हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।विद्वानों के दो कथनों में से सब से शुद्ध कथन के अनुसार नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की क़ब्र या आप के अलावा किसी अन्य की क़ब्र की ज़ियारत के उद्देश्य से यात्रा करना जाइज़ नहीं है ; क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : "तीन मस्जिदों के अतिरिक्त किसी अन्य स्थान के लिए (उनसे बरकत प्राप्त करने और उन में नमाज़ पढ़ने के लिए) यात्रा न की जाए: मस्जिदे हराम, मेरी यह मस्जिद और मस्जिदे अक़्सा।" (सहीह बुखारी व सहीह मुस्लिम)
जो आदमी नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की क़ब्र की ज़ियारत करना चाहता है और वह मदीना से दूर रहता है तो उस के लिए धर्म संगत यह है कि वह अपनी यात्रा से मस्जिदे नबवी की ज़ियारत का इरादा करे, इस प्रकार आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की क़ब्रे शरीफ की ज़ियारत और अबू बक्र एंव उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा तथा उहुद के शहीदों और बक़ीअ वालों की क़ब्रों की ज़ियारत उस के अंर्तगत दाखिल हो जायेगी।
और यदि वह उन दोनों की ज़ियारत की नीयत करता है तब भी जाइज़ है ; क्योंकि किसी चीज़ के अधीन होकर ऐसी चीज़ें भी जाइज़ हो जाती हैं जो स्वतन्त्र रूप से (अकेले) जाइज़ नहीं होती हैं, जहाँ तक केवल क़ब्र की ज़ियारत की नीयत करने का संबंध है तो उस के लिए यात्रा करने की स्थिति में जाइज़ नहीं है, किन्तु यदि वह उस जगह से क़रीब है जिस के लिए यात्रा करने की आवश्यकता नहीं होती है और न ही उस के क़ब्र तक जाने को यात्रा का नाम दिया जाता है, तो ऐसी स्थिति में इस में कोई हरज (पाप) की बात नहीं है, क्योंकि बिना यात्रा के आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की क़ब्र और आप के दोनों साथियों की क़ब्रों की ज़ियारत करना सुन्नत और नेकी का कार्य है, इसी तरह उहुद के शहीदों और बक़ीअ़ वालों की क़ब्रों की ज़ियारत करना भी है, बल्कि इसी तरह हर जगह पर सामान्य मुसलमानों की क़ब्रों की ज़ियारत करना सुन्नत और नेकी का कार्य है, परन्तु यह बिना यात्रा के होना चाहिए (अर्थात् मात्र उस की ज़ियारत के लिए यात्रा न की गई हो), क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लमका फरमान है कि : "क़ब्रों की ज़ियारत करो ; क्योंकि यह तुम्हें आखिरत (परलोक) की याद दिलाती है।" (इसे इमाम मुस्लिम ने अपनी सहीह में रिवायत किया है)
तथा आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपने साथियों को यह शिक्षा देते थे कि जब वे क़ब्रों की ज़ियारत करें तो यह दुआ पढ़ें :
"अस्सलामों अलैकुम अह्लद्दियारे मिनल मोमिनीना वल मुस्लिमीन, व-इन्ना इन् शा-अल्लाहो बिकुम लाहिक़ून, नस्अलुल्लाहो लना व लकुमुल आफियह"
"ऐ मोमिनों और मुसलमानों के घराने वालो! तुम पर शान्ति हो, इन-शा-अल्लाह हम तुम से मिलने वाले हैं, हम अल्लाह तआला से अपने लिए और तुम्हारे लिए आफियत का प्रश्न करते हैं।" (इसे इमाम मुस्लिम ने अपनी सहीह में रिवायत किया है)