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क्या आम आदमी के लिए यह जायज़ है कि वह फतवा पूछे और किसी भी विद्वान की बात ग्रहण कर ले, या उसे केवल अपने उस देश के विद्वानों से फतवा पूछना चाहिए जिसमें वह रहता हैॽ
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
लोगों के तीन प्रकार हैं :
पहला प्रकार :
मुजतहिद विद्वान, और यह वह व्यक्ति है जो क़ुरआन और सुन्नत के ग्रंथों से सीधे अहकाम प्राप्त करने की क्षमता रखता है। ऐसे व्यक्ति के लिए किसी अन्य विद्वान का अनुकरण करना जायज़ नहीं है। बल्कि, उसे चाहिए कि उसके इज्तिहाद ने उसे जिस हुक्म तक पहुँचाया है, उसका पालन करे, चाहे वह अपने समय के विद्वानों से सहमत हो या उनसे असहमत हो।
दूसरा प्रकार :
वह ज्ञान का साधक जो ज्ञान प्राप्त करने में पारंगत है यहाँ तक कि वह विद्वानों के कथनों के बीच तरजीह (प्रधानता) देने की क्षमता रखता है, भले ही वह इज्तिहाद के स्तर तक न पहुँचा हो। तो ऐसे व्यक्ति के लिए किसी विद्वान का अनुकरण करना आवश्यक नहीं है। बल्कि उसे विद्वानों के कथनों और उनके प्रमाणों के बीच तुलना करना चाहिए और जो उसे सबसे सही (प्रबल) कथन प्रतीत हो, उसका पालन करना चाहिए।
तीसरा प्रकार :
आम लोग, जिनके पास इस्लामी शरीयत का इतना ज्ञान नहीं है जो उन्हें विद्वानों के कथनों के बीच तरजीह (प्रधानता) देने के योग्य बनाए। तो ऐसे लोगों के लिए क़ुरआन और सुन्नत के ग्रंथों से नियम प्राप्त करना संभव नहीं है, और न ही वे विद्वानों के कथनों के बीच तरजीह (प्रधानता) देने में सक्षम हैं। इसलिए उनपर अनिवार्य यह है कि वे विद्वानों से पूछें और उनकी बातों का पालन करें। सर्वशक्तिमान अल्लाह ने फरमाया :
فَاسْأَلُوا أَهْلَ الذِّكْرِ إِنْ كُنْتُمْ لَا تَعْلَمُونَ سورة النحل : 43
“अतः यदि तुम (स्वयं) नहीं जानते हो, तो ज्ञान वालों से पूछ लो।” (सरतुन—नह़्ल : 43).
उनके लिए आवश्यक है कि अपने समय के विद्वानों, बल्कि अपने देश के विद्वानों का अनुकरण करें, ताकि उनके लिए विद्वानों के कथनों में से जो वे चाहें चुनने के लिए दरवाज़ा न खोल दिया जाए - जबकि उनके पास तरजीह देने की योग्यता नहीं है – क्योंकि वे हमेशा सबसे आसान और अपनी मर्ज़ी के अनुसार कथन को चुनेंगे, और इससे बहुत विवाद और मतभेद पैदा होगा और लोग धीरे-धीरे धर्म के नियमों से निकल जाएँगे।
विद्वानों ने इन तीनों क़िस्मों को स्पष्ट रूप से बयान किया है।
जहाँ तक पहले और दूसरे प्रकार का संबंध है, तो ‘तूफी’ ने “मुख़्तसर अर-रौज़ह” (3/629) में कहा :
“जब मुजतहिद इज्तिहाद (किसी मस्अले का शरई हुक्म प्राप्त करने के लिए भरसक प्रयास) करे और उसे प्रबल गुमान हो जाए कि हुक्म ऐसा और ऐसा है, तो उसके लिए सर्वसहमति के साथ किसी दूसरे की तक़लीद करना जायज़ नहीं है, अर्थात् उसके बारे में कोई विवाद नहीं है।
लेकिन जिसने अभी तक हुक्म प्राप्त करने के लिए इज्तिहाद नहीं किया है, जबकि वह संभावित रूप से (जो वास्तिवक रूप से क़रीब है) उसे खुद से जानने में सक्षम है, क्योंकि वह इज्तिहाद करने के योग्य है, तो उसके लिए भी किसी और का अनुकरण करना बिल्कुल जायज़ नहीं है; न अपने से अधिक जानकार की और न उसके अलावा की; न तो सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम में से और न ही उनके अलावा में से।” उद्धरण समाप्त हुआ।
रहा तीसरा प्रकार और वह आमजन का है। तो “तनक़ीह़ुल फतावा अल-हामिदिय्यह” (7/431, ‘शामिला’ लाइब्रेरी की नंबरिंग के अनुसार) में आया है : "लाभ : आम लोगों का काम फ़ुक़हा (धर्म शास्त्रियों) के कथन को अपनाना और उनके कथनों और कार्यों में उनका अनुसरण करना है ... पिछले (बीते हुए) विद्वानों के कथनों में आम आदमी के लिए चुनाव करने का कोई विकल्प नहीं है। उसके लिए अपने समय के विद्वानों के कथनों में चयन करने का उस समय विकल्प है जब वे ज्ञान, सच्चाई और अमानतदारी में बराबर हों। जिस व्यक्ति के साथ कोई घटना हुई और उसके समय के विद्वानों ने उसे सहाबा के कथनों की सूचना दी, तो अनभिज्ञ (आम आदमी) उनमें से किसी कथन को नहीं ग्रहण कर सकता यहाँ तक कि विद्वान व्यक्ति प्रमाण के साथ उसके लिए किसी कथन का चयन कर दे।” उद्धरण समाप्त हुआ।
शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह ने कहा : “लोग विभिन्न प्रकार के होते हैं। उनमें से कुछ इज्तिहाद के स्तर तक पहुँचते हैं और कुछ उससे कमतर होते हैं। तथा उनमें से कोई किसी एक मस्अले में इज्तिहाद करने वाला होता है, वह उसके बारे में शोध और अनुसंधान करता है और वह उसके बारे में सत्य (सही हुक्म) को जानता है, लेकिन उसके अलावा मुद्दों के बारे में ऐसा नहीं होता। जबकि कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो कुछ भी नहीं जानते हैं। अतः आम लोगों का मत वही है जो उनके विद्वानों का मत है। इसलिए, अगर कोई कहने वाला हमसे कहे : मैं धूम्रपान करता हूँ; क्योंकि अन्य इस्लामी देशों में ऐसे लोग हैं जो कहते हैं : यह जायज़ है, और मुझे तक़लीद करने की स्वतंत्रता है। हम कहेंगे : यह तुम्हारे लिए जायज़ नहीं है, क्योंकि तुम्हारा दायित्व अनुकरण (तक़लीद) करना है, और तुम अपने विद्वानों की तक़लीद करने के अधिक योग्य हो। यदि तुम अपने देश के बाहर के लोगों की तक़लीद करोगे, तो इससे एक ऐसे मामले में अफ़रा-तफ़री (अव्यवस्था) पैदा होगी, जिसके लिए कोई शरई प्रमाण नहीं है। और अगर वह कहे : वह अपनी दाढ़ी मुँडवाएगा, क्योंकि कुछ क्षेत्रों के विद्वानों ने कहा है : इसमें कोई हर्ज नहीं है। हम उससे कहेंगे : यह संभव नहीं है। तुम्हारा कर्तव्य तक़लीद करना है। तुम अपने विद्वानों का विरोध न करो। तथा यदि वह कहे : मैं सदाचारियों की कब्रों की परिक्रमा करना चाहता हूँ; क्योंकि कुछ क्षेत्रों में ऐसे विद्वान हैं जिन्होंने कहा है : इसमें कोई हर्ज नहीं है। या वह कहे : मैं अल्लाह के पास उनका वसीला पकड़ना चाहता हूँ, और ऐसे ही अन्य बातें। तो हम कहेंगे : यह संभव नहीं है। क्योंकि आम आदमी के लिए अनिवार्य है कि वह अपने देश के उन विद्वानों की तक़लीद करे जिनपर उसे भरोसा है। हमारे शैख अब्दुर-रहमान बिन सा’दी रहिमहुल्लाह ने इसका उल्लेख किया है, उन्होंने फरमाया : “आम लोग अपने देश के बाहर के विद्वानों की तक़लीद नहीं कर सकते; क्योंकि इससे अफ़रा-तफ़री और विवाद पैदा होता है। यदि वह कहे : मैं ऊँट के मांस से वुज़ू नहीं करता; क्योंकि कुछ क्षेत्रों के विद्वानों का कहना है : उससे वुज़ू करना आवश्यक नहीं है। तो हम कहेंगे : यह संभव नहीं है। तुम्हारे लिए वुज़ू करना अनिवार्य है, क्योंकि यह तुम्हारे विद्वानों का मत है और तुम उनकी तक़लीद (अनुकरण) करने वाले हो।”
“लिक़ाआतुल बाबिल मफ़तूह” (32/19) से उद्धरण समाप्त हुआ।
तथा उन्होंने यह भी कहा : "जहाँ तक आम लोगों का संबंध है, तो वे अपने देश के विद्वानों के मत के प्रति बाध्य किए जाएँगे; ताकि आम लोग बिखरने न पाएँ; क्योंकि अगर हम आम आदमी से कहें : तुम्हारे पास जो भी कथन आए, तुम उसे ग्रहण कर सकते हो, तो इस्लामी उम्मत एक उम्मत नहीं रहेगी। इसीलिए हमारे शैख अब्दुर-रहमान बिन सा’दी रहिमहुल्लाह ने कहा : आम लोग अपने विद्वानों के मत पर होते हैं। उदाहरण के लिए : हमारे यहाँ सऊदी अरब में महिला के लिए अपना चेहरा ढकना अनिवार्य है। इसलिए हम अपनी महिलाओं को ऐसा करने के लिए बाध्य करेंगे। यहाँ तक कि यदि कोई महिला हमसे कहे : मैं अमुक मत का पालन करती हूँ और उसमें चेहरा प्रकट करना जायज़ है। तो हम कहेंगे : तुम्हारे लिए ऐसा करना जायज़ नहीं है। क्योंकि तुम एक सामान्य जन हो, इज्तिहाद के स्तर तक नहीं पहुँची हो। बल्कि तुम इस मत का पालन इसलिए करना चाहती हो क्योंकि उसमें एक रुख़्सत (रियायत) है और रूख़्सतों को तलाश करना हराम है।
लेकिन अगर कोई विद्वान अपने इज्तिहाद के आधार पर यह मत अपनाता है कि महिला के लिए अपना चेहरा प्रकट करने में कोई हर्ज नहीं है, और वह कहता है : मैं अपनी पत्नी को अपना चेहरा खोलने दूँगा। हम कहेंगे : कोई बात नहीं। लेकिन वह उसे ऐसे देश में चेहरा प्रकट करने नहीं देगा जहाँ महिलाएँ चेहरे को छिपाती हैं। उसे ऐसा करने से मना किया जाएगा। क्योंकि यह दूसरों को भ्रष्ट कर देगा। और क्योंकि इस मुद्दे में इस बात पर सर्वसहमति है कि चेहरे को ढकना बेहतर है। इसलिए जब चेहरे को ढकना बेहतर है, तो अगर हम उसे ऐसा करने के लिए बाध्य करते हैं, तो हम उसे ऐसी चीज़ के लिए बाध्य नहीं कर रहे हैं, जो उसके मत के अनुसार निषिद्ध है। बल्कि, हम उसे ऐसी चीज़ के लिए बाध्य कर रहे हैं जो उसके मत के अनुसार बेहतर है। तथा एक अन्य बात के लिए भी हम ऐसा कह रहे हैं और वह यह कि धर्म के प्रति प्रतिबद्ध इस देश के लोगों में से कोई दूसरा व्यक्ति उसकी तक़लीद (अनुकरण) न करे। क्योंकि ऐसा करने से विभाजन और मतभेद जन्म लेगा। लेकिन अगर वह अपने देश में जाता है, तो हम उसे अपनी राय के लिए बाध्य नहीं करते हैं, जब तक कि यह मुद्दा इज्तिहाद के अधीन है और इसके लिए प्रमाणों को देखने और उनके बीच तुलना करके एक को दूसरे पर प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।”
“लिक़ाआतुल बाबिल मफ़तूह” (32/19) से उद्धरण समाप्त हुआ।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।