हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
मुसलमान के हक़ में धर्म संगत यह है कि वह अल्लाह की उपासना उस चीज़ के द्वारा करे जिसे उसने अपनी किताब में धर्म संगत करार दिया है, तथा जो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रमाणित है। और इसलिए भी कि इबादतों के अंदर मूल सिद्धांत तौक़ीफ है (अर्थात शरीअत द्वारा निर्धारित सीमा पर ठहर जाना और उससे न फलांगना है)। अतः बिना किसी सही प्रमाण के यह नहीं कहा जायेगा कि यह इबादत (पूजा का कृत्य) धर्म संगत है।
जहाँ तक तथाकथित सलातुल हाजत की बात है: तो यह – हमारे ज्ञान के अनुसार – ज़ईफ़ (कमज़ोर) और मुन्कर (निंदित) हदीसों में वर्णित हुआ है जिनसे तर्क स्थापित नहीं हो सकता और न तो वे इस योग्य हैं कि उन पर किसी अमल का आधार रखा जाय।
फतावा स्थायी समिति 8/162.
सलातुल हाजत के बारे में वर्णित हदीस यह है : अब्दुल्लाह बिन अबी औफ़ा अल-असलमी से वर्णित है कि उन्हों ने कहा : ”अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हमारे पास निकल कर आए और फरमाया : जिस व्यक्ति की अल्लाह के पास या उसकी मख्लूक़ में से किसी के पास कोई ज़रूरत हो तो वह वुज़ू करके दो रकअत नमाज़ पढ़े, फिर यह (दुआ) पढ़े :
ला इलाहा इल्लल्लाह अल-हलीमुल करीम, सुब्हानल्लाहि रब्बिल अर्शिल अज़ीम, अल-हम्दुलिल्लाहि रब्बिल आलमीन, अल्लाहुम्मा इन्नी असअलुका मूजिबाति रहमतिक व अज़ाइमा मगफि-रतिक वल-गनीमता मिन कुल्ले बिर्र वस्सलामता मिन कुल्ले इस्म, असअलुका अल्ला तदआ ली ज़ंबन इल्ला ग़फ़रतह वला हम्मन इल्ला फर्रज्तह, वला हाजतन हिया लका रिज़न इल्ला क़ज़ैतहा ली
फिर वह अल्लाह तआला से दुनिया और आखिरत की चीज़ों में से जो चाहे मांगे तो वह उसे मुक़द्दर कर देगा।” इसे इब्ने माजा (इक़ामतुस्सलात वस्सुन्नह/1374)
तिर्मिज़ी ने कहा : यह हदीस गरीब है और इसकी इस्नाद में कुछ बात है : क़ाइद बिन अब्दुर्रहमान को हदीस के अंदर ज़ईफ करार दिया जाता है। अल्बानी कहते हैं : बल्कि वह बहुत ज़ईफ हैं। हाकिम कहते हैं : उन्हों ने अबू औफा से मनगढ़न्त हदीसें रिवायत की हैं।
मिश्कातुल मसाबीह 1/417.
किताब ”अस्सुनन वल मुबतदआत” के लेखक ने क़ाइद बिन अब्दुर्रहमान के बारे में तिर्मिज़ी की बात का उल्लेख करने के बाद कहा : और अहमद ने कहा है कि वह मतरूक हैं … और इब्नुल अरबी ने उन्हें ज़ईफ ठहराया है।
और उन्हों ने कहा :
और जबकि आप ने जान लिया कि इस हदीस में क्या खामियाँ हैं। अतः आप के लिए सबसे बेहतर, सबसे विशुद्ध और सबसे सुरक्षित यह है कि आप रात के बीच में, अज़ान और इक़ामत के बीच, सलाम फेरने से पूर्व, नमाज़ के अंतिम हिस्से में और जुमा के दिनों में दुआ करें। क्योंकि जुमा के दिन एक घड़ी (समय) ऐसी है जो दुआ की क़बूलियत की घड़ी है, तथा रोज़ा इफ्तार करते समय। क्योंकि आपके पालनहार का फरमान है :
أدعوني أستجب لكم
”तुम मुझे पुकारो, मैं तुम्हारी दुआयें क़बूल करूँगा।” (सूरत गाफिर: 60)
तथा फरमाया :
وإذا سألك عبادي عني فإني قريب أجيب دعوة الداع إذا دعان
”और जब मेरे बन्दे आप से मेरे बारे प्रश्न करें, तो मैं क़रीब हूँ, पुकारने वाले की पुकार का उत्तर देता हूँ जब वह मुझे पुकारता है।” (सूरतुल बक़रा : 186)
तथा अल्लाह का फरमान है :
ولله الأسماء الحسنى فادعوه بها
”और अल्लाह ही के अच्छे अच्छे नाम हैं अतः तुम उसे उन्हीं नामों से पुकारो।”(सूरतुल आराफ : 180).
अश्शुक़ैरी की किताब ”अस्सुनन वल मुबतदआत” पृष्ठ/124.