हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.
उलमा (विद्वानों) ने ग्यारहवीं मुहर्रम का रोज़ा रखना इसलिए मुस्तहब समझा है, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से इस दिन का रोज़ा रखने का आदेश वर्णित है। इसी संबंध में इमाम अहमद (हदीस संख्या : 2155) ने इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत किया है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : (आशूरा के दिन का रोज़ा रखो और इस में यहूद की मुखालिफत करो, इसके एक दिन पहले या एक दिन बाद का रोज़ा रखो।)
इस हदीस के सहीह होने में उलमा का इख्तिलाफ है। शैख अहमद शाकिर ने इस हदीस को "हसन" क़रार दिया है, जबकि मुसनद इमाम अहमद की तहक़ीक़ करने वालों ने इसे ज़ईफ़ क़रार दिया है।
इब्ने खुज़ैमा (हदीस संखया : 2095) ने इस हदीस को इन्हीं शब्दों के साथ रिवायत किया है। शैख अल्बानी रहिमहुल्लाह कहते हैं : “इस हदीस की सनद, इब्ने अबी लैला की स्मरण-शक्ति में कमी की वजह से "ज़ईफ" (कमज़ोर) है। अता वग़ैरह ने इसका विरोध किया है और उन्होंने इसे इब्ने अब्बास से मौक़ूफन (अर्थात इब्ने अब्बास के कथन के तौर पर) रिवायत किया है, और बैहक़ी और त़हावी के निकट इसकी सनद सहीह है।” अल्बानी की बात समाप्त हुई।
यदि यह हदीस हसन है तो यह अच्छी बात है, और अगर ज़ईफ (कमज़ोर) है तो इस तरह के मामले में ज़ईफ हदीस के बारे में उलमा सहजता से काम लेते है, क्योंकि इस हदीस में पाई जानेवाली कमज़ोरी मामूली है, चुनाँचे यह हदीस न तो मक्ज़ूब (झूठी) है और न ही मौज़ूअ (मनगढ़त) है। और इस लिए भी कि यह आमाल (कर्मों) की फज़ीलत के विषय में है। विशेषकर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से मुहर्रम के महीना में रोज़ा रखने की प्रेरणा देने का वर्णन हुआ है, यहाँ तक कि अल्लाह के पैग़ंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : रमज़ान के महीने के बाद सब से अफज़ल (सर्वश्रेष्ठ) रोज़ा अल्लाह के महीने मुहर्रम का रोज़ा है।) इस हदीस को मुस्लिम (हदीस संख्याः 1163) ने रिवायत किया है।
बैहक़ी ने इस हदीस को "अस्सुननुल कुब्रा" में पिछले शब्दों के साथ रिवायत किया है। और एक अन्य रिवायत में इस शब्द के साथ उल्लेख किया है : (उस से पहले एक दिन का रोज़ा रखो और उसके बाद एक दिन का रोज़ा रखो)। यहाँ इस हदीस में "औ" (अर्थात या)की जगह "वाव" (अर्थात "और ") का शब्द आया है।
हाफिज़ इब्ने हजर इसे “इत्तिहाफुल महरा” में इस शब्द के साथ लाए हैं : (उसके एक दिन पहले और एक दिन बाद रोज़ा रखो)। और वह कहते हैं : “इसे अहमद और बैहक़ी ने ज़ईफ सनद के साथ रिवायत किया है। क्योंकि इसमें मुहम्मद बिन अबी लैला एक ज़ईफ रावी हैं, लेकिन उन्हों ने इसे अकेले नहीं रिवायत किया है, बल्कि इस पर सालेह बिन अबी सालेह बिन हय ने उनकी मुताबअत की है।” समाप्त हुआ।
इस रिवायत से ज्ञात होता है कि नौवीं, दसवीं और ग्यारहवीं तारीख़ का रोज़ा रखना मुस्तहब है।
कुछ उलमा ने ग्यारहवीं मुहर्रम के रोज़े के मुस्तहब होने का एक अन्य कारण बयान किया है। और वह दसवीं तारीख़ के रोज़े के लिए सावधानी से काम लेना है, क्योंकि लोग मुहर्रम का चाँद देखने में गलती कर जाते हैं और यह पता नहीं चल पाता कि निश्चित रूप से दसवीं मुहर्रम का दिन किस दिन है। इसलिए अगर मुसलमान नौ, दस और ग्यारह मुहर्रम का रोज़ा रख ले, तो उसने आशूरा का रोज़ा सुनिश्चित कर लिया। इब्ने अबी शैबा ने “अल-मुसन्नफ” (2/313) में ताऊस रहिमहुल्लाह से रिवायत किया है कि वह आशूरा छूट जाने के भय से उससे एक दिन पहले और एक दिन बाद का रोज़ा रखते थे।
इमाम अहमद रहिमहुल्लाह कहते हैं :"जो कोई आशूरा का रोज़ा रखना चाहे तो वह नौ और दस मुहर्रम का रोज़ा रखे, सिवाय इसके कि महीनों के बारे में उसे आशंका हो जाए तो वह तीन दिन रोज़ा रखे। इब्ने सीरीन ऐसा कहा करते थे।” अंत हुआ। ""अल-मुग़्नी" (4/441).
इस से स्पष्ट हो गया कि आशूरा में तीन दिनों के रोज़े को बिद्अत कहना सही नहीं है।
यदि किसी से नौ मुहर्रम का रोज़ा छूट जाए, तो अगर वह केवल दस मुहर्रम का रोज़ा रखे तो इस में कोई आपत्ति नहीं है, और न ही यह मकरूह (नापसन्दीदा) होगा। और अगर उसके साथ ग्यारहवीं मुहर्रम का रोज़ा मिला ले तो यह अफज़ल (श्रेष्ठ) है।
अल्लामा अल-मर्दावी "अल-इन्साफ़" (3/346) में कहते हैं :
"हंबली मत के सही कथन के अनुसार, अकेले दसवीं मुहर्रम का रोज़ा रखना मकरूह नहीं है। शैख तक़ीउद्दीन (इब्ने तैमिय्या) रहिमहुल्लाह ने इस पर सहमति व्यक्त की है कि यह मकरूह नहीं है।" संक्षेप के साथ समाप्त हुआ।
और अल्लाह तआला ही सब से अधिक ज्ञान रखता है।