो जिसे लोगों के लिए निकाला गया है” और उनमें सबसे श्रेष्ठ प्रथम शताब्दी के लोग थे, वे आम तौर पर काफिर या फासिक़ थे, और इसका मतलब यह हुआ कि यह समुदाय सबसे बुरा समुदाय है, और इस समुदाय के पिछले लोग सबसे बुरे लोग हैं, और इनका कुफ्र इस्लाम धर्म की आवश्यक रूप से सर्वज्ञात बातों में से है।

इसीलिए आप पायेंगे कि जिस पर भी इन में से कोई बात प्रकट हुई है, आम तौर पर यह स्पष्ट होता है कि वह ज़िंदीक़ (विधर्मी) है, और आम तौर पर ज़िंदीक़ लोग अपने मत का आड़ प्राप्त करते हैं, अल्लाह तआला ने उनके बारे में प्रमाण प्रकट किए हैं, और यह उद्धरण तवातुर के साथ साबित है कि उनके चेहरे जीवन और मृत्यु में सूअरों में विकृत कर दिये जाते हैं, तथा विद्वानों को इसके बारे में जो बातें पहुँची हैं उसे उन्हों ने एकत्र किया है, और इस अध्याय में जिन्हों ने किताबें लिखी हैं उनमें से एक हाफिज़ सालेह अबू अब्दुल्लाह बिन अब्दुल वाहिद मक़दसी हैं जिन्हों ने अपनी किताब में सहाबा को गाली देने के निषेध और उस बारे में वर्णित पाप और सज़ा का उल्लेख किया है।

सारांश यह कि सहाबा को बुरा भला कहने वालों के वर्गों में से कुछ ऐसे है जिनके कुफ्र के बारे में कोई संदेह नहीं है, और उनमें से कुछ पर कुफ्र का हुक्म नहीं लगाया जायेगा, और उनमें से एक वर्ग ऐसा है जिसके बारे में तरद्दुद से काम लिया गया है।

“अस्सारिमुल मसलूल अला शातिमिर्रसूल” (पृष्ठ 590 - 591).

तथा तक़ीयुद्दीन अस्सुबकी ने फरमाया :

इस शोध पर कुछ सहाबा को बुरा भला कहना आधारित होता है, क्योंकि सभी सहाबा को बुरा भला कहना निःसंदेह कुफ्र है, और इसी तरह यदि वह किसी एक सहाबी को बुरा भला कहे उसके सहाबी होने की हैसियत से ; क्योंकि यह सहाबियत के हक़ का अपमान है, इसके अंदर स्वयं नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को निशाना बनाने का विषय है, अतः बुरा भला कहने वाले के कुफ्र में कोई संदेह नहीं है, और इसी पर तहावी के कथन “और उनसे बुग़ज़ रखना कुफ्र है” को लागू किया जायेगा, क्योंकि सभी सहाबा से द्वेष रखना निःसंदेह कुफ्र है, लेकिन यदि वह किसी सहाबी को इस हैसियत से गाली नहीं देता है कि वह एक सहाबी है बल्कि किसी निजी मामले की वजह से है, और वह सहाबी उदाहरण के तौर पर उन लोगों में से है जो मक्का पर विजय से पहले इस्लाम लाए, और हम उसकी फज़ीलत और प्रतिष्ठा को सत्यापित मानते हैं, जैसे रवाफिज़ जो अबू बक्र व उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा को बुरा भला कहते हैं, तो क़ाज़ी हुसैन ने अबू बक्र व उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा को बुरा भला कहने वाले के कुफ्र के बारे में दो रूप वर्णन किए हैं।

और तरद्दुद का कारण यह है जो हम पहले वर्णन कर चुके हैं कि किसी निधारिर्त व्यक्ति को बुरा भला कहना किसी विशेष और निजी मामले की वजह से हो सकता है, और कभी एक व्यक्ति किसी आदमी से किसी दुनियावी -सांसारिक- चीज़ की वजह से द्वेष रखता है, तो यह उसके तकफीर की अपेक्षा नहीं करता है, और इसमें कोई शक की बात नहीं है कि यदि वह उन दोनों में से किसी एक से उसके सहाबी होने की वजह से द्वेष रखा तो यह कुफ्र है, बल्कि जो उन दोनों से सहाबियत में कम दर्जे में है यदि उस से भी कोई आदमी उसके सहाबी होने की वजह से द्वेष रखा है तो वह निश्चित रूप से काफिर है।

“फतावा अस्सुबकी” (2/575).

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर