हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है।अल्लाह तआला का फरमान हैः
] إِنَّ الدِّينَ عِنْدَ اللَّهِ الإِسْلامُ[ [ آل عمران: 19].
"निःसन्देह अल्लाह के निकट धर्म इस्लाम ही है।"(सूरत-आल इम्रानः 19)
तथा फरमायाः
]وَمَن يَبْتَغِ غَيْرَ الإِسْلاَمِ دِيناً فَلَن يُقْبَلَ مِنْهُ وَهُوَ فِي الآخِرَةِ مِنَ الْخَاسِرِينَ [ [آل عمران: 85]
"और जो व्यक्ति इस्लाम के सिवा कोई अन्य धर्म ढूंढ़े गा, तो वह (धर्म) उस से स्वीकार नहीं किया जायेगा, और आखिरत में वह घाटा उठाने वालों में से होगा।" (सूरत आल-इम्रान: 85)
इस्लाम की वास्तविकता यह है कि अकेले अल्लाह जिसका कोई साझी नहीं, की उपासना और आज्ञापालन तथा उसके पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का आज्ञापालन करते हुए अपने आपको एकमात्र अल्लाह के प्रति समर्पित कर दिया जाये। तथा इस्लाम धर्म का आधार "ला-इलाहा इल्लल्लाह" (अल्लाह के अलावा कोई वास्तविक पूज्य नहीं) और "मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह" (मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- अल्लाह के संदेष्टा - पैगंबर- हैं) की गवाही है। अतः प्रत्येक मुसलमान पर अनिवार्य है कि वह इस्लाम धर्म का निष्ठावान बने।चुनांचे वह इबादत (उपासना) को केवल अल्लाह के लिए विशिष्ट करे और नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का आज्ञापालन करे। जो व्यक्ति इसपर सुदृढ़ रूप से जमा रहा यहाँ तक कि उसकी मृत्यु आगई तो वह स्वर्गवासियों में से है। और जो व्यक्ति इस्लाम में प्रवेश नहीं किया यहाँ तक कि वह मर गया तो वह नरकवासियों में से है। और जो व्यक्ति उसमें प्रवेश किया फिर उस से पलट गया और उसे त्याग कर दिया तो वह काफिर (नास्तिक) और मुर्तद्द हो गया। यदि वह अपने कुफ्र की अवस्था में ही मर गया तो वह नरकवासी होगा,और यदि उसने तौबा (पश्चाताप) कर लिया और इस्लाम की तरफ वापस लौट आया और मरने तक उस पर जमा रहा तो उसका धर्म से मुर्तद्द हो जाना उसे हानि नहीं पहुँचाये गा,और वह स्वर्गवासियों में से होगा,यद्यपि वह एक से अधिक बार मुर्तद्द हुआ हो। किंतु जो व्यक्ति कई बार मुर्तद्द हुआ है उसके बारे में इस बात का भय है कि उसे तौबा (पश्चाताप) करने की तौफीक़ (अवसर) न प्राप्त हो। [क्योंकि अल्लाह तआला का फरमान है:
] إِنَّ الَّذِينَ آمَنُوا ثُمَّ كَفَرُوا ثُمَّ آمَنُوا ثُمَّ كَفَرُوا ثُمَّ ازْدَادُوا كُفْرًا لَمْ يَكُنْ اللَّهُ لِيَغْفِرَ لَهُمْ وَلا لِيَهْدِيَهُمْ سَبِيلا[ (سورۃ النساء: 137)
"जो लोग ईमान लाये फिर उन्हों ने कुफ्र किया फिर ईमान लाये फिर कुफ्र किया फिर कुफ्र में बढ़ गये तो अल्लाह तआला उन्हें क्षमा नहीं करेगा और न तो उन्हें मार्ग दर्शायेगा।" (सूरतुन निसा: 137) ]
अतः ऐ प्रश्नकर्ता भाई ! आप शुद्ध तौबा करने में जल्दी करें और इस्लाम पर जम जायें और उसके उन कर्तव्यों की पाबंदी करें जिन्हें अल्लाह तआला ने अपने बंदों पर अनिवार्य कर दिया है,और इनमें सबसे महान कर्तव्य पाँच समय की नमाज़ें हैं। तथा गुनाहों से दूर रहें,और अपने पालनहार से प्रश्न करें कि वह अपने धर्म पर सुदृढ़ रखे। यदि आपको आलस्य या कमज़ोरी का सामना हो तो अल्लाह तआला से सहायता माँगें, और शैतान से अल्लाह का शरण ढूँढ़ें। यदि आपके मन में वस्वसा उत्पन्न हो जो आप को इस्लाम या उसके कुछ सि़द्धांतों के बारे में आप को शंका में डाल दे तो आप उस से उपेक्षा करें और शैतान से अल्लाह के शरण में आ जायें और कहें कि मैं अल्लाह और उसके पैगंबर पर ईमान लाया। इसी प्रकार आप अल्लाह की किताब (क़ुरआन) का पाठ करें और ऐसी किताबों को पढ़ें जो इस्लाम को आपके निकट पसंदीदा बनाने वाली हों और आपे के अंदर अल्लाह की आज्ञाकारिता की रूचि पैदा करने वाली हों,उदाहरण के तौर पर इमाम नववी की किताब (रियाज़ुस्सालिहीन),अल्लामा अब्दुर्रहमान अस्सअदी की तफ्सीर (व्याख्या) (तैसीर कलामिर्रहमान फी तफ्सीर कलामिल मन्नान). तथा उन किताबों से दूर रहें जो इस्लाम में शंका और संदेह पैदा करती हैं,और आपके लिए गुनाहों को सुसज्जित करती हैं। तथा कुसंगों से बचे क्योंकि वे मानव के रूप में शैतान हैं,तथा आप ऐसे साथियों को लाज़िम पकड़ें जो दीन पर सुदृढ़ रहने पर आपकी सहायता करें। तथा दीन के बारे में बहस करने से बचें क्योंकि यह चिंता और असमंजस का कारण बनता है, तथा अल्लाह तआला की आज्ञाकारिता में संघर्ष करें; क्योंकि वह संघर्ष करने वालों को शुद्ध मार्ग दर्शाता है,अल्लाह तआला का फरमान है:
]وَالَّذِينَ جَاهَدُوا فِينَا لَنَهْدِيَنَّهُمْ سُبُلَنَا وَإِنَّ اللَّهَ لَمَعَ الْمُحْسِنِينَ [(سورة العنكبوت : 69)
"और जिन लोगों ने हमारे लिए संघर्ष किया हम अवश्य ही उन्हें अपना मार्ग दर्शायेंगे,और अल्लाह तआला तो सदाचारियों के साथ है।" (सूरतुल अंकबूत: 69)