शुक्रवार 19 रमज़ान 1445 - 29 मार्च 2024
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इस्लाम अपने से पहले के पापों को मिटा दोता है।

प्रश्न

हमारा एक भाई है जिसने हाल ही में इस्लाम स्वाकीर किया है। उसने अपनी अज्ञानता के दिनों में नशीली चीज़ों के व्यापार के माध्यम से बहुत सारा धन कमाया था। वह इन ढेर सारे पैसों को अपने साथ लाया और उससे एक बड़ी पुस्तकालय स्थापित कर दिया। और इन्हीं पैसों द्वारा विवाह भी कर लिया। हाल के दिनों में, किसी ने उसे अवगत कराया कि उसके लिए इस धन में से दान करना जायज़ नहीं है, क्योंकि अल्लाह सर्वशक्तिमान पवित्र (पाक) है और केवल पवित्र (पाक) चीज़ों को स्वीकार करता है। अतः वह पूछ रहा है कि इन पैसों के विषय में उसे क्या करना चाहिएॽ और क्या यह बात सही हैॽ

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

प्रथम बात :

सर्व स्तुति अल्लाह के लिए है जिसने इस्लाम की तरफ़ उसका मार्गदर्शन किया, और हम अल्लाह सुब्हानहु व तआला से प्रार्थना करते हैं कि अल्लाह उसे सुदृढ़ रखे औऱ उस चीज़ की तौफीक़ प्रदान करे जिसमें उसके लिए दुनिया व आखिरत (लोक व परलोक) की भलाई है।

दूसरी बात :

यह अल्लाह की कृपा व दया है कि उसने इस्लाम को अपने से पहले के पापों एवं अवज्ञाओं को मिटाने वाला बना दिया है। अतः जब कोई काफिर इस्लाम स्वीकार करता है तो अल्लाह उसके कुफ्र के दिनों के किए हुए पापों को माफ कर देता है, और वह गुनाहों से पाक व साफ हो जाता है।

सहीह मुस्लिम (हदीस संख्या : 121) में अम्र बिन आस़ रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत है, वह कहते हैं : ''जब अल्लाह ने इस्लाम को मेरे हृदय में ड़ाल दिया तो मैं नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आया और कहा : आप अपना दाहिना हाथ बढ़ाएं ताकि मैं आप के हाथ पर बैअत करूँ। आप ने अपना दाहिना हाथ बढ़ाया। वह कहते हैं : तो मैं ने अपना हाथ समेट लिया। आप ने फरमाया : ऐ अम्र! क्या बात हैॽ वह कहते हैं : मैं ने कहा : मैं एक शर्त लगाना चाहता हूँ। आप ने फरमाया : तुम क्या शर्त लगाते होॽ मैं ने कहा : मुझे माफ कर दिया जाए। आप ने फरमाया : क्या तुम नहीं जानते कि इस्लाम अपने से पहले (पापों) को मिटा देता है।''

''इस्लाम अपने से पहले (पापों) को मिटा देता है।'' अर्थात उसे समाप्त कर देता है और उसके प्रभाव को मिटा देता है। यह बात इमाम मुस्लिम ने ''शर्ह मुस्लिम'' में कही है।

इसी प्रकार शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह से इस्लाम से पूर्व नशीले पदार्थों के व्यापार से धन कमाने से संबंधितत प्रश्न किया गया, तो शैख़ ने जवाब दिया :

''हम इस भाई से, जिस पर अल्लाह ने उसके हराम (निषिध) धन कमाने के बाद इस्लाम की नेमत के द्वारा उपकार किया है, कहेंगे किः खुश हो जाओ क्योंकि यह धन उसके लिए हलाल (वैद्ध) है। और इसके बारे में उसपर कोई पाप नहीं है; न तो उसे अपने पास रखने में, न उसमें जो उसने उस में से दान किया है और न ही उसमें जिससे उसने शादी की है। क्योंकि अल्लाह तआला किताबे अज़ीज में फरमाता है :

قُلْ لِلَّذِينَ كَفَرُوا إِنْ يَنْتَهُوا يُغْفَرْ لَهُمْ مَا قَدْ سَلَفَ وَإِنْ يَعُودُوا فَقَدْ مَضَتْ سُنَّتُ الأَوَّلِينَ ( الأنفال :۳۸)

''आप काफिरों से कह दीजिए कि यदि वे बाज़ आ जाएं तो उनके पिछले पाप क्षमा कर दिए जायेंगे, और अगर वे अपनी वही रीति रखेंगे तो पहले के लोगों के बारे में (हमारा) तरीक़ा गुज़र चुका है।'' (सूरतुल अनफाल : 38).

अर्थात : जो कुछ भी गुज़र चुका वह सब माफ कर दिया जाएगा। परंतु वह धन जोउसके मालिक से बलपूर्वक ले लिया है, तो वह उसे वापस कर देगा। जहाँ तक उस धन का संबंध है जो लोगों के बीच सहमति के माध्यम से अर्जित किया है, भले ही वह हराम क्यों न हो, जैसे कि वह धन जिसे ब्याज, या नशीली चीज़ों या उसके अलावा किसी अन्य चीज़ द्वारा कमाया है, तो वह धन उसके लिए हलाल है यदि उसने उसके बाद इस्लाम स्वीकार कर लिया है। क्योंकि अल्लाह तआला फरमान हैः

قُلْ لِلَّذِينَ كَفَرُوا إِنْ يَنْتَهُوا يُغْفَرْ لَهُمْ مَا قَدْ سَلَفَ ( الأنفال :۳۸)

''आप काफिरों से कह दीजिए कि यदि वे बाज़ आ जाएं तो उनके पिछले पाप क्षमा कर दिए जायेंगे।'' (सूरतुल अनफाल : 38).

इसी प्रकार जब अम्र बिन आस रज़ियल्लाहु अन्हु ने इस्लाम स्वीकार किया तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :

أَمَا عَلِمْتَ أَنَّ الإِسْلامَ يَهْدِمُ مَا كَانَ قَبْلَهُ

''क्या तुम नहीं जानते कि इस्लाम अपने से पहले पापों को मिटा देता है।''

तथा बहुत से काफिरों ने इस्लाम स्वीकार किया जबकि उन्हों ने मुसलमानों की हत्या की थी, इसके बा-वजूद जो कुछ उन्हों ने किया था उस पर उनकी पकड़ नहीं की गई। अतः इस भाई को बता दीजिए कि उसका धन हलाल है, और उस में कोई आपत्ति की बात नहीं है, वह उस में से दान कर सकता है, उससे वह शादी कर सकता है। तथा उससे जो यह कहा गया है कि उसे या उस में से दान करना जायज़ नहीं है तो इसका कोई आधार नहीं है।'' समाप्त हुआ।

''लिक़ाआतुल बाबिल मफ्तूह'' (373-374)

स्रोत: साइट इस्लाम प्रश्न और उत्तर